‘अंत महज एक मुहावरा है’ लिखने वाले कवि केदारनाथ सिंह (86) अब इस दुनिया में नहीं रहे। आधुनिक कविता के सशक्त हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह का सोमवार रात एम्स में निधन हो गया। सांस की तकलीफ के कारण उन्हें 13 मार्च को एम्स के पल्मोनरी मेडिसिन विभाग में भर्ती किया गया था।
उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गांव में 1934 को जन्मे सिंह को 2013 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
‘ब्रह्मांड को एक छोटी-सी सांस की डिबिया में भर लो’ कहने का साहस रखने वाले सिंह ने बीएचयू से 1956 में हिंदी में एमए और 1964 में पीएचडी किया। वे ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले हिंदी के 10वें लेखक हैं। इसके अलावा उन्हें मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशान पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, दिनकर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
पढ़िए, केदारनाथ सिंह की तीन कविताएं...
अंत महज एक मुहावरा है
अंत में मित्रों,
इतना ही कहूंगा
कि अंत महज एक मुहावरा है
जिसे शब्द हमेशा
अपने विस्फोट से उड़ा देते हैं
और बचा रहता है हर बार
वही एक कच्चा-सा
आदिम मिट्टी जैसा ताजा आरंभ
जहां से हर चीज
फिर से शुरू हो सकती है
बनारस
इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है
जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घनटे
शाम धीरे-धीरे होती है
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से
कभी सई-सांझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है
जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्थंभ के
जो नहीं है उसे थामें है
राख और रोशनी के ऊंचे ऊंचे स्थंभ
आग के स्थंभ
और पानी के स्थंभ
धुऍं के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्थंभ
किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टांग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टांग से
बिलकुल बेखबर!
जूते
सभा उठ गई
रह गए जूते
सूने हाल में दो चकित उदास
धूल भरे जूते
मुंहबाए जूते जिनका वारिस
कोई नहीं था
चौकीदार आया
उसने देखा जूतों को
फिर वह देर तक खड़ा रहा
मुंहबाए जूतों के सामने
सोचता रहा -
कितना अजीब है
कि वक्ता चले गए
और सारी बहस के अंत में
रह गए जूते
उस सूने हाल में
जहां कहने को अब कुछ नहीं था
कितना कुछ कितना कुछ
कह गए जूते