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भारतीय रंगमंच-सिनेमा के प्रतीक पुरुष: पृथ्वीराज कपूर

नलिन चौहान आजादी के बाद देश के विभिन्न संप्रदायों और भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलने वाले व्यक्तियों को एक...
भारतीय रंगमंच-सिनेमा के प्रतीक पुरुष: पृथ्वीराज कपूर

नलिन चौहान 

आजादी के बाद देश के विभिन्न संप्रदायों और भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलने वाले व्यक्तियों को एक साथ लाने और एक समान मंच साझा करने तथा आपस में उचित व्यवहार सीखने के अवसर प्रदान करने के लिहाज से एक राष्ट्रीय थिएटर के गठन का सुझाव दिया गया था।

15 जुलाई 1952 को राज्यसभा में हिंदी रंगमंच और सिनेमा के पुरोधा पृथ्वीराज कपूर ने यह विचार-सुझाव संसद में रखा था। यह बात गौर करने लायक है कि इसके सात वर्षों (1959) बाद ही संगीत नाटक अकादमी ने एक इकाई के रूप में देश के पहले नाट्य प्रशिक्षण संस्‍थान राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना हुई।

हिंदी फिल्मों में सम्मोहित अभिनय और रंगमंच को नई दिशा देने वाले पृथ्वीराज का जन्म 3 नवम्बर 1906 को समुंद्री, फैसलाबाद, पंजाब (अब पाकिस्तान में) और मृत्यु 29 मई 1972 (उम्र 65) को मुंबई में हुई। उन्हें मरणोपरांत सिनेमा जगत के सबसे बड़े सम्मान दादा साहब फाल्के (वर्ष 1971) से भी सम्मानित किया गया।


रंगमंच का कलाकार होने और जीवन में फर्श से अर्श तक पहुंचने के कारण वे रंगमंच की चुनौतियों और कलाकारों को रोजमर्रा के जीवन में होने समस्याओं से अच्छी तरह से परिचित थे। यही कारण था कि उन्होंने राज्यसभा के सदस्य के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान मंचीय कलाकारों के कामकाज की स्थिति को सुधारने के लिए कड़ी मेहनत की। इसी का नतीजा था कि वे मंचीय कलाकारों के लिए रेल किराए में 75 प्रतिशत की रियायत प्राप्त करने में सफल रहे। उनकी पोती और पृथ्वी थिएटर को दोबारा संभालने वाली संजना कपूर के अनुसार, “मेरे दादा के कारण ही आज हम 25 प्रतिशत रेल किराए में पूरे देश भर में यात्रा करने में सक्षम हैं अन्यथा हम अपना अस्तित्व ही नहीं बचा पाते।“

यह एक कम जानी बात है कि थिएटर की मशहूर अदाकारा जोहरा सहगल ने पृथ्वी थिएटर में बतौर एक नृतकी के रूप में अपनी पारी की शुरूआत की थी। जोहरा के शब्दों में, “उन्होंने मुझे विनम्रता का पाठ पढ़ाया और मेरे व्यक्तित्व में से घमंड को पूरी तरह निकाल बाहर किया। मैंने हमारी नाट्य मंडलियों के साथ रेल के तीसरे दर्जे में पूरे भारत का दौरा करने के कारण ऐसी चीजें सीखीं जिन्हें करना पहले मैं अपनी हेठी समझती थी।”

 

पृथ्वीराज स्वाभिमानी इतने थे कि वर्ष 1954 में संगीत नाटक अकादमी के 'रत्न सदस्यता सम्मान' से सम्मानित होने के बावजूद उन्होंने पृथ्वी थिएटर के लिए किसी भी तरह की सरकारी सहायता लेने से इंकार कर दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें कई सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडलों में विदेश भेजा। वे और बलराज साहनी वर्ष 1956 में चीन की यात्रा पर गए एक भारतीय सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल में शामिल थे।

 

नेहरू के समय में ही पृथ्वीराज को पहली बार राज्यसभा के लिए नामित किया। वे दो बार, वर्ष 1952 में दो साल के लिए और फिर वर्ष 1954 में पूर्ण काल के लिए राज्यसभा के सदस्य रहे। “पुस्तक थिएटर के सरताज पृथ्वीराज’’ में योगराज लिखते है कि जब पृथ्वीराज राज्यसभा में अपने नामांकन को लेकर दो-मन थे। बकौल पृथ्वीराज, “थिएटर की भलाई और राज्यसभा की व्यस्तताएं, पर क्या किया जाए! मुझे इन परिस्थितियों का मुकाबला तो करना होगा। थिएटर को भी जिंदा रखना है और सरकार के इस सम्मान को भी निभाना है। दूसरा कोई चारा नहीं है चलो थिएटर की सलामती के लिए और बेहतर लड़ाई लड़नी होगी।’’

उनके साथ कांस्टीट्यूशन हाउस में रहे वी एन कक्कड़ अपने संस्मरणों वाली पुस्तक “ओवर ए कप ऑफ काफी’’ में बताते हैं, पृथ्वीराज ने उन्हें एक बार कहा, “मुझे वास्तव में नहीं पता कि मुझे राज्यसभा में क्या करना चाहिए। मेरे लिए मुगल-ए-आजम फिल्म में अभिनय करना राज्यसभा में एक सांसद की भूमिका निभाने से आसान था। भगवान जाने पंडित जी ने मुझमें क्या देखा। लेकिन जब भी मैं दिल्ली में रहूंगा और राज्यसभा का सत्र होगा तो मैं निश्चय ही उसमें भाग लूंगा।’’ 60 के दशक के आरंभ में कांस्टीट्यूशन हाउस कस्तूरबा गांधी मार्ग पर होता था, जहां पृथ्वीराज शुरू में बतौर राज्यसभा सांसद रहें। वैसे बाद में वे अपने कार्यकाल के अधिकतर समय में इंडिया गेट के पास प्रिंसेस पार्क में रहे।

पृथ्वीराज ने वर्ष 1944 में तत्कालीन फारसी और परंपरागत थिएटरों से अलग आधुनिक शहरी थिएटर की अवधारणा को मूर्त रूप देते हुए पृथ्वी थिएटर शुरूआत की। पृथ्वी थिएटर ने सोलह वर्ष में 2662 नाट्य प्रस्तुतियां दी, उसके बहुचर्चित नाटकों में दीवार, पठान, 1947, गद्दार, 1948 और पैसा थे। इतना ही नहीं, पृथ्वीराज ने देश के अनेक शहरों में रवींद्र नाट्य मंदिरों की भी स्थापना की।

‘आई गो साउथ विथ पृथ्वीराज एंड हिज पृथ्वी थिएटर्स’ पुस्तक में प्रोफेसर जय दयाल लिखते हैं, ‘पृथ्वी ने हर तरह के उतार-चढ़ाव का सामना करते हुए निर्भीकता के साथ ‘दीवार’ का मंचन किया। एक लम्बे अंतराल के बाद इस नाटक को आला स्तर के नेताओं से एक महत्वपूर्ण प्रस्तुति के रूप में मान्यता मिली। तत्कालीन उपप्रधानमंत्री और सूचना एवं प्रसारण मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नाटक को अंत तक बैठकर देखा जबकि वह केवल मात्र एक सरकारी उपस्थिति की खानापूर्ति के लिए आए थे। दीवार ने उन्हें गुदगुदाने के साथ उनकी आँखे भी नम कर दी और इसका नतीजा पृथ्वी थिएटर को मनोरंजन कर से मिली छूट के रूप में सामने आया।

 

“थिएटर के सरताज पृथ्वीराज” के अनुसार, “इसी बीच पृथ्वीराज कपूर अपना थिएटर लेकर दिल्ली आए। उन दिनों उनके तीन नाटक बहुत चर्चित थे- “शकुन्तला”, “दीवार” और “पठान”। ये तीनों नाटक अपनी-अपनी जगह लोगों की खूब वाह-वाही ले रहे थे। संस्कृत भाषा के महाकवि कालिदास का अभिज्ञान शाकुन्तलम् उर्दू में बिलकुल पारसी थिएटर की शैली में नाटकीय रूपांतर था। दूसरा नाटक “दीवार” था जो राष्ट्रीय एकता पर देश के विभाजन के विरोध में था। इसी तरह पृथ्वी थिएटर के तीसरे नाटक “पठान” को लिखने में भी पृथ्वीराज का बड़ा हाथ था। उस समय जब दिल्ली में पृथ्वी थिएटर के नाटक रीगल सिनेमा हाल में हो रहे थे। सारे शो हाउसफुल थे। योगराज के शब्दों में, जहां तक मुझे याद है, दो या तीन सप्ताह पृथ्वी थिएटर अपने इन तीनों नाटकों को बार-बार खेलते रहे और लोग इसी तरह भीड़ की शक्ल में आते रहे।”

पृथ्वीराज अपनी थिएटर कंपनी, जिसने लगातार 16 साल 150 स्थायी व्यक्तियों के साथ नाटक किए, को अपना नशा कहते थे। उनकी ख्याति मुंबई के सबसे पेशेवर अभिनेता प्रबंधक के रूप में थी। इतना ही नहीं, पृथ्वीराज आल इंडिया रेलवे यूनियन के अध्यक्ष रहे और विश्व शांति कमेटी के भारतीय चेयरमैन भी।

 

थिएटर में रूझान के कारण कानून की अपनी पढ़ाई को बीच में ही छोड़कर पेशावर से मुंबई अपनी किस्मत आजमाने पहुंचे और पृथ्वीराज इंपीरियल फिल्म कंपनी से जुड़े। वर्ष 1931 में प्रदर्शित पहली भारतीय बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ में पृथ्वीराज ने बतौर सहायक अभिनेता काम करते हुए चौबीस वर्ष की आयु में ही अलग-अलग आठ दाढि़यां लगाकर जवानी से बुढ़ापे तक की भूमिका निभाई। फिर राज रानी (1933), सीता (1934), मंजिल (1936), प्रेसिडेंट, विद्यापति (1937), पागल (1940) के बाद पृथ्वीराज फिल्म सिकंदर (1941) की सफलता के बाद कामयाबी के शिखर पर पहुंच गए। उनकी अंतिम फिल्मों में राज कपूर की ‘आवारा’ (1951), ‘कल आज और कल’, जिसमें कपूर परिवार की तीन पीढियों ने अभिनय किया था और ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘आसमान महल’ थी। उन्होंने कुल नौ मूक और 43 बोलती फिल्मों में काम किया।

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