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हिंदी की प्रमुख व्यंग्य पत्रिका "मतवाला" के सौ साल, गिरफ्तार हुए थे इसके संपादक

आज से ठीक 100 साल पहले 26 अगस्त 1923 को कोलकाता से हिंदी की प्रमुख व्यंग्य पत्रिका "मतवाला" का प्रकाशन हुआ था...
हिंदी की प्रमुख व्यंग्य पत्रिका

आज से ठीक 100 साल पहले 26 अगस्त 1923 को कोलकाता से हिंदी की प्रमुख व्यंग्य पत्रिका "मतवाला" का प्रकाशन हुआ था जिसके बाज़ार में आते ही तहलका मचा गया था और साहित्य जगत में उसकी काफी धूम मची थी। राष्ट्रीय आंदोलन में जिन पत्रिकाओं ने देश में राजनीतिक सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उनमें "मतवाला" अग्रणी था क्योंकि वह केवल हास्य व्यंग्य की पत्रिका नहीं थी बल्कि एक संपूर्ण पत्रिका थी जिसके तीखे धारदार लेखों से ब्रिटिश हुकूमत के भी कान खड़े हो गए थे।

महावीर प्रसाददिवेदी की "सरस्वती"

गणेश शंकर विद्यार्थी के "प्रताप" प्रेमचंद के "हंस" माखनलाल चतुर्वेदी के" कर्मवीर "बनारसी दासचतुर्वेदी के "विशाल भारत" बालकृष्ण शर्मा नवीन की" प्रभा" ईश्वरी प्रसादशर्मा के" हिन्दू पंच "और रामरख सहगल के" चाँद "पत्रिका की तरह" महादेव प्रसाद सेठ के "मतवाला" ने भी अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी।
हिंदी के प्रसिद्ध लेखक एवं नवजागरण कल के अध्येता कर्मेंदु शिशिर ने "मतवाला" के योगदान पर आज से दस साल पहले तीन खंडों में एक पुस्तक संपादित की। इससे पहले वे "मतवाले की बहक" "मतवाले की चक्की" और" मतवाले की होली" जैसी पुस्तक संपादित करचुके। हिंदी की किसी भी पत्रिका के बारे में आज तक कोई इतना महत्वपूर्ण शोधपरक प्रकाशन नहीं हुआ है जो इस बात का सबूत है "मतवाला" ने कैसी ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी।

आज से करीब 30 साल पहले पहल पत्रिका की पुस्तिका "मतवाला मंडल" निकालकर कर्मेंदु शिशिर ने हिंदी समाज को इस पत्रिका की ऐतिहासिक भूमिका से रूबरू कराया था। 

 

सबसे दिलचस्प बात यह है कि मतवाला मंडल के सभी चार प्रमुख सदस्य युवा लेखक थे जो बाद में युग प्रवर्तक लेखक बने। इनमें एक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला थे जो बीसवीं सदी के सबसे बड़े कवि माने गए, इनमे दूसरे शिवपूजन सहाय थे जो हिंदी के गद्य निर्माता और साहित्यकार निर्माता माने गए,इनमें तीसरे पांडेय बेचन शर्मा जैसे अद्भुत लेखक भी थे यद्यपि वे बाद में जुड़े और सबसे उम्रदराज लेखक पत्रकार नवजादिक लाल श्रीवास्तव थे जो अल्पायु में चल बसे ।वे निराला से उम्र में 11 साल बड़े थे यानी इस मंडल में सबसे कम आयु के लेखक निराला ही थे जो 24-25 साल के थे। इस पत्रिका के मालिक महादेव प्रसाद सेठ थे जो खुद भी एक लेखक थे। आठ पन्नों की यह साप्ताहिक समाचारपत्र नुमा पत्रिका बंग्ला की हास्य व्यंग्य पत्रिका "अवतार" की प्रेरणा से निकली थीजिसे मुंशी नवजदिकलाल श्रीवास्तव खरीद कर लाये थे।मतवाला नामकरण मुंशी जी ने किया था।इस सम्बन्ध में प्रख्यात आलोचक रामविलास शर्मा डॉक्टर मंगल मूर्ति और कर्मेंदु शिशिर ने विस्तार से लिखा है।खुद शिवपूजन सहाय ने 1932 में प्रेमचन्द के हंस के आत्मकथा अंक में मतवाला कैसे निकला लेख लिखा था।यानी किसी पत्रिका के दसेक वर्ष पूरे होने पर प्रेमचन्द यह लेख अपनी पत्रिका में देते हैं।इससे मतवाला के महत्व को समझा जा सकता है।शिवपूजन सहाय के उस लेख को पढ़कर पता चलता है कि "मतवाला" में सबसे अधिक श्रम खून पसीना शिवपूजन सहाय का ही लगा था।कर्मेंदु शिशिर ने लिखाहै - महादेव प्रसाद सेठ ने शिवपूजन सहाय को स्नेहपूर्वक आदेश दिया मतवाला के अग्र लेख प्रूफ और घटती बढ़तीआदि की जिम्मेदारी आपकी होगी। मतवाला के पहले अंक का अग्रलेख "आत्म परिचय " शिवपूजन सहाय ने लिखा जिसमें मतवाला के उद्देश्य का जिक्र है---
"शिव! शिव !नशे की झक में में क्या-क्या बक गया। अच्छा लहर ही तो है। इस लहर में आप न पड़िएगा। सिर्फ मेरी यात्रा का लक्ष्य स्मरण रखिएगा। मैं अपनी यात्रा की रिपोर्ट नियमित रूप से प्रकाशित करता रहूँगा। उसमें सच्ची और स्वाभाविक सूचना रहेगी। उसके द्वारा मैं यथेष्ट रीति से इस देश की आन्तरिक दशा बताऊँगा। लेकिन बतलाने का ढंग निराला होगा। जो मेरी ही तरह स्वतन्त्र 'मत' वाला होगा वहीउस ढंग का समझनेवाला होगा। राष्ट्र, जाति, सम्प्रदाय, भाषा, धर्म, समाज, शासनप्रणाली साहित्य और व्यापार आदि समस्त विषयों का निरीक्षण और संरक्षण ही मेरी योजना का अभिसंधान है। मैं उसे पूरा करने के लिए संकोच, भय, ग्लानि, चिन्ता और पक्षपात का उसी प्रकार त्याग कर दूंगा जिस प्रकार यहाँ के नेता निजी स्वार्थ का त्याग करते हैं। इसी अभिवचन के साथ, अब मैं अपने इष्टदेव का स्मरण करते हुए यात्रा पर आरूढ़ होता हूँ-"

लेकिन मतवाला पर हिन्दू साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने का आरोप लगा और इसके मालिक महादेव प्रसाद सेठ गिरफ्तार भी किये गए पर भवदेव पांडेय ने लिखा है कि मतवाला साम्राज्य विरोधी पत्र था और ब्रिटिश हुकूमत का विरोध करता था इसलिए भी उन्हें इस आरोप में गिरफ्तार किया गया लेकिन कर्मेंदु शिशिर ने यह स्वीकार किया है कि मतवाला के कुछ लेखक थोड़ा संकीर्ण रुझान के थे जिनमें सेठ साहब भी थे।उन्होंने प्रेमचन्द और मतवाला की दृष्टि में फर्क बताया है पर मतवाला ने कई अवसरों पर दोनों कौमों की साम्प्रदायिकता पर निशाना साधा है।हिन्दू साम्प्रदायिकता के विरोध में भी अग्र लेख लिखे गए।शिवपूजन सहाय तो खुद लखनऊ में हिंदुओं की महाआरती के कारण हुए दंगे कीचपेट में आकर लखनऊ से भागे थे और प्रेमचन्द की रंगभूमि की पांडुलिपि खो गयी थी जिसका संपादन उन्होंने किया था।इस नाते वे हिन्दू साम्प्रदायिकता के खुद भक्त भोगी थे।

कर्मेंदु शिशिर ने लिखा है -

'मतवाला' ने पूरे हिंदी जगत् में हड़कंप मचा दिया था। सनातन पाखंडियों पर ऐसी करारी चोट की कि वे 'धर्म-रक्षक' साप्ताहिक निकालकर अपनी सुरक्षा की टाटी खड़ी किये। पारसी थियेटरों के भद्देपन को लेकर खूब रगड़ाई की। इन थियटरों से दर्जनों मुफ्त 'पास' आते मगर यह बात आज के पत्रकारों को नोट करने की है कि किसी सदस्य ने कभी मुफ्त तमाशा नहीं देखा। बराबर 'मतवाला' के पैसों से देखा और छूटकर लिखा। ऐसा 'तहलका' मचा कि वे कार्यालय में आकर 'पनाह' मांगने लगे। इनमें एक थे हरिकृष्ण 'जौहर'! 'हिंदी बंगवासी' में काम किया था और पुराने साहित्यसेवी थे। पेट पोसने के लिए पारसी थियेटर के मुलाजिम हुए थे। वे मुंशीजी से इस बात की चर्चा करते कि 'ललितकंठ गायक' और कोकिल कंठी सुंदरियों के इशारे पर नाटक और गीत कांटे-छांटे जाते हैं।"

मतवाला में बलवंत सिंह के छद्म नाम से भगत सिंह भी लिखते थे तो निराला गजगजसिंह वर्मा के नाम से।इस नाम से उन्होंने सरस्वती की आलोचना की तो महावीर प्रसाद द्विवेदी ने क्रोध में आकर मतवाला के अंकों में भाषा दोष निकालकर संपादित करके उसके अंकों को संपादक के पासभेज दिया था।

मतवाला की नोकझोंक बालकृष्ण शर्मा नवीन की पत्रिकप्रभा से भी थी।उस जमाने मे पहले साल में मतवाला दस हज़ार बिकने लगा था।कोलकत्ता जैसेगैर हिन्दी प्रदेश में इतनां बिकना माने रखता था।तब हंस भी इतना नहीं बिका था।

मतवाला के मुकुट तो निराला ही थे पर उसमें लिखनेवालों में राधामोहन गोकुल जी जैसे वामपंथी भी थे जिन्होने मतवाला में धारावाहिक 'रूस की अतिक्रांति' 'प्रत्यक्षदर्शी' के छद्मनाम से लिखा। नाथूराम शर्मा 'शंकर, गयाप्रसाद शुक्ल 'स्नेही', मैथिलीशरण गुप्त, लाला भगवानदीन, गोपालशरण सिंह, अन्नपूर्णानंद, परिपूर्णानंद, जी. पी. श्रीवास्तव, अनूप शर्मा, हरिजीध, गांगेय नरोत्तम शास्त्री, नरदेव शास्त्री, माधव शुक्ल, बदरीनाथ भट्ट, रामनाथ 'सुमन' बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', लक्ष्मणनारायण गर्दे, श्रीधर पाठक, प्रफुल्लचंद ओज्ञा 'मुक्त'-'मतवाला' के लेखकों की संख्या बहुत अधिक थी। स्तंभ, सदस्य लिखते ही शेष का अभाव न था। 'मतवाला' का मायाजाल काफी फैला हुआ था और उसकी धाक लगातार जमती ही गई।"

मतवाला के करीब 100 से अधिक अग्रलेखों का संचयन कर्मेंदु शिशिर ने किया। मंगलमूर्ति ने शिवपूजन सहाय समग्र में सहाय जी के 37 अग्रलेखों को शामिल किया जो मतवाला में छपे। दोनों के अपने अपने दावे इन लेखों को लेकर हैं क्योंकि अग्रलेखों के नीचे नाम होते नहीं थे। शिवपूजन जी ने यह भी लिखा है कि उन्होंने कुछ मतवाले की बहक और मतवाले की चक्की भी लिखी थी। जो भी हो मतवाला हिंदी का एक अनोखा पत्र था जो आज भी हिंदी साहित्य में याद किया जाता है।100 साल बाद कौन किसी पत्रिका को याद करता है।

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