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संस्कृति में रचा-बसा सिनेमा

सिनेमा और संस्कृति कहीं न कहीं पस्पर रूप से जुड़े हुए हैं। यह साझी विरासत है जो दो धारओं को आपस में...
संस्कृति में रचा-बसा सिनेमा

सिनेमा और संस्कृति कहीं न कहीं पस्पर रूप से जुड़े हुए हैं। यह साझी विरासत है जो दो धारओं को आपस में बांधती है। सिनेमा का इतिहास कई रूपों में लिखा गया। लेकिन सिनेमा की संस्कृति पर संभवतः कोई किताब नहीं है। भारत में सिनेमा की भी अलग तरह की संस्कृति रही है। इसे समझना के लिए किताब का समर्पण पृष्ठ ही काफी है। लेखक अमित कुमार शर्मा ने बहुत ही रोचक ढंग से समर्पण में लिखा है, 'यह पुस्तक एकल सिनेमा युग के उत्साही एवं रसिक दर्शकों को सादर समर्पित है, जिन्होंने टिकट खरीदने के लिए अपनी हर जरूरत को कम करके हिंदुस्तानी सिनेमा को स्वावलंबी बनाए रखा।' यह पंक्तियां ही बता देती हैं कि भारत में सिनेमा के प्रति हर जगह अलग किस्म का दीवानापन रहा है। जो लोग एकल सिनेमा के जमाने को जानते हैं या उन्होंने किसी सुपर स्टार की फिल्म का पहले दिन, पहला शो देखा होगा तो वे आसानी से समझ जाएंगे कि सस्ते टिकट के बाजवूद उस वक्त टाकीज में फिल्में देखना वाकई रईसी का काम था।

यह पुस्तक विस्तार से भारतीय सिनेमा के इतिहास की बात करती है और विस्तार से क्रम के अनुसार फिल्मों और उनके बारे में सविस्तार जानकारी मुहैया कराती है। पाकीजा, जोर, आनंद तीसरी कसम फिल्मों, उनके निर्देशकों और कहानी के बारे में यह अध्याय उस वक्त दर्शकों की मानसिकता की भी बात करता है। यह किताब भारतीय संस्कृति के साथ फिल्म को जोड़ती है और बतातनी है कि कैसे नाट्यशास्त्र से बढ़ कर सिनेमा ने रूप लिया और भारत इस उद्योग में अग्रणी हुआ।

इस पुस्तक का चौथा अध्याय हॉलीवुड की तुलना में भारतीय उद्योग को रखता है और उभरती हुई विश्व व्यवस्था से लेकर यहूदी और पारसियों के सिनेमा में योगदान को भी रेखांकित करता है। यह क्षेत्र का एक समाजशास्त्र होता है और यह पुस्तक सिनेमा के समाजशास्त्र पर बहुत विस्तार से रोशनी डालती है। इस पुस्तक के छठ अध्याय में हिंदी फिल्मों में समकालीन प्रेम कथाएं बहुत पठनीय अध्याय है। समाजशास्त्रीय विश्लेषण के साथ लिखी यह पुस्तक बजट, माफिया, सिनेमा में राजनीति और समकालीन भारतीय दृष्टि की एक साथ बात करती है।

भारत दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाला देश है। यह भारतीय फिल्म उद्योग की ताकत ही है, जो विदेशों में भी इसके तमाम प्रशंसक हैं। तमाम तरह के ओटीटी प्लेटफॉर्म आ जाने के बाद भी इसकी चमक खत्म नहीं हुई है। इस दौर में सिनेमा के सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी भी मिले, इससे अच्छा और क्या हो सकता है।

भारत में सिनेमा और संस्कृति

अमित कुमार शर्मा

शाओलिन पब्लिकेशंस

500 रुपये

480 पृष्ठ

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