ऋषियों का आश्रम
बक्सर! पश्चिमी बिहार में गंगा के तट पर बसा अलसाया, शांत शहर, जो मिथकीय संदर्भों और ऐतिहासिक घटनाओं को समेटे हुए है। इस शहर को न कहीं जाने की जल्दी है न भविष्य की परवाह! माना जाता है कि विष्णु के वामन अवतार की भूमि के रूप में यह स्थल भारतीय ज्ञान परंपरा का केंद्र बना और 84 हजार सिद्ध ऋषियों का यह सिद्धाश्रम, त्रेतायुग में वामनाश्रम, द्वापर युग में वेदगर्भापुरी और कालांतर में व्याघ्रसर होते हुए बक्सर कहलाया।
बक्सर पूरब में ऐतिहासिक-पौराणिक गांव सारिमपुर और अहिरौली से घिरा हुआ है तो पश्चिम में चरित्रवन-उनाव से। उत्तर में गंगा नदी की धार है तो दक्षिण में आधुनिकता का आगाज करता बक्सर जंक्शन। ठठेरी बाजार, बड़की बाजार, नई बाजार, मछरहट्टा पुल यानी मछली बाजार, चुड़िहारी गली, गोला बाजार की स्थानीय रंगत इसे इतिहास में अमर बनाती है।
1764 का युद्ध
पूरी दुनिया में यह शहर वर्ष 1764 ईस्वी के बैटल ऑफ बक्सर के कारण जाना जाता है। ईस्ट इंडिया कंपनी के कप्तान हेक्टर मुनरो ने बंगाल के नवाब मीर कासिम, दिल्ली के बादशाह शाह आलम और लखनऊ के नवाब शुजाऊदौला की संयुक्त सेना को हराकर कंपनी के लिए राजस्व वसूली की दीवानी पाई थी। आज भी बक्सर के कथकौली में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया वह विजय स्तंभ खड़ा है। लेकिन उसी के ठीक सामने है, कुएं को पाटकर गांव वालों का बनवाया गया एक युद्ध स्मारक जिसे शहीद सैय्यद अब्दुल गुलाम और अब्दुल कादिर रहमतुल्लाह की याद में बनाया गया था। युद्ध की यहां उससे भी पुरानी एक कहानी है। प्राचीन काल में मगध की सेना चौसा के पास गंगा नदी पार करते हुए बक्सर में सिकंदर की सेना से लड़ी थी। इसके बहुत संदर्भ तो नहीं मिलते लेकिन जिस प्रकार अफगान योद्धा शेरशाह सूरी ने 1539 ईस्वी में मुगल सम्राट हुमायूं को पराजित किया उसके किस्से आज भी बक्सर की गलियों में सुनाई देते हैं।
गंगाघाटी सभ्यता
बक्सर के दिवंगत इतिहासकार सीताराम उपाध्याय बताते थे कि इस क्षेत्र में ईसा पूर्व तीन हजार साल पहले सिंधु घाटी सभ्यता की तरह गंगा नदी के किनारे गंगाघाटी सभ्यता का उदय हुआ था। यहां भारतीय ज्ञान की संहिताओं से लेकर ज्योतिष शास्त्र की रचना हुई जिसका प्रभाव एक समय बलिया से लेकर बक्सर तथा बक्सर से लेकर बनारस के घाटों तक फैला हुआ था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और आचार्य शिवपूजन सहाय की रचनाओं में बक्सर के इस प्रभाव को देखा जा सकता है। यहां एक संग्रहालय है, जो बक्सर की इस ऐतिहासिक समृद्धि का बयान करता है।
सेंट्रल जेल की रस्सी
1942 के आंदोलन में यह शहर इतना उद्वेलित हुआ कि कई लोगों ने 1764 में अंग्रेजों द्वारा बनवाए विजय स्तंभ को ढहा दिया। इसमें बद्री सिंह बागी, संन्यासी बाबा, चंद्रमा चौबे आदि जेल गए। यहां की सेंट्रल जेल में मनिला से बनी फांसी देने की रस्सी पूरे देश में मशहूर है।
पंचकोसी मेला
कहा जाता है कि बक्सर से जुड़े विश्वामित्र ऋषि और पांच कोसों की दूरी पर अहिरौली के गौतम, नादांव के नारद, भभुवर के भार्गव तथा उन्नाव के उद्दालक ने इस क्षेत्र को बनाया था। बाद में ताडका वध के बाद राम ने इन पांचों ऋषियों के आश्रमों की यात्रा की थी। तब ऋषियों ने राम को क्रमशः लिट्टी-चोखा, कढ़ी-बरी एवं पकवान, मूली-सत्तू, चूड़ा-दही और खिचड़ी खिलाई थी जो आज बिहार के मुख्य भोज्य पदार्थ माने जाते हैं। पंचकोशी यात्रा के दौरान आज भी यात्री यही व्यंजन स्वयं पकाते और खाते हैं। मेले में बनी गुड़ की जलेबी इसमें चार चांद लगा देती है। बक्सर की सोनपापड़ी का कोई मुकाबला नहीं है। सोनपापड़ी का जन्मस्थल बक्सर ही है।
आज का बक्सर
बक्सर आज भी उसी रौनक के साथ खड़ा है। शहर पुराना और धूल उड़ाता जरूर है लेकिन रामरेखा घाट पर गंगा दर्शन किसी का भी मन खुश करने के लिए काफी है। शिक्षा का केंद्र महर्षि विश्वामित्र कॉलेज खाकी बाबा की याद दिलाता है। चरित्रवन प्राचीन काल की झलक देता है, तो बगल में खड़ा त्रिदंडिस्वामी का आश्रम ज्ञान और संस्कृति का प्रसार करता दिखता है। गंगा तट पर बने बक्सर के किले की खूबसूरती मन मोह लेती है। लेकिन शहर पार कर पूरब दिशा में पटना जानेवाली सड़क पर दक्षिण की ओर नजर दिल भी तोड़ती है। यहां का बदहाल औद्योगिक क्षेत्र अंतिम सांस लेता अकेला खड़ा उन्नति की बाट जोह रहा है। कहने को तो इस शहर ने बड़े-बड़े नेता दिए लेकिन विकास के लिए सिसकते हुए इस शहर के आंसुओं को किसी ने नहीं पोंछा। रोजगार और बौद्धिक विकास के लिए पलायन करना इसकी नियति बन चुका है। यह शहर विकास के लिए आज भी तरस रहा है, भले ही यहां का इतिहास और इसकी सांस्कृतिक विरासत कितना भी समृद्ध क्यों न रही हो!
(लेखक आधुनिक भारत के इतिहास लेखन के कुछ साहित्यिक स्रोत के लेखक और शिक्षाविद हैं)