विश्वविद्यालय परिसर में जब गायक और शायर हरिओम नेे फ़ैज़ की मशहूर नज्म- हम देखेंगे- को गाया तो हॉल तालियों से गूंज उठा।
हरिओम ने बिल्कुल नए अंदाज में फैज की नज्मों को पेश किया, जिसे दर्शकों ने खूब दाद दी।
फैज़ अहमद फैज़ की 104 वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर 12 फरवरी को जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में जेएनयू छात्रसंघ द्वारा सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया गया, जिसमें फैज की बेहतरीन गजलें गाई गई। कार्यक्रम का आगाज़ फैज़ की प्रसिद्ध नज्म ‘रंग पैराहन’ से हुआ। ‘तुम आए हो न’ को गाते हुए हरिओम ने इस नज्म की एक पंक्ति ‘वो बात जिसका फ़साने में कोई जिक्र न था वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है’ को आज के कवियों, लेखकों की रचनाओं पर लगातार हो रहे हमले और सेंसर के संदर्भ में मौजूं कर दिया। फैज की बहुत कम गाई जाने वाली नज्म –धूप किनारा, शाम ढले, मिलते हैं दोनों वक्त जहां... को हरिओम में अलहदा अंजाद में गाया जिसे दर्शकों ने बहुत सराहा। यह नज्म रोमानियत से लेकर बदलाव की तड़प की नुमाइंदगी करती है और इस पर हरिओम ने अपनी आवाज से जो वितान खींचा, वह लंबे समय तक फैज की शायरी के मुरीदों को याद रहेगा। हरिओम ने ‘आए कुछ आब कुछ शराब आए’, ‘गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम’, ‘गुलों में रंग भरे’ जैसे नज्मों और गज़लों को गाकर फैज़ की शायरी को मौजूदा समय में फिर से जीवंत कर दिया।
फैज की नज्मों साथ ही साथ फैज के कलाम पर वरिष्ठ आलोचक वीर भारत तलवार ने बात रखी। हरिओम का तबले पर शौकत कुरैशी , कीबोर्ड पर अनिश अहमद , वायलिन पर उस्ताद अलीम खान ने साथ दिया। कार्यक्रम का उद्घाटन प्रो वीर भारत तलवार के व्यक्तव्य से हुआ। फैज़ को उन्होंने उम्मीद और जवानी का शायर बताया। प्रो. तलवार ने इस बात पर जोर दिया कि फैज़ उर्दू या पाकिस्तान के शायर या कवि नहीं बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के आम जनता के सपनों प्रतिनिधि कवि थे। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान संस्थान के खचाखच भरे ऑडिटोरियम में सैकड़ों श्रोताओं ने हरिओम की गायिकी का आनंद लिया और तालियों की गड़गड़ाहट से हर शेर पर कलाकारों की हौसलाअफजाई की। ‘