अटट ठंड है, बाबा।
बतखों के रोओं पर कीचड़ सिहरती है!
नए साल का पहला अखबार एक था
साइकिल के कैरियर पर समेटे हुए,
कोहरे की गांती कसके लपेटे हुए
बेमन से निकला है सूरज!
चलो, गनीमत है कि निकला तो।
राहतें आती हैं जिंदगी में ऐसे ही
थके हुए कदमों से चलकर
जैसे कि दंगे में मरे हुए लोगों के घर आता है
सरकारी मुआवजा-
अपनी बगलें झांकता,
नाकाफियत पर शर्मिंदा
2. नया वर्ष! होटल से बस्ती में आया है
बचा हुआ खाना
आज आई है तो कल भी आएगी रसद
जाते-जाते भी रह जाते हैं
जीवन में मीठे मुगालते,
मातमपुर्सी में घर आए
दूर के उन रिश्तेदारों की तरह
कोई बहाना लेकर थोड़ा ठहर ही जाते हैं जो
श्राद्ध के बाद कई हफ्ते!
अपने घर भले नहीं हो कोई उनका पूछनहार लेकिन
औरों के भारी दिनों में
हफ्तों तक छितनी में पड़े रहे नीबू-सा
अपना पूरा वजूद ही निचोड़कर
वे वारना चाहते हैं
प्यास से पपडि़आए होंठों पर!
3. उतर गया बासी कैलेंडर।
जहां टंगा था, उस कच्ची दीवार पर
एक चौकोर-सा चकत्ता बचा है।
एक रुपहले फ्रेम में जो उजाड़ टांगती हूं वहां,
किसी समय वो मेरा घर था।
पिछले बरस भाई उधर गया तो अपने मोबाइल पर खींच लाया उजाड़
फत्तन खां, इलेक्ट्रिशयन इसके पिछवाड़े
छोड़ गए थे बांस की सीढ़ी-
एक मजबूत लतक हहा-हहाकर
बढ़ गई इस पर
और अनंत तक गई!
कोहड़े के फूलों-सी
इधर-उधर चटकी फिर
जाड़े की धूप!
कपड़े की बाल्टी लिए दुल्हन भौजी
बिल्ली-पांवों से चढ़ा करती थी जिस पर-
वह बांस की सीढ़ी थी या उमंगों की?
कानू ओझा की पतंग वहां लटकी है अब तक,
बांस की खपच्ची भर शेष
गर्भ में मार दी गई बच्चियां
झुंड बांधकर खेलती हैं वहां
एक इंतजार जो जितार अभी माटी में
यों ही जितार रहेगा पीढ़ी-दर-पीढ़ी
उचक-उचक देखते हुए रास्ता
समतल भी हुए चले जाते हैं टीले
और अनाम हौसले बांस की सीढ़ी!