एक लगातार बेचैनी, एंग्जाइटी अनिल का स्वभाव बन गई है। जिस एंग्जाइटी का लोग बड़े डॉक्टरों से इलाज कराते घूमते हैं, उसी को अनिल कविताओं में बदल देता है। सभ्यताओं की यात्रा पर गए हुए वर्तमान के गीत को पढ़कर आप महसूस करेंगे कि यह एंग्जाइटी निजता की हर बाधा को तोड़कर सामूहिक अस्तित्व के पुरपेंच रास्तों का आख्यान हो जाती है। गो यह पद अब घिस गया है पर कहना होगा कि 'वैचारिक प्रतिबद्धता’ के बिना इतने बड़े हस्तक्षेप संभव ही नहीं थे, जो अनिल की कविताओं में दिखते हैं।
अनिल के यहां अपने जनपद की बोली-बानी का व्यवहार खूब है, कहीं-कहीं तो हिंदी अर्थ फुटनोट के रूप में दिए जाने जरूरी लगे हैं। चाहता तो कवि हिंदी समानार्थी शब्द लिख लेता लेकिन तब वह आंच खो जाती। सब जानते ही हैं कि हमारी ये बोलियां महज (लोक) भाषाई विमर्श का हिस्सा नहीं हैं, वे मनुष्य जाति का इतिहास भी बताती हैं। ये शब्द अपने साथ एक धड़कता हुआ समाज लिए चलते हैं। समाज, जो विकट हलचलों से भरा है, जिसमें कहीं कारुणिक तो कहीं लड़ने-जूझने के अपूर्व दृश्य दिखाई पड़ते हैं। यहां एक अनगढ़ता भी है, जैसे हमारा पहाड़ अनगढ़ बनता हुआ पहाड़ है, वैसे ही ये कविताएं भी अपने भूगोल की ही तरह ऊंची उठती तो कहीं विकट राजनतिक आपदाओं के बीच अचानक ढह पड़ती-सी लगती हुई पर फिर उठ खड़ी होतीं।
अनिल के संग्रह के इन कविताओं को मैं युवा हिंदी कविता के इस मठक्रेंदित समझौतावादी-चापलूस-आत्मग्रस्त हुए जाते दौर पर हमारे गणतंत्र के सीमांत से आई एक आपत्ति (विपत्ति) की तरह देख रहा हूं।
किताब - उदास बखतों का रमोलिया
लेखक - अनिल कार्की
मूल्य - 100 रुपये (पेपरबैक)
पृष्ठ : 116
प्रकाशक : दखल प्रकाशन, दिल्ली