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किताब समीक्षा : मुम्बई शहर पर एक अद्भुत किताब : शहर जो खो गया

विश्व के बड़े शहरों की सूची में मुम्बई शहर का नाम 7 वें नम्बर पर शुमार है। दु:ख भरे दिनों में इस शहर की कई...
किताब समीक्षा : मुम्बई शहर पर एक अद्भुत किताब : शहर जो खो गया

विश्व के बड़े शहरों की सूची में मुम्बई शहर का नाम 7 वें नम्बर पर शुमार है। दु:ख भरे दिनों में इस शहर की कई यात्राएँ की। इन यात्राओं की स्मृति अब भी मेरे मानस-पटल पर अंकित है। इसी शहर के इतिहास-भूगोल, कला-संस्कृति-साहित्य, सिनेमा - संगीत और जनजीवन पर केन्द्रित एक किताब 'शहर जो खो गया' सेतु प्रकाशन से छपी है।

कवि आलोचक विजय कुमार द्वारा रचित इसी किताब की पूँजी पर इन दिनों फिर से उस शहर की यात्रा पर हूँ, जिसकी सजावट को लेकर लेखक का बयान है, "इसकी बस्तियाँ, बाज़ार, मोहल्ले, इमारतें और गलियाँ, पुल और सड़कें, इसकी पहाड़ियाँ और इसका प्राचीन समुद्र ,इसके दिन और रात, शोर और निस्तब्धता, भीड़ और घनघोर अकेलापन, क्रूरताएँ और करुणा, भव्यता और क्षुद्रताएँ, स्मृति और विस्मृति, संवाद और निर्वात सब एक-दूसरे से जटिल रूप से आबद्ध हैं।"

इस यात्रा में चकाचौंध वाले इलाके से दूर धारावी की संकीर्ण गलियों में 'धारावी स्लम टूर ' योजना की गतिविधियों पर नजरें टिकाये पैदल हूँ आज। 35 डॉलर प्रति व्यक्ति, प्रति घंटे की दर से बस्ती की मलीनता बिक रही है यहाँ। शोषण के महीन औजार लिए गली-गली घूम रहा है बाज़ार। पता नहीं किसके ऊपर भरोसा जताते बतिया रहे हैं यहाँ के वाशिंदे,

 

''लीडर लोग के बाप का नहीं है यह देश।''

''देख अपना भी नसीब खुलेगा एक दिन।''

इसी के बीचोबीच अपनी कलकल निर्मल धारा में 'मीठी नदी' बहती थी कभी। विनाश कुमारों के गिरोह ने बड़ी बेरहमी से उसकी हत्या कर दी। यह जीवित होती आज तो भारत की सबसे छोटी नदी होने का तमगा इसी के गले शोभता। गूगल के पन्ने पर सुंदर पिचाई नहीं लिखते कि भारत की सबसे छोटी नदी राजस्थान की धरती पर बहने वाली 'अरवारी' है। अपने पास सागर होने के दंभ में इतराये लोगों के कर्मकांडनुमा प्रतिकार देख मन तीत हो गया। उसी नदी के तट पर एक संवेदनशील कवि-लेखक के मुख से मीठी नदी का शोक गीत सुना।भावुक हुआ।

मुंँह लटकाए आगे बढ़ा। आम लोगों की भीड़ में कई खास लोगों के दर्शन हो गये।सबके माथे पर उनके सुकर्मों का टीका लगा था। स्थानिकताओं के गर्द -गुब्बार में लिपटे उन सब के जिन्दा किस्से सड़कों -चौराहों पर ,गलियों- मुहल्लों में, पुल - पुलियों के नीचे टहल रहे थे। 

प्लेग महामारी के समय अपनी साइकिल से चक्कर लगाते, देवदूत के मानिंद ग़रीबों की सेवा करते डॉक्टर ग्रेबियल वेगास, राष्ट्रीयता से अधिक अपनी बौद्धिक ईमानदारी को तरजीह देने वाले अँग्रेज़ पत्रकार बेंजामिन गाइ हार्निमन, प्रधानमंत्री नेहरू के हाथ में किताबों का बिल थमाकर, "अधिकतम 20 परसेंट का डिस्कांउट दे पाऊँगा। इतना ही अपने सभी ग्राहकों को देता हूँ।" कह अपनी किताब दुकान के काउंटर पर मुस्कुराते टी. एन. शानबाग,महान संगीतकार जयदेव की पहली पाती को डस्टबीन में डाल अपनी दिनचर्या में रत शायर जफर गोरखपुरी, पटरी पर चड्ढी बनियान बेचकर पेट पालते हुए दुनिया के राष्ट्राध्यक्षों से खत-ओ- किताबत का आनंद बटोरते शायर पारस हिंगोल्वी... जैसे बेलौस लोग इसी शहर के रहगुजर थे। स्मृतिलोप के इस भयावह समय में ऐसे लोगों से मिलकर मन की तिक्तता एकाएक फुर्र हो गई,सीना फूलकर चौड़ा हो गया।सच कहता हूँ विविधताओं के रंग में रँगे मुम्बई की यह यात्रा एक जरूरी यात्रा में तब्दील हो गई है।

सुकून की इस घड़ी में ईरानी रेस्तराँ के एक कुर्सी पर बैठ गया। तख्त पर लिखे उन हिदायतों को पढ़ा, जिसे कभी अंँग्रेज कवि निस्सीम एजाकेल ने भी पढ़ा था और उसके अंतर्मन से 'ईरानी रेस्तराँ की हिदायतें' जैसी कविता फूटकर बाहर आ गई थी। 

मँजगाँव की धरती पर चहलकदमी करना और दिलचस्प लगा। यह उन 7 टापुओं में से एक है जिसे पुर्तगाल के राजा ने अपनी बेटी प्रिंसेस कैथरीन ऑफ ब्रगेंजा के विवाह में इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय को बतौर दहेज दान में दिया था। इस इलाके में टहलना वाकई एक स्मृति - समय में टहलने के समान है।

इसके हर पन्ने पर मुम्बई की सजीव छवियांँ हैं, जो छुअन मात्र से बोलती हैं, बतियाती हैं। इसमें 'शहर के भीतर एक शहर' है, 'शहर में कविता : कविता में शहर' है। शास्त्रीय संगीत का वह भिंडी बाजार घराना है, जहाँ स्वर कोकिला लता मंगेशकर संगीत सीखती थीं। उस्ताद अमान अली खाँ की स्मृतियाँ हैं ,जिनके शागिर्द मन्ना डे जैसे गायक हुआ करते थे। 

फुटपाथ पर बिछी किताबों की रोचक दुनिया है यहाँ।काम कला से लेकर पाक कल तक की किताबों की इस दुनिया में गाँधी हैं अम्बानी हैं और हैं उन लोगों की उँगलियों की छुअन जिन्होंने इन किताबों को अपने घर से बाहर का रास्ता दिखाया। अपने आस-पास से बिल्कुल बेखबर खुशवंत सिंह,नानी पालखीवाल,विजय तेंदुलकर,मृणाल सेन,कादर खान जैसे लोगों की आँखे हैं यहाँ,किताबों के ढेर पर झुके हुए उन सब के चेहरे हैं। यहीं लेखक का सवाल भी है ,"कौन हैं ये लोग जो पटरी पर निष्कासित, निर्वासित इन किताबों से फिर एक रिश्ता बना रहे हैं?" आगे इसका उत्तर भी है।

इस पुस्तक में 99 निबंध हैं। एक-एक निबंध में कई-कई संदर्भ हैं। तीन चार पन्नों में सबको समेटने की कुव्वत मुझमें बिल्कुल नहीं। अंत में बस इतना कह रहा हूँ यह किताब पठनीय है, पढ़ने वालों को खूब आनंद देती है।इसी तरह की किताबों को पढ़कर अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन ने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की होगी --पढ़ने जैसा कोई आनंद नहीं।

 

 

सतीश नूतन

( कवि- लेखक)

 

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पुस्तक : शहर जो खो गया

लेखक : विजय कुमार

प्रकाशक : सेतु प्रकाशन ( नोएडा)

पृष्ठ : 470

मूल्य : 550 

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