देवदासी नृत्य के बारे में अभी बहुत कम कहा-सुना गया है। देवदासी शब्द आते ही मंदिरों में भगवान के नाम पर समर्पित की गई महिलाओं की छवि ही उभरती है। ये महिलाएं ही दक्षिण भारत के शास्त्रीय नृत्य की आदि जनक रही हैं और वहां की तमाम विधाओं पर इनके नृत्य की गहरी छाप रही है। ये बातें आज भी लोगों की जानकारी में नहीं है। देवदासियां मंदिरों-राजा के दरबारों, सामंतों के यहां मनोरंजन करने, नाज-गाने का काम करती थीं। तेलगू भाषा बोलने वाले इलाकों में इन्हें कालावंतुलु या भोगमवारू कहा जाता है। देवदासी प्रथा के साथ जुड़े देह-व्यापार के दंश की वजह से देवदासियों की सामाजिक स्थिति में क्रमशः गिरावट आती गई। जब तक देवदासियों को मंदिर या राजा या सामंतों का वरदहस्त प्राप्त था, उनकी कला का लगातार विकास हुआ। गोदावरी किनारे की देवदासियां तंजोर बंधुओं की कंपोजीशंन पर अपनी प्रस्तुतियां देती हैं और वे अपने नृत्य को भरतनाट्यम कहती हैं। नृत्य-संगीत से देवदासियों का नाभि-नाल का रिश्ता रहा और सामंती व्यवस्था के पतन के साथ उनकी स्थिति बद से बदतर होती गई। देवदासी प्रथा की समाप्ति के लिए चले बेहद महत्वपूर्ण आंदोलनों ने नारकीय जीवन में ढकेली गईं देवदासियों को बाहर निकालने का तो काम किया, लेकिन न तो उनका पुनर्वास पूरा हुआ और न ही उनका कला को जीवन रखने का कोई आधार मिला। ऐसे में देवदासी नृत्य का कोई वारिस नहीं रहा, हालांकि दक्षिण भारतीय शास्त्रीय नृत्यों पर उनकी गहरी छाप है। चूंकि देवदासी के साथ देह-व्यापार का दंश जुड़ गया था इसलिए उनका कला पक्ष पूरी तरह से गुमनामी में चला गया। तमाम मशहूर नृत्यांगनाएं देवदासी नृत्य परंपरा से खुद को जेड़ने के लिए तैयार नहीं हुईं। 90 के दशक में इस नृत्य पर गंभीर काम शुरू हुआ।
मशहूर नृत्यांगना स्वप्न सुंदरी ने देवदासी नृत्य परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए इसे शास्त्रीय ढांचे में डाला। इसे नाम दिया विलासीनीनाट्यम। इसे भी मंच मिला और कई युवा मशहूर नृत्यांगनाएं इस ओर उन्मुख हुईं, जिनमें पूर्वाधनश्री एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। इस नृत्य विधा में शास्त्रीय पुट अधिक है। एक हिस्से का मानना है कि इस विधा में देवदासी नृत्य अपने मूल रूप में प्रतिबिंबित नहीं होता है। इसलिए उन्होंने जिस तरह से देवदासी नृत्य किया जाता था, जिन पदम (गानों) पर किया जाता था, जो अभिनय प्रधानता रहती थी, इसी के साथ इसे फिर से करना शुरू हुआ। इस प्रयास को फरवरी में हुए खजुराहो नृत्य महोत्सव में एक बड़ी उपलब्धि हासिल हुई, जब देवदासी नृत्य को शास्त्रीय नृत्य के बरक्स शामिल किया गया। देवदासी नृत्य, और उसके बोलों में जिस तरह की स्त्री संवेदनशीलता तथा स्त्री यौनिकता प्रतिध्वनित होती है, वह अलग किस्म के नारीवादी विमर्श हिस्सा है। देवदासी नृत्य को गरिमा और उचित स्थान दिलाने की कोशिशों को जितना बल मिलेगा, शास्त्रीय नृत्य की जमीन भी उतनी ही पुख्ता होगी।
वह एक प्रतिष्ठित कुचिपुड़ी नृत्यांगना हैं। देश-विदेश में ख्याति प्राप्त हैं। हैदराबाद विश्वविद्यालय में नृत्य पढ़ाती हैं। उन्हें योग में महारथ हासिल है। उनकी डॉक्टरेट की योग और शास्त्रीय नृत्य के बीच अंतर्संबंधों पर है। उन्होंने एक नई पहचान बनाई है। वह देवदासी परंपरा से जुड़ी हुई हैं। इस परंपरा से उनका खून का रिश्ता है। अब वह देवदासी नृत्य को अलग मुकाम दिलाने के लिए संघर्षरत कलाकार है। यह है यशोदा राव ठाकुर, जिन्होंने हाल में खजुराहो नृत्य महोत्सव में देवदासी नृत्य प्रस्तुत करके एक नई चुनौती स्वीकार की। आउटलुक की ब्यूरो प्रमुख भाषा सिंह ने यशोदा राव ठाकुर से विस्तृत बातचीत की, पेश हैं उसके अंशः
कुचिपुड़ी नृत्य में सिद्धस्त होने के बाद आने देवदासी नृत्य की दिशा में कदम क्यों बढ़ाया?
अपनी आत्मा की संतुष्टि के लिए। खजुराहो में देवदासी नृत्य पेश करना मेरे लिए एक बड़ी उपलब्धि रही है। देवदासियों का नृत्य-संगीत से नाभि-नाल का रिश्ता रहा है। उनके नृत्य को सही जगह दिलाना, सम्मान दिलाना पूरे नृत्य समाज का दायित्व है। यह एक नई किस्म की यात्रा है, जिसमें मैं दरअशल खुद को खोज रही हूं।
देवदासी नृत्य की क्या खासियत है और यह कैसे शास्त्रीय नृत्यों से अलग है?
देवदासी नृत्व बेहद खूबसूरत भावों का नाच है। इसमें अभिनय का प्रधानता रहती है। स्त्री उन्मुक्त होकर खुद को व्यक्त करती है। जितनी ठिठोली राजा, सामंत या खुद भगवान से देवदासी नृत्य करते हुए करती है, उतनी कहीं और नहीं कर सकती। नृत्य में गति है, लेकिन मूवमेंट ज्यादा नहीं है। इशकी वजह यह कि देवदासी एक सीमित दर्शक समहू के सामने प्रस्तुतियां किया करती थी। उन्हें घूमने या चक्कर लेने के लिए अधिक जगह नहीं मिलती थी।
देवदासियों की कला क्यों गुमनामी में रही?
अभी भी है। वजह कि देवदासियों के साथ दंश-अपमान जुड़ा है। इसलिए उन्हें छुपकर रहना पड़ा। अपनी कला को मारना पड़ा। आज भी उनके घरवाले इस बात के लिए तैयार नहीं होते हैं कि वे सामने आएं और अपनी कला के बारे में बताए। जबकि उनके पास जबर्दस्त धरोहर है। उनसे सीखकर शास्त्रीय नृत्य बहुत उन्नत हो सकता है, नया रंग मिल सकता है। इसके साथ ही देवदासी नृत्य को मंच मिलना जरूरी है। ताकि लोगों को पता चले कि वह क्या है, कैसे किया जाता है, उसकी भावभंगिमाएं क्या है।
देवदासी नृत्य के पदम (गाने) बहुत बोल्ड है। आप इनके बारे में कुछ बताएं?
पदम अलग-अलग मिजाज के हैं। अलग-अलग उम्र और अवसरों के हिसाब से लिखे गए। मंदिर में नृत्य के अलग, दरबार के अलग, सामंत के यहां के अलग। इन पदमों में स्त्री अपने पूर्ण, स्वतंत्र रूप में दिखाई देती है। ऐसा आजकल नहीं सुनाई दिखाई देता। जैसे एक बेहद श्रंगारिक पदम है, जिसमें नायिका अपने प्रेमी की टांग खींचते हुए कहती है कि अरे तुम एक ही बार रति में तुम इतना थक गए, पसीने-पसीने हो गए (ओकासारिके इलागइते ओ हो ओ इदेटिरतिरा)। एक और है, जो मुझे बहुत प्रिय है, जिसमें नायिका कृष्ण से कहती है कि अरे मेरे कृष्ण तुम कहां थे, तुमने मुझे इतना तड़पाया, कितने महीनों बाद मिले हो (नीनू चूडागलिशेनू)। एक दूसरा पदम है जिसमें नायिका दरवाजे पर आए ग्राहक को ठुकराते हुए कहती है कि तुम इस लायक नहीं हो कि मुझसे बात करो। पहले एक मुट्ठी सोने की मुहरें लेकर आओ फिर बात होगी (इलूंरूगिका नीवू)। इसी तरह से एक विधा है मेजुवानी, जिसमें नायिका अपने नायक के शारीरिक सौष्ठव का दिलफरेब चित्रण करते हुए उसे बार-बार सलाम करती है। ऐसे अनगिनत हैं।जब बुजुर्ग देवदासियां गाती हैं तो उनके चेहरे के भाव देखते ही बनते हैं।
आपको इस ओर मुड़ने में किसने मदद की?
मैं आज भी कुचिपुड़ी करती हूं और आगे भी करती रहूंगी। लेकिन देवदासी नृत्य में मैं गले तक डूब गई हूं। इस बारे में सबसे पहले मुझे हैदराबाद के प्रो. नटराज रामाकृष्णा ने बताया और उसके बाद प्रो. देवेश सोनी से बहुत मदद मिली। उनका देवदासियों पर बहुत काम है। उनसे मुझे देवदासियों के सामाजिक-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का ज्ञान हुआ। इसने मेरी दिशा तय की।
आपने खुद को देवदासी परिवार का बताया, बहुत मुश्किल हुई होगी?
हां, घर में लोग खुश नहीं थे। माता-पिता, पति सब के लिए यह अच्छी घोषणा नहीं थी। लेकिन मैं सच कहना चाहती थी। यह मेरे लिए बहुत सम्मान की बात है कि मैं इतनी समृद्ध परंपरा से आती हूं। मुझे लगता है कि जो लोग इस विशाल परंपरा से जुड़े हैं, उन्हें खुलकर सामने आना चाहिए। नाचना-गाना सम्मान का विषय है औऱ रहना चाहिए। मैं इस परंपरा से जुड़ी, देवदासी खानदान से ताल्लुक रखने वाली नई पीढ़ी से लगातार कहती रहती हूं कि वह नृत्य-संगीत से जुड़ी रहे और खुलकर अपने विरासत के बारे में बात करे। देवदास शब्द से जो दंश जुड़ा है, उसे हमें खत्म करना होगा।