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कांटों के बीच अपनों की चिंता

मनोज की कविताओं में समाज के विविध रंग दिखाई पड़ते हैं। परिवार के प्रति चिंता या अपनों की देखरेख की चिंता भी मनोज शब्दों में ऐसे बांधते हैं कि हर किसी को वह दुख साझा लगता है। सन 2008 के प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के बाद भारतीय भाषा परिषद से तथापि जीवन नाम से काव्य संग्रह। कविताएं लिखने के अलावा अनुवाद के काम में संलग्न रहते हैं।
कांटों के बीच अपनों की चिंता

 

दूसरी तरफ  से 

सिर्फ होने से मैं 

बहुत सी सुंदरताएं नष्ट कर देता हूं

कुछ नष्ट करता है मेरा मनुष्य होना

पुरूष होना

किसी परिवार का होना

किसी का पुत्र होना

मेरे लिए एक ही श्रम बचता है

मैं अपने होने को इस तरह झुकाऊं

कि कुछ कुरूपताएं भी नष्ट कर सकूं

अपूर्णता

मैंने चाहा कि किसी को फोन करूं

तो किसी बच्चे की नींद न टूटे

न चमके स्क्रीन उसके सामने जिसने अभी खींचा है रात को अपने करीब

जिसकी ऊंगलियों में दर्द हो उसे तो हरगिज कॉल न करें

मगर इसके लिए तो मुझे उस पार जाना होगा

जब उस पार चला जाऊंगा

तो फिर कैसे करूंगा इस पार से कॉल!

सख्त रेखाएं

कल क्या होगा

जरा भी पता नहीं

यह जुमला एक नक्शा भर है किसी उठने वाले भवन का

कुछ लकीरें मात्र जिस पर झोपड़ी कैसे बैठेगी यह अनिश्चित

ठोस कहें तो ऐसे कहें कि कल के खाने का भरोसा नहीं

फिर यह एक दरवाजा बन जाएगा उस घर का

जहां रात का रंग फट जाता है सुबह के घंटों पहले।

कल क्या होगा पता नहीं

एक ठूंठ वृक्ष फकत

है दरख्त जिस पर पत्ते नहीं, फूल नहीं और कांटे भी नहीं

उसे देखो जिसने कहा कि आसमान होगा या छप्पर पता नहीं

तब जानोगे कि क्या होता है बरसते कांटों के बीच चलना।

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