एशिया के सबसे बड़े थिएटर उत्सव का मौसम दिल्ली के मंडी हाउस इलाके की फिजा को अलग रंग दे देता है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अलावा कमानी, एलटीजी सभागार, श्रीराम सेंटर में नाटकों के मुरीदों का शोर, कलाकारों का जज्बा, रंग महोत्सव की खुनक घुलने लगी है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यायालय के इस सबसे बड़े नाट्य उत्सव, भारत रंग महोत्सव जिसे आमतौर पर नाट्य प्रेमी भारंगम के नाम से जानते हैं। इस उत्सव का देश-विदेश के नाटक प्रेमी पूरे बरस इंतजार करते हैं। इस साल दिल्ली के साथ-साथ मझौले शहरों में भी नाट्य प्रेमी नाटकों का आनंद उठा रहे हैं। दिल्ली सहित इस बार मणिपुर, गुवाहाटी, अगरतला, पणजी, औरंगाबाद, पणजी और जबलपुर में भी नाटकों का मंचन हो रहा है। इसे एक तरह से सेटेलाइट नाट्य समारोह कहा जा रहा है, जिसमें कुल मिलाकर 18 फरवरी तक कुल 125 नाटक मंचित किए जाएंगे।
भारत रंग महोत्सव की शुरुआत एक दशक पहले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने की थी। धीरे-धीरे यह एशिया के सबसे बड़े नाट्य उत्सव के रूप में तब्दील हो गया। पहले इसकी परिकल्पना इसी रूप में की गई थी कि भारत के विभिन्न भागों में नाटकों की दुनिया में क्या हो रहा है इसकी जानकारी एक जगह समाहित हो सके। भारत भर के रचनात्मक काम को एक जगह प्रदर्शन का मौका मिले इसी सोच के साथ शुरू हुए इस उत्सव को इतना प्रतिसाद मिला कि इसमें देश के साथ विश्व के भी नाटक जुड़ते गए और इसका फलक बढ़ गया। अब हर साल पूरे विश्व से चुनिंदा नाटक आते हैं और दर्शक नए-नए नाटकों और उनके तरीकों से रूबरू होते हैं। फरवरी का लगभग पूरा महीना उत्सव से सराबोर रहेगा। भारत रंग महोत्सव खत्म होने से पहले ही एक और उत्सव शुरू हो जाएगा। राष्ट्रीय पुस्तक मेला। पुस्तक प्रेमी 14 से 22 फरवरी तक नाटकों की दुनिया से निकल कर साहित्य की दुनिया में समा सकते हैं।
दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का सबसे बड़ा उत्सव भारत रंग महोत्सव शुरू हो गया है। नाट्य समीक्षकों, नाटककारों, आम दर्शकों, का जुटान ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का माहौल बिलकुल बदल दिया है। इसी सिलसिले में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक वामन केंद्रे से बातचीत
‘कोई भी नाटक निराश नहीं करेगा’
. भारत रंग महोत्सव को आप नाटक की दुनिया के लिए किस तरह देखते हैं?
यह एक सोचा समझा संकल्प है और मुझे लगता है विद्यालय की बड़ी उपलब्धि भी। बाहर के देशों में क्या चल रहा है, भारत के ही दूसरे भाग में क्या हो रहा है इसके लिए एक बड़े प्लेटफॉर्म की आवश्यकता थी। भारत रंग महोत्सव में सिर्फ दर्शक नाटक को लेकर आने वाले समूह ही नहीं आते। बल्कि इसमें शिरकत करने के लिए हमारे पूर्व छात्र, विद्यार्थी, मीडिया के साथी, नाट्य समीक्षक, अभिनय की दुनिया में आने के इच्छुक और सुधिजन आते हैं। इन सभी को जानने की उत्सुकता होती है कि आखिर नाटक की दुनिया में चल क्या रहा है। इन्हीं सभी की जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए इस उत्सव की बहुत जरूरत थी।
. इसका फायदा कैसे मिलता है?
हमें देश-विदेश में क्या हो रहा है यह जानने का मौका मिलता है। यदि सिर्फ मैं यह जवाब दूं तो यह नाकाफी और सतही उत्तर है। इसके बरअक्स हमें यह जानने का मौका मिलता है कि दरअसल हम कहां हैं। सिर्फ अभिनय ही नहीं बदल रहा, इसके साथ मंचन के तरके बदल रहे हैं, मंच सज्जा बदल रही है, नाटक में भी हर दिन कहने का ढंग बदल रहा है। कहने का मलतब है, हर दिन नया प्रयोग हो रहा है। इस बहाने हम देख पाते हैं कि जो हमने सोचा वह कहां तक सही था, जो हम नहीं सोच पाए तो उसमें क्या कमी रह गई थी। हर क्षेत्र को रीविजिट करने का मौका मिलता है।
आपने प्रयोग की बात की। नाटकों में प्रयोग को लेकर कहां तक सहमत हैं? बहुत ज्यादा प्रयोगात्मक नाटक क्या दर्शकों के लिए बाधा पैदा नहीं करते?
प्रयोग किस स्तर पर और कैसे किया गया है इसे समझना जरूरी है। अब हम अपनी बात कहने के लिए सूत्रधार की जगह मल्टीमीडिया का प्रयोग कर सकते हैं। नाटकों की दुनिया में बहुत बड़ा अंतर आया है। यदि इसे नहीं पकड़ा तो यह इतनी तेजी से रफ्तार पकड़ रहा है कि हम पिछड़ भी सकते हैं। मैं यह नहीं कर रहा कि इस डर से हमें बेमतलब के प्रयोग करना शुरू कर देना चाहिए या हर नाटक में प्रयोग जरूरी है। पर हां नए बदलाव पर नजर जरूर रखना चाहिए। सोच, अनुभव और क्षमता का आकलन सही तरही के होगा, इन तीनों में सामंजस्य होगा तो प्रयोग कभी भी विफल नहीं होगा। मुझे नहीं लगता कि दर्शकों को प्रयोग बाधा के तौर पर लगते हैं। नयापन देखना किसे अच्छा नहीं लगता। प्रयोग यदि जिम्मेदारी के साथ किया जाए तो इसमें खराबी नहीं है। अगर वाकई लगे, प्रयोग की अंदरूनी जरूरत है तो प्रयोग हमेशा सफल होगा। प्रयोग दर्शकों को जोड़ता है। ऐसे में यदि सधा हुआ प्रयोगत्मक नाटक होगा तो दर्शक जरूर सराहेंगे।
. फिर भी कुछ ऐसे प्रयोग होते हैं, जो दर्शकों की समझ से परे होते हैं। उन प्रयोगों का क्या?
उनका कुछ नहीं। क्योंकि कोई जरूरी नहीं कि एक नाटककार हमेशा दर्शकों की समझ को ध्यान में रख कर ही नाटक बनाए। जब कोई फिल्मकार फिल्म बनाता है, लेखक कुछ लिखता है तो क्या हर वक्त पाठक या दर्शक उसके मन में होते हैं? नहीं न तो फिर यह दबाव अकेले नाटककार पर क्यों? कई बार वह अपनी रचनात्मक भूख को शांत करने के लिए भी तो कुछ कर सकता है। कोई जरूरी नहीं कि हर नाटक या किसी नाटक का हर दृश्य दर्शकों के संवाद स्थापित करे। एक चित्रकार के मन में जो आता है वह ब्रश उठा कर कैनवास पर रच देता है। नाटककार भी उन्हीं के जैसा है।
. नाटकों की दुनिया में आप क्या बदलाव महसूस करते हैं?
यह बहुत बड़ा प्रश्न है। बदलाव को एक या दो वाक्य में नहीं समेटा जा सकता, न इसकी कोई तय परिभाषा बताई जा सकती है। मैं बदलाव के भी बहुत सारे स्तर मानता हूं। बदलाव सिर्फ नाटककार के स्तर पर ही नहीं, दर्शकों और विषयवस्तु के स्तर पर भी होता है। परिवर्तन जीवन का नियम है। जब इंसान बदलता है, उसकी सोच बदलती है तो जाहिर सी बात है उससे जुड़ी गतिविधियां भी बदलती है। जब इंसान का सामूहिक व्यवहार बदलता है तो नाटक भी बदलते हैं। पहले ज्यादातर नाटक पौराणिक कथाओं के आधार पर होते थे। उनमें राजा-रानियों की कहानियां हुआ करती थी। अब माडर्न दुनिया की भी कहानियां मंच पर उतारी जा रही हैं।
. नाटकों के चयन का आधार क्या रहता है?
इमानदारी से कहूं, मैंने नाटक तय नहीं किए। हमने एक स्क्रीनिंग कमेटी बनाई और उसी ने तय किया कि किस नाटक को इस बाद दिल्ली में दर्शकों के सामने लाना है। बस मैं इतना कह सकता हूं कि किसी भी नाटक को देखकर दर्शकों को निराशा नहीं होगी, क्योंकि मुझे अपनी चयन कमेटी पर अटूट विश्वास है।