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धर्म और धुंध

संजीव श्रीवास्तव पेशे से टीवी पत्रकार हैं। उनकी एक पुस्तक - समय, सिनेमा और इतिहास भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित है। संजीव की कविताओं में धर्म, राजनीति और इस सबके बीच पिसती मनुष्यता का ऐसा विवरण है जो किसी को भी सोचने पर मजबूर कर सकता है।
धर्म और धुंध

  

कुहासा जितना बाहर घना था, विजिबलिटी अंदर उससे कम न थी

आग कोहरे में लगी थी और धुआं चार दीवारियों में फैला था

छाई थी घर वापसी की घनघोर घटा भी

तभी मेरे भीतर धर्मांतरण के जंतु ने पर फैला लिए 

लेकिन कौन-सा अपनाऊं धर्म, यही असमंजस बड़ा था

दुनिया में हर धर्म के फायदे के अपने-अपने दावे हैं

कोई कहता वह मुझसे पीछे, और हम उससे आगे हैं; 

मेरे दोस्तो औ शुभचिंतको, मुझे कोई ऐसा धर्म बता दो

जिसकी चादर ओढ़ लेने से ठंड की ठिठुरन कम लगती हो

जिसका मंत्र जाप करने से बर्फीली वादियों के सफर में

अलाव सुलग जाता हो;

कहते हैं दुनिया में जितने धर्म हैं

देवी-देवताओं, अवतारों, पैगंबरों और मसीहाओं की फेहरिस्त भी उतनी है

मगर मुझे कोई ऐसा मजहब बता दो

जिसका जैकेट बुलेटप्रूफ हो / और जिसके असर से

आतंकवादियों का निशाना चूक जाता हो;

कमस से मैं भी धर्मांतरण कराना चाहता हूं

लेकिन अरे ओ धर्म के धुरंधरो, मुझे कोई ऐसा धर्म बता दो, 

जिसकी माला पहनने से भूख कम लगती है औ गरीबी दूर हो जाती है

जिसका मनका फेरने से आंखें नहीं बिलखतीं औ सपने सच हो जाते हैं

जिसका प्रसाद खाने से खून कम खौलता है औ लावा भी कम उबलता है

जिसकी बूटी निगलने से सड़क पर दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है

दोजख की चिंगारी कभी नहीं जलाती

जिंदगी जीते जी जन्नत बन जाती है;

मैं भी धर्मांतरण कराना चाहता हूं। 

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