पवन करण ने 'स्त्री मेरे भीतर' जैसे कविता संग्रह के साथ हिंदी कविता को स्त्री-संवेदना का जैसे नया उपहार दिया था। बेशक, कुछ आलोचकों ने तब यह प्रश्न उठाया था कि पवन करण की इस स्त्री संवेदना के पीछे कहीं पुरुष-दृष्टि तो नहीं है, लेकिन पवन के पूरे काव्य संसार में यह स्त्री उपस्थिति इतनी अभिनव, मर्मस्पर्शी और स्त्रीत्व को उसका व्यक्तित्व लौटाने वाली रही है कि वे प्रश्न अगर गौण न भी हुए तो हाशिए पर चले गए।
इस साल आया उनका नया संग्रह स्त्रीशतक समकालीन हिंदी कविता में एक नया मील पत्थर है। पवन के इस संग्रह में सौ कविताएं हैं जो सौ स्त्रियां पर केंद्रित हैं। ये सौ स्त्रियां पवन ने भारतीय परंपरा के मिथक संसार से खोज निकाली हैं। रामकथा, महाभारत और विभिन्न पुराणों-उपनिषदों के विराट फलक में लगभग अदृश्य-सी पड़ी ये सारी स्त्रियां अचानक सामने आकर हमें एक विलक्षण अनुभव से जोड़ जाती हैं। यह खयाल आता है कि इस परंपरा में इतनी सारी स्त्रियां हैं, लेकिन अनजान और गुमनाम हैं। तारा, सवर्णा, रेणुका, मालिनी, दीर्घतमा, विज्जला, कौशिकी, सुयशा, कालिंदी, याज्ञसेनी- ऐसे कुल सौ चरित्रों में मुश्किल से हमारे भीतर पांच-दस की स्मृति है।
लेकिन पवन करण बस इन स्त्रियों की कथा भर कहते या इनका कोई आधुनिक भाष्य भर कर डालते तो यह बड़ी बात नहीं होती, उन्होंने इन स्त्रियों के भीतर की कविता को पकड़ने की कोशिश की है। जाहिर है, इसमें उन्हें कल्पना का बहुत सहारा लेने की जरूरत पड़ी होगी, संभव है इस क्रम में कहीं-कहीं स्त्री संबंधी उनके पूर्वग्रह भी हावी हुए होंगे, लेकिन कुल मिलाकर यह स्त्रीशतक एक विलक्षण प्रयोग है जिसमें हमारी पुराकथाओं के पन्नों में दब कर सोई हुई स्त्रियां अचानक सांस लेती हुई, खिलखिलाती हुई, एक-दूसरे से अपने संवाद साझा करती हुई, कहीं ईर्ष्या करती हुई, कहीं युद्ध में अपने पति का साथ देने को आतुर, कहीं यह शिकायत करती हुई कि उसकी बात सुनी नहीं गई, कहीं शृंगार करती हुई, कहीं दूसरों के शृंगार पर मोहित होती हुई, कहीं एक-दूसरे को चुनौती देती हुई, कहीं अपनी हैसियत को बदलने का यत्न करती हुई, कहीं रोती हुई, कहीं अपनी मूर्छना का जिक्र करती हुई, कहीं किसी नृत्य पर मुग्ध उसे प्रेम से जोड़ती हुई, कहीं छुप कर किसी को देखती हुई, कहीं तरह-तरह की कामनाओं से लैस-इतने सारे रूपों में प्रकट होती हैं कि ये सौ कविताएं एक विराट महागाथा का हिस्सा लगने लगती हैं।
यहां राम की बहन शांता को याद करती कृष्ण की बहन एकानंगा मिलती है जो कहती है, ‘खुद की अनदेखी वे बहनें थीं हम / जो अपने-अपने कालखंड की / स्मृतियों में छूटती गईं सबसे पीछे / जबकि हममें से एक / कृष्ण की बहन थी और एक राम की।’ यहां पत्नियां हैं, दासियां हैं, परिचारिकाएं हैं, वाग्दत्ताएं हैं, बहनें हैं, मांएं हैं, प्रेयसियां हैं, गणिकाएं हैं, धरती पर उतरी अप्सरापुत्रियां हैं, असुर-माताएं हैं।
ज्यादा दिन नहीं हुए जब देवदत्त पटनायक की किताब भारत में देवी प्रकाशित हुई है। यह किताब देवियों के भीतर बसी स्त्रियों के नाना रूपों की जो कहानियां हमारे सामने रखती है, पवन करण जैसे उसी का काव्यात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
पवन के इस संग्रह की कविताओं के शिल्प पर भी कुछ कहना जरूरी है। लगभग सारी की सारी कविताएं एकालाप या संवाद में हैं- स्त्रियां कह रही हैं, स्त्रियां सुन रही हैं। महाभारत के चर्चित लाक्षागृह में कुंती की जगह जल मरी मृदा भी यहां है जो पांचों पांडवों की जगह जल मरे अपने बेटों को याद दिलाती है कि कैसे वे आतिथ्य के लिए आमंत्रित किए गए, युधिष्ठिर ने स्वागत किया था, भीम ने भोजन परोसा था, अर्जुन ने चषक भरे थे, कुंती सिर पर पंखा झल कर सबको लज्जित कर रही थी। अंत में वह कहती है, ‘पुत्रो राजव्यंजन जी भर कर / जीम लो आज, खाली कर-कर के / लुढ़का दो मदिरा के घट के घट / जैसे जीवन की यह आखिरी रात हमारी।’ बिना कुछ कहे राजमहलों के षड्यंत्रों का आखेट बनती वनचारिता को पवन करण जैसे मार्मिक श्रद्धांजलि दे जाते हैं।
इन कविताओं में एक अनूठी ध्वन्यात्मकता भी है जिसका असली अर्थ इनका पाठ करते हुए खुलता है। ये सदियों से चल रहे सभ्यता और संस्कृति के विराट मेले में खोई हुई हमारी मांएं-बहनें, सखियां, प्रेयसियां, पुत्रियां हैं जिनसे पवन करण ने हमें फिर से मिलाया है-याद दिलाते हुए कि यह स्त्री भाषा बची रहे तो दुनिया ज्यादा मानवीय दिखेगी।
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
पृष्ठ: 215 | मूल्य: 370 रुपये