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जन्मदिन विशेष : शचींद्रनाथ सान्याल - भारतमाता के सच्चे सपूत, सैंकड़ों नायकों में सर्वोपरि महान क्रांतिकारी

शचींद्रनाथ सान्याल का नाम भारत की स्वतंत्रता हेतु संघर्ष करने और राष्ट्रीय क्रांतिकारी आंदोलनों में...
जन्मदिन विशेष : शचींद्रनाथ सान्याल - भारतमाता के सच्चे सपूत, सैंकड़ों नायकों में सर्वोपरि महान क्रांतिकारी

शचींद्रनाथ सान्याल का नाम भारत की स्वतंत्रता हेतु संघर्ष करने और राष्ट्रीय क्रांतिकारी आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी करने वालों में प्रमुख है। शचींद्रनाथ क्रांतिकारी आंदोलन के पीछे की महत्वपूर्ण प्रेरक शक्ति थे। वे ‘गदर पार्टी’ और ‘अनुशीलन संगठन’ के महान कार्यकर्ता और संगठनकर्ता थे। उन्होंने देश के युवा समर्थकों के साथ चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों का मार्गदर्शन करके नई पीढ़ी का बखूबी प्रतिनिधित्व किया। उनका विवाह प्रतिभा सान्याल से हुआ था जो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध उनके कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहीं। शचींद्रनाथ ने दिल्ली अधिवेशन में ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ नामक पार्टी गठित करके राष्ट्र बंधुओं के नाम अपील जारी की थी। इसमें भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य और संपूर्ण एशिया को महासंघ बनाने की परिकल्पना प्रस्तुत की थी। चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह आदि ने पार्टी का नाम रूपांतरित करके ‘हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक समाजवादी संगठन’ पार्टी विकसित की। उनका योगदान बेशक अनदेखा कर दिया गया पर आज भी वे सैंकड़ों नायकों में सर्वोपरि हैं जिन्होंने निःस्वार्थ देशभक्ति को परम लक्ष्य मानकर जीवन का बलिदान दिया। 

 

 

 

शचींद्रनाथ बंगाली ब्राह्मण समुदाय से होने के कारण हिंदू धर्म में अटूट विश्वास रखते थे। उनका जन्म ३ अप्रैल, १८९३ को वाराणसी में हुआ था। इनके पिता हरिनाथ सान्याल तथा माता वासिनी देवी थीं। शचींद्रनाथ के भाई रवींद्रनाथ, जितेंद्रनाथ और भूपेंद्रनाथ थे। पिता ने सभी पुत्रों को बंगाली क्रांतिकारी संस्था ‘अनुशीलन समिति’ के कार्यों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। परिणामस्वरूप बड़े भाई रवींद्रनाथ ‘बनारस षड़यंत्र केस’ में नज़रबन्द रहे। छोटे भाई भूपेंद्रनाथ को ‘काकोरी कांड’ में पाँच वर्ष की सजा हुई। तीसरे भाई जितेंद्रनाथ १९२९ के ‘लाहौर षड़यंत्र केस’ में भगत सिंह आदि के साथ अभियुक्त बनाए गए।

 

 

 

१९०५ में ‘बंगाल विभाजन’ के बाद आरंभ हुई ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी लहर से नवयुवक राष्ट्रप्रेम की भावना से प्रेरित हुए। शचींद्रनाथ और उनका परिवार भी राष्ट्रप्रेम की भावना से अछूता नहीं था। फलस्वरूप चारों ‘सान्याल बंधुओं’ ने साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवादी धारा के साथ प्रारंभ से जुड़कर राष्ट्रवादी आंदोलनों में भाग लिया। १९०८ में पिता की मृत्यु के समय शचींद्रनाथ की आयु पंद्रह वर्ष थी। पिता के निधन से अविचलित, देश की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध शचींद्रनाथ ने वैचारिक एवं व्यवहारिक जीवन में तीनों भाइयों को संघर्ष में जोड़ा। ‘काले पानी’ की सज़ा के दौरान समकालीन क्रांतिकारियों और स्वयं की गतिविधियों पर १९२२ में लिखित पुस्तक ‘बंदी जीवन’ की भूमिका में शचींद्रनाथ ने उल्लेख किया है कि ‘जब मैं बालक था, तभी संकल्प कर लिया था कि भारतवर्ष को स्वाधीन कराना है जिसके लिए मुझे सामरिक जीवन व्यतीत करना है।’ 

 

 

 

काशी में १९०८ में पंद्रह वर्षीय शचींद्रनाथ ने ‘अनुशीलन समिति’ की स्थापना की जो बंगाली क्रांतिकारियों के लिए समिति की शाखा के रूप में स्थापित की गई थी। समिति का प्रारंभिक स्वरूप व्यायामशाला का था और बंगाल की समिति से इसका कोई संबंध नहीं था। बंगाल की ‘अनुशीलन समिति’ अवैध घोषित होने पर संस्था का नाम ‘यंग मैंस एसोसिएशन’ रखा और वो व्यायामशाला की बजाए ब्रिटिश विरोधी क्रांतिकारी संगठन बन गया। शचींद्रनाथ द्वारा स्थापित ये नवयुवकों का राष्ट्रवादी संगठन था। ‘बंगाल विभाजन’ के विरोध के साथ उस समय ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी भावनाएं तेजी से उमड़ रही थीं। लोकमान्य तिलक द्वारा दिया नारा, ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे’, जन-जन का नारा बन गया था। देश के पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक स्वाधीनता और स्वराज की अभूतपूर्व बयार बह रही थी।

 

 

 

१९११ में शचींद्रनाथ द्वारा पॉण्डीचेरी में अरविन्द घोष से मुलाकात का प्रयास विफल रहा। १९१२ में क्रांतिकारियों से संपर्क साधने हेतु वे बंगाल गए। शचींद्रनाथ ढाका में माखन सेन से मिले पर उनकी धर्म आधारित राजनीतिक चर्चाएं उन्हें पसंद नहीं आईं। १९१३ में वे बंगाल की ‘अनुशीलन समिति’ के प्रमुख नेताओं शशांक मोहन, शिरीष और प्रतुल गांगुली से मिले। इन सबने शचींद्रनाथ का परिचय चन्द्रनगर स्थित प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से कराया। शचींद्रनाथ की सरलता, तत्परता और असाधारण क्षमता देखकर रासबिहारी ने उन्हें ‘लट्टू’ उपनाम दिया। शचींद्रनाथ की क्रियाशीलता और हृदय में अंग्रेज़ों के प्रति विद्रोही भावनाओं के कारण उन्हें साथियों द्वारा ‘बारूद से भरा अनार’ संबोधन मिला था। 

 

 

 

रासबिहारी और शचींद्रनाथ १९१४ के नवंबर में बम परीक्षण के दौरान घायल हो गए परन्तु ठीक होते ही पुन: क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न हो गए। श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा राजस्थान में बनाए राष्ट्रवादी संगठन से जुड़कर इन्होंने राजस्थान में संगठन का विस्तार किया। कृष्ण वर्मा लंदन में रहकर प्रवासी राष्ट्रवादी नेतृत्व में संलग्न थे। राजस्थानी क्रांतिकारियों में अर्जुन लाल सेठी, बाल मुकुंद राव, गोपाल सिंह, केसरी सिंह बारहठ, जोरावर सिंह बारहठ, प्रताप सिंह, छोटे लाल तथा मोतीचंद्र प्रमुख थे। शचींद्रनाथ ने इनके साथ राजस्थान सहित दिल्ली में संगठन का विस्तार किया। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध देशव्यापी सैन्य बगावत करने के लिए दूसरा ‘स्वतंत्रता संग्राम’ आवश्यक था। इसीलिए क्रांतिकारी संगठनों का विस्तार करना क्रांतिकारियों का प्रमुख उद्देश्य था। १८५७ के ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ के बाद दूसरे संग्राम की विधिवत तैयारियां हो रही थीं। अमेरिका व कनाडा के प्रवासी भारतीय ये उद्देश्य ‘गदर पार्टी’ के रूप में आगे बढ़ा रहे थे। बंगाल से पंजाब तक के क्रांतिकारी संगठनों पर इसका उत्तरदायित्व था। 

 

 

 

सुभाष चंद्र बोस के जापान जाने के बाद, रासबिहारी बोस स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख संयोजक और शचींद्रनाथ उनके करीबी थे। शचींद्रनाथ क्रांतिकारी आंदोलन के सर्वोच्च पदस्थ नेता माने जाते थे। गदर पार्टी की योजना के अंतर्गत देश भर में ब्रिटिश-विरोधी गतिविधियां शुरू करने के लिए, भारत में बड़े पैमाने पर हथियारों और गोला-बारूद की तस्करी करना शामिल था। इस योजना का हिस्सा होने के कारण शचींद्रनाथ ने सैन्य विद्रोह और स्वतंत्रता संग्राम आरंभ करने के लिए २१ फरवरी, १९१५ की तारीख़ पक्की करके तैयारी की थी। लेकिन बर्तानिया हुकूमत द्वारा पाले गए लोभी, भेदी गद्दारों के कारण अंग्रेज़ों को योजना की भनक लग गई और योजना विफल हो गई। ब्रिटिश कार्रवाई से बचने और संग्राम जारी रखने के लिए शचींद्रनाथ भूमिगत हो गए मगर योजना में शामिल होने के कारण उनको उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई। ब्रिटिश सरकार ने क्रांतिकारियों की भारी संख्या में गिरफ्तारियां करके आंदोलन को कुचल दिया। २६ जून, १९१५ को शचींद्रनाथ भी कैद कर लिए गए।

 

 

 

शचींद्रनाथ को सबसे भयानक जेलों में एक, अंडमान की सेलुलर जेल में दो बार कैद होने का अनूठा गौरव प्राप्त हुआ। १९१६ की फरवरी में काले पानी की सज़ा होने पर उनकी समस्त संपत्ति जब्त करके उन्हें आजन्म कारावास हुआ। उनके छोटे भाई रवींद्रनाथ और जितेंद्रनाथ भी गिरफ्तार हुए। रवींद्रनाथ दो वर्ष की सज़ा के उपरांत घर में नज़रबंद रखे गए। जितेंद्रनाथ का आरोप सिद्ध ना होने से उन्होंने चन्द्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह के साथ काम किया।

 

 

 

शचींद्रनाथ नागपुर जाकर वीर सावरकर के भाई डॉक्टर नारायण सावरकर से मिले और सावरकर व अन्य क़ैदियों को छुड़ाने के प्रयास किए। किंतु कांग्रेसी नेताओं की उदासीनता के चलते उनके प्रयास विफल हो गए। उन्होंने कांग्रेसी नेताओं से अंडमान में क़ैदियों के प्रति होने वाले अमानवीय व्यवहार की भी चर्चा की थी। शचींद्रनाथ और महात्मा गांधी के बीच हिंसा और अहिंसा के मुद्दे पर हुई प्रसिद्ध तार्किक बहस ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित हुई है। शचींद्रनाथ ने गांधी के क्रमिकवादी दृष्टिकोण का पुरजोर विरोध किया था और गांधी ने प्रतिवाद करते हुए कहा था कि अहिंसा ही आगे बढ़ने का विवेकपूर्ण तरीका है।   

 

 

 

शचींद्रनाथ ने पुनः तितर-बितर हुए संगठनों को इकठ्ठा करने का बीड़ा उठाया। जदू गोपाल मुखर्जी, अरुणचंद्र गुहा, विपिनचंद्र गांगुली, मनोरंजन गुप्त व नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य के साथ संगठन का कार्य फिर आगे बढ़ा। तभी घर की दयनीय आर्थिक स्थिति से विवश शचींद्रनाथ, वर्धमान जिले के गाँव में ईंट भट्टे पर काम करने लगे पर काम नहीं चला। तत्पश्चात रेल विभाग में नौकरी की पर उसे भी त्यागकर जमशेदपुर में लेबर यूनियन का काम संभाला। क्रांतिकारी संगठन की गतिविधियां चलाने के अभ्यस्त शचींद्रनाथ स्थिरचित्त होकर कहीं टिक नहीं सके। उन्होंने क्रांतिकारी संगठनों के पुनर्निर्माण के लिए उत्तर भारत का रुख किया और क्रांतिकारियों और विश्वविद्यालयीन छात्रों से संपर्क साधा। पर ये देखकर वे अत्यंत निराश हुए कि नई पीढ़ी की राष्ट्रव्यापी आंदोलनों में विशेष दिलचस्पी ना होकर हास-परिहास व खेलों में अधिक रूचि थी। शचींद्रनाथ ने १९२३ तक पंजाब व संयुक्त प्रांत में पच्चीस क्रांति केंद्रों की स्थापना की पर कैद होने की आशंका के कारण वे पुन: कलकत्ता चले गए।

 

 

 

शचींद्रनाथ ने स्वतंत्रता के लिए बेहद अनिवार्य क्रांतिकारी संघर्ष हेतु संपूर्ण राष्ट्र में अत्यंत आवश्यक विशाल संगठन की महत्ता साबित करने के लिए ‘रिवॉल्युशनरी’ नामक पर्चा लिखा। ये पर्चे एक दिन में ही रंगून से पेशावर तक बांटे गए थे। पर्चे लिखने और वितरित करने के आरोप में उन्हें १९२५ की फरवरी में फिर दो वर्ष की सजा हुई जिसके बाद वे रिहा हुए। पर ‘काकोरी कांड’ में उन्हें बंदी बनाकर दोबारा काले पानी की सजा के लिए भेजा गया। १९३७-१९३८ में कांग्रेसी मंत्रिमंडल द्वारा राजनैतिक कैदियों को रिहाई दी गई। शचींद्रनाथ भी रिहा हुए लेकिन घर में नज़रबंद कर दिए गए। दुर्भाग्य से निरंतर भाग-दौड़ और चिंताओं से जर्जर हुई देह को दूसरी बार कारावास के दौरान तपेदिक (टीबी) हो गया जो घातक साबित हुआ। जीवन के अंतिम दिनों में खराब स्वास्थ्य के कारण उन्हें गोरखपुर जेल में स्थानांतरित किया गया। ७ फरवरी, १९४२ को गोरखपुर में भारतमाता के सच्चे सपूत, महान क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल स्वतंत्रता की बलिवेदी पर प्राण निछावर करके चिरनिद्रा में लीन हो गए।

 

 

 

 

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