वैसे दीवाली के आरंभिक गीतों में फिल्म 'दीवाली’ (1940) में खेमचंद प्रकाश के द्वारा संगीतबद्घ दो भागों में 'घर-घर दीप जले, घर पर शोभा छाई’ (समूह गान) और 'जले दीप दीवाली आई’ (जिसमें कोल्हापुर में जन्मी और प्रभात तथा फिर रणजीत स्टूडियो के लिए गाने वाली वासंती घोरपड़े का स्वर था) में सामूहिक उल्लास की ही प्रबलता थी। दूसरी तरफ अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन में 'किस्मत’ (1943) के स्वरों के उतार चढ़ाव वाले 'घर-घर में दीवाली है मेरे घर में अंधेरा’ (अमीरबाई) और नौशाद के संगीत निर्देशन में 'रतन’ (1944) के सामूहिक नृत्य के समानांतर चलते 'आई दीवाली दीपक संग नाचे पतंगा’ (जोहराबाई) में दीवाली के लाक्षणिक भाव के बैकड्रॉप में एक उदासी भरे विरह भाव की सृष्टि की गई है। 'किस्मत’ के उपरोक्त गीत के लिए तो कवि प्रदीप ने अलग-अलग भावों के 52 अंतरे लिख डाले थे जिन्हें बड़ी मुश्किल से अनिल विश्वास ने तीन हिस्सों में तीन प्रकार के भावों के लिए शास्त्रीय ढंग से स्थाई, अंतरा, संचारी और आभोग के अनुसार ढालने में सफलता प्राप्त की। वहीं नौशाद ने 'रतन’ के उपरोक्त गीत में भैरवी में रिषभ का शुद्ध उपयोग कर निराली बात ही पैदा कर दी थी। 'खजांची’ (1941) के 'दीवाली फिर आ गई सजनी’ (शमशद, साथी) में संगीतकार गुलाम हैदर ने पंजाबी उल्लसित टप्पे का पृष्ठभूमि में बड़ा आकर्षक प्रयोग किया है। वहीं 'शीश महल’ (1950) के 'आई है दीवाली सखी आई रे’ (शमशाद, गीता, साथी) को वसंत देसाई ने पारंपरिक ढंग से ही स्वरबद्ध किया।
जहां फिल्म 'कंचन’ (1955) के हुस्नलाल भगतराम के कंपोज किए और सुरैया के गाए 'दीवाली की रात पिया घर आने वाले हैं’ में दीवाली की प्रतीकात्मकता मिलन की ओर उन्मुख है, वहीं पृथ्वीराज कपूर की पृथ्वी थियेटर्स के मशहूर नाटक 'पैसा’ को लेकर इसी नाम से बनाई 1957 की फिल्म में पृथ्वी थिएटर्स के ही पुराने संगीतकार राम गांगुली ने गीता दत्त के स्वर में 'दीप जलेंगे दीप दीवाली आई हो’ को माधुर्य और बंगाली मिठास के स्पर्श में बहुत आत्मीय बना डाला है। वह गीत राम गांगुली के ही संगीत निर्देशन में 'महाराणा प्रताप’ (1946) में 'आई दीवाली दीपों वाली गाएं सखियां’ (खुर्शीद, साथी) की पारंपरिक धुन से बहुत बेहतर है। फिल्म 'ताज’ (1956) में हेमंत कुमार के संगीत निर्देशन और लता के स्वर में 'जहां में आई दीवाली बड़े चराग चले, हमारे दिल में मगर तेरे गम के दाग जले’ में सितार के अप्रतिम प्रयोग और सुंदर दर्द भरी धुन ने राजेंन्द्र कृष्ण के शब्दों को चार चांद लगा दिए हैं। 'पैगाम’ (1959) का सी रामचंद्र द्वारा स्वरबद्ध और जॉनी वाकर पर फिल्माए 'कैसी दीवाली मनाएं हम लाला, अपना तो बारह महीने दीवाला’ (रफी) यूं दीवाली गीत तो नहीं था पर यहां दीवाली का धन और ऐश्वर्य के प्रतीक के रूप में पैसे की कमी में जूझते आम आदमी की तस्वीर उभारने के लिए बखूबी किया गया है। 'खजांची’ (1958) में मदन मोहन द्वारा संगीतबद्ध 'आई दीवाली आई कैसे उजाले लाई’ (आशा, साथी) और 'घर-घर में दीवाली’ (1955) में रोशन के संगीत निर्देशन में 'दीप जले घर-घर में आई दीवाली’ (लता, शमिंदर, साथी) दीवाली के लीक के ही गीत कहे जा सकते हैं और 'हकीकत’ (1964) के 'आई अब के साल दीवाली मुंह पर अपने खून मले’ (लता) युद्ध की विभीषिका के द्वारा एक स्वाभाविक उल्लसित पर्व को शोकमय बनाने का मदन मोहन द्वारा संगीतबद्ध एक साधारण ही गीत है जो मदन मोहन के 'हकीकत’ के अन्य गीतों की अपेक्षा कमजोर ठहरता है। पर दीवाली के अवसर पर न्यास शर्मा के प्रतीकात्मक शब्दों और जयदेव की लाजवाब धुन के साथ जो गीत बरबस याद आता है वह है 'अंजलि’ (1957) का 'दीपक से दीपक जल गए, जो आज अंधेरे ढल गए’ (आशा, साथी)। इसी प्रकार शहनाई और बांसुरी के अप्रतिम प्रयोग के साथ प्रारंभ और 'लीडर’ (1964) के मशहूर नृत्य गीत 'दैया रे दैया लाज मोहे लागे’ (आशा) का संदर्भ दीवाली का है और नौशाद द्वारा स्वरबद्ध इस गीत का आरंभ भी 'दीवाली आई घर-घर दीप जले’ जैसे शब्दों से ही होता है। 'हरियाली और रास्ता’ (1962) के 'लाखों तारे आसमान में एक मगर ढूंढ़े न मिला, देख के दुनिया की दीवाली दिल मेरा चुपचाप जला’ (मुकेश, लता) में शंकर-जयकिशन की लोकप्रिय धुन दीवाली की आतिशबाजी की पृष्ठभूमि के साथ मनोज कुमार और माला सिन्हा के ऊपर एक विपरीत दर्दीले भव की रचना की सृष्टि करती है। जहां 'नजराना’ (1961) का रवि द्वारा संगीतबद्ध 'मेले हैं चिरागों के रंगीन दीवाली है’ (लता) उत्फुल्लता की सृष्टि करता है, वहीं दीवाली का लेकर एक बहुत मशहूर दर्द भरा गीत भी मुकेश के स्वर में है। 'एक वो भी दीवाली थी एक ये भी दीवाली है, उजड़ा हुआ गुलशन है, रोता हुआ माली है।’ इस गीत के बारे में एक बड़ा रोचक प्रसंग मॉरिशस के साहित्यकार अभिमन्यु अनत ने मुकेश की मृत्यु पर प्रकाशित माधुरी में लिखा था। नवंबर 1975 की दीवाली के समय मुकेश मॉरिशस में थे और मुकेश नितिन, अभिमन्यु अनत सभी कार में कहीं जा रहे थे। कार में रेडियो चालू था और किसी गीत की बड़ी लंबी चौड़ी फरमाइश की लिस्ट के नाम सुनाए जा रहे थे। मुकेश ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि पता नहीं कौन सा गीत है जिसके लिए इतनी सारी फरमाइशें आ रही हैं। थोड़ी देर बाद जब गीत बजा तो यह कार में बैठे सभी लोगों के लिए सुखद आश्चर्य रहा क्योंकि गीत था मुकेश का ही गाया 'नजराना’ का 'एक वो भी दीवाली थी।’
धमेंद्र अभिनीत और एस.डी. बर्मन द्वारा संगीतबद्ध 'जुगनू’ (1973) में भी दीवाली को लेकर एक लोकप्रिय गाना था, 'छोटे नन्हे-मुन्ने प्यारे-प्यारे रे... दीप दीवाली के झूठे, रात जले सुबह टूटे।’ इसी तरह 'शिरडी के साई बाबा’ (1977) में आशा भोसले के स्वर में एक सुंदर गीत था, 'दीपावली मनाई सुहानी, मेरे साई के हाथों में जादू का पानी।’ इस गीत को लिखा और संगीतबद्ध किया था पांडुरंग दीक्षित ने। फिल्म 'बेगुनाह’ में भी किशोर कुमार के स्वर में 'तेरे मेरे प्यार का ऐसा नाता है, देश के सूरत तेरी दिल को चैन आता है’ गीत का फिल्मांकन दीपावली के माहौल में ही किया गया है।
इधर की फिल्मों के कुछ गीतों में भी दीवाली का संदर्भ आया है। फिल्म 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया’ (2001) में कई गायक, गायिकाओं के स्वर में 'आई है दीवाली सुनो जी घरवाली’ अपने किस्म का एक अलग गीत है। वहीं दीवाली की पृष्ठभूमि में ही 'कभी खुशी कभी गम’ का शीर्षक गीत अपने सुंदर फिल्मांकन, जतिन-ललित की सुंदर धुन और जया बच्चन के सुंदर अभिनय के कारण हमेशा अच्छा लगता रहेगा।