वह निर्जीव शिल्प में जूते नहीं गांठता
वह कारखाने से बाहर आदिम कला को भाषा-परिभाषा देता है
अपनी खाल की तरह वह संवारता है चमड़े को भोर से
स्निग्ध कोमल खालों के बीच रहता हुआ
वह उसकी सुगंध में डूब जाता है बगैर जिसके जीना कठिन
वह सूखते-कुम्हलाते बालों को दुख में कहता है अलविदा
कोई मशीन नहीं है उसके पास
वह अपने औजारों को बच्चों की तरह पालकर बरतता है
पूरे नाप-जोख के साथ काटता है चमड़ा सलीके से
वह उसका एक-एक टुकड़ा संभालकर रखता है
न जाने किस गरीब की पनइया के जीवन पर उसे आना है
तरह-तरह के लकड़ी के नापों पर करीने से मंडाता चमड़ा, वह स्वप्न में डूब जाता है
उन आकारों के बारे में सोचता है रात गए जिनका बनना शेष है
वह पैरों के नाप के बारे में, हो सकने वाले दर्द के साथ सोचता है
वह जानता है उस चुभन को जो किसानों को होती है खेत में काम करते हुए
वह मजूरों के पांवों को आंखों में बैठाकर जूते के चित्र बनाता है
उसके बनाए जूतों को होना चाहिए कलाकारों की प्रदर्शनी में
वह कोमल चमड़े को गंध सहित सहेजता है जूतों में
पैतृक कला से वह गढ़ता है ऐसा सजीव जूता, जिसमें उसकी अपनी गंध भी होती है
कोई कलाकार ऐसा चित्र किस विधि से बना पाएगा, वह सोचता है
वह सिर्फ जूता तो नहीं बनाता, यह सोचता फिर काम में जुट जाता है
वह इसके आगे दुनिया के बारे में सब जानता हुआ भी, कुछ और सोच नहीं पाता