इधर कुछ अरसे से स्त्री-विमर्श और स्त्री-प्रश्नों पर कई मंचों पर सक्रिय कवि, पत्रकार विमल कुमार के संपादन में ‘साहित्यकारों की पत्नियां’ विरला संग्रह है, जो आधा आकाश जैसी शून्यता को भरने की कोशिश करता है। यह स्त्री-विमर्श में नया अध्याय जोड़ता है। बहुत देर में कुछेक साहित्यकारों की पत्नियां के साहित्यिक-बौद्धिक रुझानों और कृतियों के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारियां बाहर आना शुरू हुईं और कई अध्येताओं के परिश्रम से यह भी खुला कि उनकी साहित्यिक प्रतिभा भी बेजोड़ थी, लेकिन पति की महिमा में उनका योगदान कहीं जैसे खो गया या ध्यान देने योग्य नहीं समझा गया। ऐसे में, विमल कुमार ने 47 प्रसिद्ध साहित्यकारों की पत्नियों के जीवन और कृतित्व पर जानकारियां मुहैया कराके नया आकाश खोल दिया है।
हमें यह तो मालूम है कि महाकवि तुलसीदास की पत्नी रत्नावली की काव्य में गति थी और किंवदंती के अनुसार उन्हीं के दोहे ‘अस्थि चर्म मम देह मय, तामे ऐसी प्रीति, होति जो राम मह, होति न तउ भव भीति’ की प्रेरणा से तुलसी तुलसीदास बन गए। कम लोग जानते हैं कि उनकी रचनाओं में भाषा-काव्य-कसौटियां भी कसी हुई थीं। मसलन, ‘रतन प्रेम डंडी तुला पला जुड़े इकसार, एक बार पीड़ा सहै एक गेह संभार।’ उनके बारे में लेखिका शुभा श्रीवास्तव कहती हैं, “मध्यकाल की स्त्री रचनाकारों में रत्नावली का स्थान ऊंचा था पर जहां स्त्री साहित्य ही विलुप्त है, वहां हम रत्नावली को कहां देख पाएंगे। कविगुरु रवींद्र नाथ ठाकुर की पत्नी भवतारणी देवी या ठाकुर परिवार में शादी के बाद मृणालिनी की बौद्घिक क्षमताएं परिष्कृत थी मगर उन्होंने पति के काम में हाथ बंटाने में ही खुद को खपा दिया।”
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने तो खुद अपनी पत्नी मनोरमा देवी के बारे में लिखा है, “जिसकी हिंदी के प्रकाश से, प्रथम परिचय के समय, मैं आंख नहीं मिला सका।” मनोरमा देवी ने ही निराला को खड़ी बोली की ओर प्रवृत किया। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी के कथा साहित्य से हाल के दौर में कुछ परिचिय हुआ। संग्रह में आचार्य रामचंद्र शुक्ल, मैथिलिशरण गुप्त, शिवपूजन सहाय, रामबृक्ष बेनीपुरी, जैनेंद्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नागार्जुन, अमृतलाल नागर, रामविलास शर्मा, फणीश्वर नाथ रेणु, विजय देव नारायण साही, नरेश मेहता, रांगेय राघव जैसे आजादी के दौर के लेखकों की पत्नियों की जानकारियां हैं। अगली पीढ़ी के नामवर सिंह, रामदरश मिश्र, कुंवर नारायण, नरेश सक्सेना, अमरकांत, विनोद कुमार शुक्ल, गिरिराज किशोर से लेकर गिरधर राठी, प्रयाग शुक्ल, वीरेन डंगवाल, शिवमूर्ति की पत्नियों के बारे में भी जानकारियां हैं।
किस्सागोई शैली में ज्यादातर करीबियों से लिखवाए गए लेख जानकारियों से भरपूर और दिलचस्प हैं। उनके त्याग और संघर्ष के साथ यह विडंबना भी जोरदार ढंग से उभरती है। विमल कुमार भूमिका में लिखते हैं, “रामचंद्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, रायकृष्ण दास आदि की पत्नियों पर किसी ने संस्मरण नहीं लिखा। हम प्रेमचंद की जयंती तो मनाते हैं लेकिन शिवरानी देवी को कभी याद नहीं करते, जबकि वे खुद अपने समय की प्रमुख कथाकार थीं। यह बात केवल साहित्यकारों की पत्नियों के संदर्भ में नहीं, बल्कि देश के महापुरुषों के संदर्भ में भी लागू होती है। इसका प्रमाण है कि पिछले दिनों केंद्र सरकार ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 125वीं जयंती मनाई तो कस्तूरबा के लिए कुछ भी नहीं किया गया, जबकि कस्तूरबा की भी 125वीं जयंती थी।”
उम्मीद यही की जानी चाहिए कि इस किताब से स्त्री-उपेक्षा की दिशा में नया पहलू जुड़े। वैसे विमल स्त्री-दर्पण मंच और पत्रिका के माध्यम से भी इस काम को आगे बढ़ाने में जुटे हैं। किताब में दिलचस्प और जरूरी जानकारियां हैं, जो आम पाठकों के साथ अध्येताओं के लिए भी संग्रहणीय सामग्री जुटा लाई है।
साहित्यकारों की पत्नियां
संपादनः विमल कुमार
प्रकाशक | मेधा बुक्स, दिल्ली
मूल्य: 300 | पृष्ठ: 240