यह सितंबर 2009 की थोड़ी गर्म सुबह थी। 'आउटलुक' लंबे समय से पाठक साहित्य सर्वे पर काम कर रहा था। पाठकों के लिए कुछ नाम सुझाए गए थे। सैकड़ों चिट्ठियां और ईमेल आए, अपने पसंदीदा कवि और लेखक के समर्थन में। उस अंक में कुंवर नारायण भी पसंदीदा कवियों की सूची में आए और आउटलुक के लिए खुशी-खुशी अपनी अप्रकाशित कविताएं दीं।
यह सर्वे अक्टूबर 2009 के आउटलुक के अंक में प्रकाशित हुआ था। इसी अंक में छपी कुंवर नारायण की कविताएं। इन कविताओं में जीवन और साहित्य दोनों की झलक बराबर मिलती है।
दहलीज के परे
कभी सोचा था
अमरत्व के अर्थ को
फिर कभी सोचूंगा
बिल्कुल नई तरह
जब वक्त आया
उसके सारे संदर्भ पौराणिक हो चुके थे
अपने सोच को सोचते हुए
जो एक तीसरा सोच निकला
उसके आगे एक सांकेतिक विराम-बिंदु था
उस बिंदु से भी सोचा जा सकता था
तमाम प्रामाणिक उदाहरणों को
उलट पुलट कर...
मैंने उठ कर
दीवारों पर टंगी तमाम
महान कलाकृतियों की अनुकृतियों को
उल्टा लटका दिया
पुश्तैनी फर्नीचरों का मुंह घुमाकर
दीवार की ओर कर दिया
पलंगों को पलट कर
उन पर उल्टे गद्दे डाल दिए
और फर्श पर मुंह के बल लेट कर
सोचने लगा
कि अब और क्या करना चाहिए उस सबका
जो मेरी पीठ पीछे होने वाला है...
बीती तारीखों वाले पत्रों और चित्रों को
नए लिफाफों में रख-रख कर
वापस भेजने लगा उन्हें भेजने वालों के पास
कुछ का दो-टूक उत्तर आया...
‘मैं तो अब इस दुनिया में हूं ही नहीं।’
कुछ ने स्वीकार तो किया कि वे हैं
पर इतने मरे मन से मानों हों ही नहीं
कुछ असाध्य बीमारियों के
लक्षण-ग्रंथों में मिले
उनके बीच सीमाएं बनाते
जो चेहरे दिखे
बहुत कुछ अपने ही लगे
एक संकट-काल से
संधिकाल में प्रवेश करते,
अपने घर की दहलीज को सलीब की तरह
अपने कंधों पर लादे
नई किताबें
नई-नई किताबें पहले तो
दूर से देखती हैं मुझे
शरमाती हुई
फिर संकोच छोड़ कर
बैठ जाती हैं फैल कर
मेरे सामने मेरी पढ़ने की मेज पर
उनसे पहला परिचय... स्पर्श
हाथ मिलाने जैसी रोमांचक
एक शुरुआत...
धीरे-धीरे खुलती हैं वे
पृष्ठ-दर-पृष्ठ
घनिष्ठतर निकटता
कुछ से मित्रता
कुछ से गहरी मित्रता
कुछ अनायास ही छू लेतीं मेरे मन को
कुछ मेरे चिंतन का अंग बन जातीं
कुछ पूरे परिवार की पसंद
ज्यादातर ऐसी जिन से कुछ-न-कुछ मिल जाता
फिर भी
अपने लिए हमेशा खोजता रहता हूं
किताबों की इतनी बड़ी दुनिया में
एक जीवन-संगिनी
थोड़ी अल्हड़-चुलबुली-सुंदर
आत्मीय किताब
जिसके सामने मैं भी खुल सकूं
एक किताब की तरह पन्ना-पन्ना
और वह मुझे भी
प्यार से मन लगा कर पढ़े...
भाषा के ध्रुवांतों पर
तपती भूमध्यरेखा पर ही नहीं
भाषा के ठिठुरते ध्रुवांतों पर भी
संभव है कविता
एक ओर छूते
आकाश की ऊंचाइयां
दूसरी ओर थाहते
अपनी गहराइयां
चमकते पानी के पहाड़