पुस्तक: आग और पानी: बनारस पर एकाग्र गद्य
लेखक: व्योमेश शुक्ल
प्रकाशक : रुख पब्लिकेशन्स
मूल्य : 240/
सनातन धर्म एवं संस्कृति की जब कभी भी चर्चा होती है तो अनावश्यक कर्मकांड व संस्कृत भाषा की जटिलता ही केंद्र में होते हैं. मान लिया जाता है कि संस्कृत भाषा के ज्ञान के अभाव में उत्तर भारत में धार्मिक विमर्श संभव ही नहीं है. नि:संदेह दक्षिण से ही भक्ति की धारा प्रवाहित हुई. आलवार, नयनार व लिंगायत की परंपराएं प्रशंसा पा रहीं हैं. लेकिन तुलसीदास के योगदान को कथित विवादित पंक्तियों के सहारे गौण कर दिया जाता है. बिहार और उत्तर प्रदेश के कई जातिवादी नेता अपनी अज्ञानता का परिचय देते हुए अकारण तुलसीदास की आलोचना करके राजनीति में अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करने की कोशिश करते हैं. ऐसे लोगों को व्योमेश शुक्ल की पुस्तक ‘आग और पानी:बनारस पर एकाग्र गद्य’ पढ़नी चाहिए. बनारस की महिमा का बखान करते हुए लेखक ने जनभाषा में संस्कृत श्लोकों के गुणानुवाद के लिए तुलसीदास को स्तुत्य माना है.
तुलसीदास का साहस: लोकभाषा में रामकथा
पुस्तक की शुरुआत तुलसीदास और उनके रचनात्मक योगदान से होती है. लेखक इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि तुलसीदास ने कैसे लोकभाषा 'अवधी' में रामचरितमानस की रचना कर जनसामान्य तक रामकथा को पहुँचाया. संस्कृत के विद्वानों ने इसे 'भाखा' कहकर उपेक्षित किया और इसे गंवारों की भाषा माना. लेकिन यही भाषा उत्तर भारत का साहित्यिक और सांस्कृतिक आधार बनी. व्योमेश शुक्ल लिखते हैं कि,
"यहीं संस्कृत की पढ़ाई-लिखाई करके, संस्कृत के रामायण की ही तर्ज पर तुलसीदास ने उत्तर भारत की एक चलती हुई जबान में भगवान राम की कहानी लिखी. यह गुस्ताखी थी. उस जबान को बनारस के अभिमानी संस्कृतज्ञ 'भाखा' कहते थे और गंवारों की चीज मानते थे. विष्णु के अवतार की लीलाओं का बखान ऐसी बोली में कैसे हो सकता था जिसमें से पसीने की महक उठती हो, जिसके कपड़ों और बालों पर रास्ते की धूल हो; जिसके पास व्याकरण की तमीज न हो और जिसे कोई भी सुन-समझ ले."
तुलसीदास का यह साहस उन्हें भारतीय समाज के सांस्कृतिक नायकों की पंक्ति में खड़ा करता है. लेखक यह भी इंगित करते हैं कि जो नेता तुलसीदास की आलोचना कर जातिगत राजनीति को बढ़ावा देते हैं, उन्हें उनकी विरासत और रचनात्मकता के महत्व को समझने की जरूरत है.
गंगा: एक नदी नहीं, जीवनदर्शन
गंगा नदी इस पुस्तक में केवल एक भौगोलिक उपस्थिति नहीं है, बल्कि यह भारतीय सभ्यता की आत्मा के रूप में उभरती है. गंगा, जो हिमालय से निकलकर सागर तक की यात्रा करती है, हर जगह जीवन का संदेश देती है. दरअसल यहाँ पन्नों पर कल-कल बहती हुई गंगा नदी के दर्शन होते हैं. पहाड़ों से निकली हुई जलधारा अपनी गोद में सबको जगह दे रही है - गंदगी को भी. गंगा बेबस नहीं है. मति तो उनकी मारी गयी है जो माँ गंगे को जल संसाधन के रूप में देखने के आदी हो गए हैं.
ऋषि-मुनियों को प्रेरित करने वाली गंगा अपने तटों पर मस्ती करने वाले अज्ञानियों के प्रति कठोर नहीं हो सकती. हिमालय से सागर तक की यात्रा करने वाली नदी बनारस में रुकती नहीं है, बल्कि जीवन की निरंतरता का संदेश देकर आगे बढ़ जाती है.लेखक ने गंगा को एक ऐसी मातृ-शक्ति के रूप में देखा है जो सबको अपनाती है—चाहे वह पवित्र हो या अशुद्ध.
आराध्य देव शिव की बारात में सब शामिल थे. बौद्धिक होने की उम्मीद सबसे नहीं की जा सकती. वेद की ॠचाओं को कंठस्थ करने वाले धर्माचार्यों को गंगा में गिरने वाले मल-जल के विवरण को पढ़ने की फुर्सत नहीं है.
शुक्ल गंगा के प्रतीक के माध्यम से यह समझाने का प्रयास करते हैं कि भारतीय समाज को अपनी जड़ों और परंपराओं की पुनः व्याख्या करनी चाहिए. गंगा केवल एक नदी नहीं, बल्कि एक जीवनदर्शन है जो सहिष्णुता, निरंतरता, और समग्रता का पाठ पढ़ाती है.
कबीर और बनारस की बहुलता
लेखक कबीर की परंपरा और उनके विचारों को बनारस की पहचान से जोड़ते हैं. कबीरचौरा की गलियों का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया है कि यह गली भारतीय बहुलतावादी संस्कृति की प्रतीक है. यहाँ की साधारण नागरिकता ने न जाने कितने पद्म पुरस्कार और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार दिए हैं. कबीर के विचार बनारस की आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं—जहाँ कोई छोटा-बड़ा नहीं है और श्रम का महत्व सर्वोपरि है.
पंडित छन्नूलाल मिश्र "कासी कबहूँ न छाड़िए" का आलाप ले रहे हैं. यहाँ सब बराबर हैं. श्रम का अद्भुत गुणगान और समतामूलक समाज की स्थापना का आह्वान इन पंक्तियों में ढूंढ़ा जा सकता है. व्योमेश लिखते हैं "तुलसी का पत्ता छोटा हो या बड़ा, भगवान पर चढ़ेगा ही. फिर आदमी के साथ भेदभाव क्या करना. छोटा-बड़ा कोई है नहीं, बनाया गया है इस दुनिया में." हमें सब कुछ को स्वीकार करना है. विश्व कर्मप्रधान है. जूता सिलने वाला मोची है, पूजा कराने वाला ब्राह्मण. लेकिन मोची पूजा करवाएगा तो वह भी ब्राह्मण. जातपात और बड़े-छोटे के भेद ने लोगों को एक- दूसरे से अलग कर दिया है."
शुक्ल ने बनारस को श्रम और समतामूलक समाज का प्रतीक बताया है. गंगा की तरह ही बनारस हर व्यक्ति को अपनी गोद में जगह देता है, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, या वर्ग का हो.
धर्म, राजनीति, और सामाजिक आलोचना
पुस्तक में लेखक ने धर्मगुरुओं और राजनेताओं की निष्क्रियता पर तीखा प्रहार किया है. लेखक के अनुसार, धर्मगुरु गंगा की सफाई और समाज के समरसता को लेकर गंभीर नहीं हैं. समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया का जिक्र करते हुए उन्होंने श्रम और समानता आधारित समाज की वकालत की है.
"अपने दायरों में सिमटे हुए मठाधीश अगर श्रम आधारित संस्कृति के वाहकों के करीब होते तो उत्तर भारत में कई किस्म की सामाजिक विकृतियों को पनपने का अवसर ही नहीं मिलता."
शुक्ल ने यह भी बताया है कि तुलसीदास जैसे संतों ने धर्म और समाज के बीच पुल बनाने का काम किया. उनकी 'रामचरितमानस' केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि सामाजिक एकता का दस्तावेज है.
विरोधाभासों का सह-अस्तित्व
बनारस विरोधाभासों का शहर है. यहाँ अराजकता में भी व्यवस्था है, परंपरा और आधुनिकता का संगम है. लेखक ने बनारस को एक ऐसा स्थान बताया है जहाँ हर व्यक्ति अपने विरोधाभासों के साथ सह-अस्तित्व में जीता है. यह पुस्तक बनारस की इन्हीं विशेषताओं को उजागर करती है.
चार वर्ण और हजारों जातियों में बंटे हुए समाज को जोड़ने का मंत्र मिलता है बनारस में . शुक्ल लिखते हैं 'कबीरचौरा की यह गली दरअसल जादू और जादूगरों की गली है. इस गली की गमछा पहननेवाली, गालियाँ बकनेवाली, ठठाकर हंसनेवाली नागरिकता ने बनारस को न जाने कितने पद्म पुरस्कार और संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार दिए हैं. इन सब कलाकारों के असली पूर्वज कबीर हैं.'
'आग और पानी' केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि बनारस और भारतीय समाज की आत्मा का दर्पण है. भारतीय सभ्यता व संस्कृति हजारों वर्षों के कालखंड को समेटती है. विरोधाभासी विचारों को यहाँ फलने-फूलने की अनुमति है. भगवान शिव से जुड़ी गाथाएँ हमारी विरासत है. आप ही नीलकंठ हैं, आप ही विश्वनाथ हैं एवं आप ही नटराज हैं. इन विविध स्वरूपों की प्रत्यक्ष अनुभूति के लिए जरूरी है इस किताब में तैरना. पाठक इस पुस्तक के पृष्ठों को मत गिनें. इसके विस्तार में आप खो जायेंगे।
(प्रशान्त कुमार मिश्र स्वतंत्र पत्रकार हैं)