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पुस्तक समीक्षा: समय-बोध का शंखनाद

वर्तमान की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति कविता से बढ़कर कहीं और शायद ही मिले, बशर्ते कवि सच्चाई को दर्ज करने का...
पुस्तक समीक्षा: समय-बोध का शंखनाद

वर्तमान की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति कविता से बढ़कर कहीं और शायद ही मिले, बशर्ते कवि सच्चाई को दर्ज करने का जोखिम उठा पाए। तीखी राजनैतिक संवेदना के कवि रंजीत वर्मा नए संग्रह में कहते हैं, “कवि मंगलेश डबराल को कहते सुना, कविता इतिहास का अंतिम ड्राफ्ट है।” संग्रह के इस अंतिम ड्राफ्ट में मानो हर रूप-विकृति, अत्याचार-अनाचार, दबी-छुपी फासिस्ट प्रवृत्ति को उघाड़ देने की जिद दिखती है। यह सिर्फ दर्ज करने की जिद नहीं है, कवि अन्याय, शोषण से टकराता है, चुनौती देता है और उसके खिलाफ उठ खड़े होने का आह्वान करता है, मानो युद्ध की दुंदुभि बजा रहा हो।

 

रंजीत वर्मा में सामाजिक सरोकार और उसके प्रति दायित्व-बोध इतना गहरा है कि वे खुद को भी नहीं बख्शते। वे ‘आओ मुझे गिरफ्तार करो’ कविता में कहते हैं, क्या मेरी कविता में कुछ कम कविता है/क्या मेरे प्रतिरोध में कुछ कम प्रतिरोध है/ कहां रह गई कमी मुझमें/मैं भारी बोझ से जी रहा हूं...। संग्रह पढ़ते हुए हाल के वर्षों में हुई हर घटना आंखों के आगे तैरने लगती है और पाठक का आह्वान करती है कि लहू मिलाओ तो रंग शायद चटके। ये कविताएं इतनी सघन संवेदना लिए हुए और इस कदर दो-टूक हैं कि कई बार सपाटबयानी जैसी लगने लगती हैं। लेकिन कहीं गहरे मन को विचलित कर जाती हैं। कवि होशियार करता है, हिंदुस्तान दो फाड़ हो चुका है/ एक तरफ कविता है /दूसरी तरफ नफरत है। फिर जैसे झकझोरता है, आप किस तरफ हैं?

 

कवि अपने दायित्व से इस कदर वाबस्ता है कि आगाह करता चलता है, जो हंस रहे हैं/ वे अपराध-बोध से /मुक्त लोग हैं /तुम उधर मत भटकना/बेवजह मारे जाआगे। यही दायित्व-बोध उसे मानो खुद से और काव्य-कर्म से भी सवाल करने की ओर ले जाता है। कवि हत्यारों को दंडित क्यों नहीं करता में पूछता है कवि सच सच बताना/ जब तुम्हारी कविताएं/ एकांत में पूछती हैं तुमसे/ अपने होने का मकसद /तो तुम उन्हें क्या जवाब देते हो। फिर अकेले रहकर लड़ने का वक्त नहीं है यह में कहता है, यह लड़ाई सभ्यता की अंतिम सीढ़ी तक जाती है। फिर, एक दूसरी कविता में जैसे उद्घोष करता है, कविता सत्ता से मुक्ति की लड़ाई है/ विपक्ष से मुक्ति भी इसमें शामिल है। एक और कविता में यह कहकर चौंका देता है, आपकी तमाम लड़ाई सत्ता में भागीदारी को लेकर क्यों है। वह यह भी कहता है कि हम जिसे देवता समझ/ उठाते हैं हाथों में/ वही हमारा हत्यारा निकलता है।

 

कवि सत्ता-प्रतिष्ठान को ललकारता है, लॉकडाउन में सैकड़ों मील पैदल चलने पर मजबूर हुए हजारों-लाखों मजदूरों के लिए सवाल भी करता है। संग्रह कुछ अनोखे शब्द-युग्म और वाक्यांशों से चौंकाता है। मसलन, अछोर अंधेरा, छलांग-नृत्य, उचाट सड़क, थरथराता रहा पारा आंखों में, दुख पूरे यौवन पर था। इसी तरह आपको सिस्टम से बाहर निकलना होगा, इस देश में विकास एक तरीका है /मेहनत की कमाई हड़पने का, यह जख्म आपका संसार है जैसी पंक्तियां नयापन देती हैं।

 

रंजीत वर्मा ‘कविताः 16 मई के बाद’, ‘जुटान’ के जरिये सक्रिय हस्तक्षेप भी करते रहे हैं। ये कविताएं नई संवेदना का काव्य हैं, जिनसे आज के समय की कई दबी-छुपी हकीकतें उजागर होती हैं। कुछेक कविताएं सामयिक संभावनाओं से जुड़ी हैं। कवि शिद्दत से परिवर्तन चाहता है। मगर उसके बाद यथार्थ कुछ और तरह से खुला। जो भी हो, संग्रह पाठकों को कई तरह से कुरेदता है, इसलिए भी महत्वपूर्ण है।

 

यह रक्त से भरा समय है

 

रंजीत वर्मा

प्रकाशन | परिकल्पना

मूल्य: 200 | पृष्ठ: 154

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