धर्म अलग-अलग हों, धर्मों को मानने वालों की वेशभूषाएं भी अलग-अलग हों, फिर भी धर्मात्माओं में एक प्रकार का साम्य दिखाई देेता है। जैसे एक बौद्ध भिक्षु, जैन साधु या क्रिश्चियन पादरी अलग-अलग होकर भी कहीं एक जैसे होते हैं। आप यदि उन्हें एक साथ बिठाकर एक ग्रुप फोटो लें, तब वे सब किसी एक परिवार के सदस्य लगेंगे। कोई रामभक्त हिंदू या किसी धर्मप्राण यहूदी बूढ़े को देख आप विरोधी भाव इनके व्यक्तित्व में नहीं पाएंगे जितना इनके धार्मिक विचारों में हो सकता है। यह एक भोले और भले लोगों की विश्व जाति है जो अपनी-अपनी कर्मकांडी सीमाओं में रहकर आदमी के कल्याण की बात सोचती, कहती और बड़ी हद तक करती भी रहती है। जैसे एक साधु और फकीर एक साथ खाना न खाएं, मगर एक साथ पास बैठकर घंटों बात कर सकते हैं। मतभेद के बीच में कुछ मतैक्य हो सकता है। अकबर जब भिन्न धर्म के नेताओं की बैठक बुला, उनकी परस्पर बहस-चर्चा कराता था, तब होती ही थी। कोई वाक-आउट तो नहीं करता था। कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर-भक्ति धर्मप्राण, मानव-सेवी पंथ को पूजने वाले अलग-अलग लोगों के व्यक्तित्व में कुछ एक जैसी बात होती है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि कहीं यह सौम्यता अपने में अपूर्ण तो नहीं है, अभी कुछ ही सालों में विकसित हुई हो, क्योंकि इन धर्मात्माओं की पहचान में कुछ नए तत्व जुड़ गए हैं। जैसे यह चिंता तो सभी धर्मगुरुओं और भक्तों को रहती है कि चढ़ावा चढ़े और धार्मिक कोष में वृद्धि हो। मगर उसके लिए बैंक लूट लेना, दुकानों या घरों में घुस नकदी या जेवर बटोरना, धर्म की सेवा के नए आयाम हैं। जो इन्हीं वर्षों में विकसित हुए हैं। अब यदि एक धर्म से दूसरा धर्म शिक्षा ले, तो दृश्य यों होगा कि जिस भी मठ में रुपयों की कमी आई, उसी के भक्त मुंह पर कपड़ा लपेट अपने धर्म की जय बोल एक कार की नंबर प्लेट बदलकर निकले और किसी बैंक से दो-चार लाख लूट लाए। यह हुई नए धर्मात्मा की पहचान, उसे बैंक लूटना आना चाहिए।
उसके पास एक पिस्तौल रहनी चाहिए, हथगोला होना चाहिए। कब उसे अपने धर्म की शान में दूसरों के प्राण लेने के ऊपर से आदेश आ जाएं, उससे तैयार रहना चाहिए। धर्मात्मा पुरुष को हत्या करनी आनी चाहिए। कार से फौरन भागना आना चाहिए। बॉर्डर क्रॉस करने की कला आनी चाहिए। विदेशी एजेंटों से संपर्क कैसे करें, वहां से शस्त्र कैसे लाएं? यह सब नई धार्मिक क्रियाएं हैं। इसे जाने बिना आप सच्चे भक्त नहीं कहे जाएंगे। हो नहीं सकते। सच्चा धार्मिक व्यक्ति हेरोइन, चरस आदि की स्मगलिंग करना और उसे बेचना जानता है।
परिदृश्य बदल रहा है। इक्कीसवीं सदी तक पहुंचते-पहुंचते सारे धर्म मिलीटेंट अर्थात सैन्यधर्मी हो जाएंगे। पुजारी स्टेनगन ले बैठा रहेगा। आपने चढ़ावे में कंजूसी दिखााई कि उसने आपके सीने से नली अड़ाई। संत पुरुष शाप नहीं देंगे। नाराज होने पर वे आपको गोली मार देंगे। अधर्मी जीवन जीने में रखा क्या है? भजन-कीर्तन, घंटी-शंखनाद, गोलीबारी आदि सारी ध्वनियां सम्मिलित होंगी। धर्मप्राण जनता आने वाले वर्षों के लिए तैयार रहे। स्वास्थ्य पर ध्यान दे।
(यह व्यंग्य किताबघर से प्रकाशित पुस्तक प्रतिदिन से लिया गया हैं। इसी नाम से उन्होंने नवभारत टाइम्स अखबार के लिए सात साल स्तंभ लेखन किया मध्य प्रदेश के छोटे से शहर उज्जैन में जन्में शरद जोशी के मारक व्यंग्य के मुरीदों की कमी नही है। लगभग 45 वर्षों तक उन्होंने देश के सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखा। 5 सितंबर 1991 को मुंबई में उनका देहावसान हो गया। उनके व्यंग्य आज के दौर में भी उतने ही प्रासंगिक हैं।)