“मिठाई की दुकानों वाला मीठा सा शहर”
मिष्ठान्न-सा मीठा नगर
बिहार के उत्तर-पश्चिम में गोपालगंज, शहर से ज्यादा मिठाई की दुकान लगता है। मील गेट की जलेबी, लखरांव के प्रसिद्ध पेड़े या के. चौधरी की चाट। यहां हवा में ऑक्सीजन के साथ अलग-सी मिठास भी बहती है। गौरीशंकर की पडूकिया के तो क्या कहने। परदेसियों के अनुसार, गोपालगंज ट्रैफिक जाम में फंस कर धीरे-धीरे सरकने वाला गलियों का शहर है। लेकिन यहां के निवासी इसे प्राइवेट स्कूल के मास्टरों, बीमा कंपनी के एजेंटों और वकीलों का शहर कहते हैं। शहर में सभ्य कहलाने वालों के लिए यहां करने को चौथा काम नहीं है। या तो यहां दुकानदारी है या सवारी। राज्य के विकास में शहर को इतना ही हिस्सा मिला। छोटे शहरों को बड़े होने की सत्ता इतनी ही मोहलत देती है कि वे सरक सकें।
धड़कता गांव
गोपालगंज पूरी तरह शहर नहीं हुआ। उसकी छाती में अब भी गांव धड़कता है। अगस्त में महावीरी अखाड़ा के मेले में सुदूर देहात के लड़के लाठी-तलवार ले कर सड़कों पर उतरते हैं, तो उनमें और शहरी लड़कों में अंतर नहीं दिखता। अंतर तब भी नहीं दिखता जब दुर्गापूजा के मेले में देहात की लड़कियों की बड़ी लहर टाउन आकर शहरी लड़कियों की लहरों में घुल जाती है। जब हरखुआ चीनी मिल में जाने के लिए गांवों से गन्नों से लदी गाड़ियां मुख्य मार्ग से गुजरती हैं, तो शहर के लड़के गन्ने खींचकर चूसते हुए सिद्ध करते हैं कि उनकी आदतों में देहातीपन अब भी जीवित है। शहरों की पहचान बड़ी इमारतों से नहीं होती, बल्कि पहचान गलियों से निकलने वाले लड़के गढ़ते हैं। जेनित कोचिंग सेंटर से कमला राय कॉलेज के बीच चलते-भागते लड़के शहर की सुंदर तस्वीर बनाते हैं। उनकी हुल्लड़ पुराने बरगद के पेड़ पर सुबह शोर मचाती गौरैयों की चहचहाहट जितनी मीठी होती है। इन्हीं गलियों से निकल कर देश में फैले शहर के विद्यार्थी वापस लौटते हैं, तो बंगलिया की छेना वाली जलेबी खोजते हैं। दुर्भाग्य से उसकी झोपड़ी अब नहीं दिखती। अब वहां बड़ा मॉल है। विकास जो मूल्य वसूलता है उसे गोपालगंज ने भी चुकाया है।
किताबों से मोबाइल तक
बंगलिया की जलेबी वाली दुकान के सामने एक बाबू साहब पैंतीस-चालीस वर्षों से ठेले पर अखबार और नई पत्रिकाएं बेचते हैं। शहर का हर पढ़ाकू उनको पहचानता है। 95 में उसी ठेले से हमने पहली बार नंदन खरीदी थी। फिर सुमन सौरभ, कादम्बिनी, विज्ञान प्रगति, आउटलुक, हंस, वागर्थ, कथादेश और जाने क्या-क्या। पिछले साल बाबू साहब ने बताया कि नंदन और कादम्बिनी बंद हो गईं। यूं ही सारी पत्रिकाएं बंद हो जाएंगी और हाथ में बचेगा मोबाइल। या कहें केवल भरम बचेगा।
स्वतंत्रता आंदोलन वाली वीर भूमि
गोपालगंज की पहचान उस वीर भूमि के रूप में होनी चाहिए, जहां अंग्रेजों के विरुद्ध पहला सफल सशस्त्र आंदोलन हुआ था। 1764 में बक्सर के युद्ध में भारतीय शक्तियां (मुगल बादशाह, अवध के नवाब और बंगाल के शासक की सेना) पराजित हुईं तो यह क्षेत्र अंग्रेजों को मिल गया। तब हुसेपुर के सामंत राजा फतेह बहादुर शाही ने अपनी छोटी सेना के साथ प्रतिरोध किया और अंग्रेजों को कर देने से इनकार कर दिया क्योंकि प्रजा उनके साथ थी। उन्होंने छापेमार टुकड़ी के साथ अंग्रेजी फौज पर हमला करना शुरू किया और वर्ष भर के भीतर अंग्रेजों के सारे वसूली केंद्र बंद हो गए। अगले चालीस वर्षों तक गंडक और सरयू के बीच इस इलाके में अंग्रेजों की एक न चली। अंग्रेजी फौज इस क्षेत्र में असंख्य बार घुसी, पर हर बार छापामार टुकड़ी से हार कर भागना पड़ा। महाराज फतेह बहादुर शाही की मृत्यु के बाद अंग्रेज इस क्षेत्र में स्थापित हो सके। गोपालगंज आज भी उसी तेवर के साथ जी रहा है।
अनूठा थावे शक्ति पीठ
गोपालगंज को विशेष बनाता है चार किलोमीटर दूर स्थित सिद्ध थावे शक्ति पीठ, जहां का महंत आज भी दलित परिवार का व्यक्ति होता है। चमड़े का काम करने वाले रहसू भगत के आह्वान पर मां भगवती कामाख्या से चल कर थावे आई थीं और अत्याचारी राजा मनन सिंह का वध किया था। रहसू भगत के परिवार के लोग उस मंदिर के महंत होते हैं। गोपालगंज लक्ष्मण पाठक ‘प्रदीप’, राधामोहन चौबे ‘अंजन’ जैसे कवियों के लिए भी जाना जाना चाहिए, जिनके गीतों को यहां का समाज आधी सदी से गुनगुनाता रहा है। यहां जनता सिनेमा हॉल और चंद्रा टॉकीज में फिल्में सिल्वर जुबली मनाती थीं। देहात से फिल्म देखने आने वालों की संख्या इतनी होती थी कि हॉल में सीट के बीच बेंच डालना पड़ता था। सीट से दोगुने दर्शक बेंच पर बैठ कर फिल्में देखते थे। आज ये दोनों हॉल बंद हो चुके हैं। अब सिनेमा देखने कोई गांव से शहर नहीं आता। बीस वर्ष पूर्व तक शहर के बीच से तीन बरसाती नदियां बहती थीं, आज उन पर बड़े-बड़े मकान खड़े हैं। प्रकृति पर अत्याचार करने में गोपालगंज भी पीछे नहीं रहा पर प्रकृति जब मनुष्य की करनी का फल लौटाती है, तो वह खूब चिल्लाता है।
बाढ़ और सूखा साथ-साथ
विपरीत परिस्थितियां मनुष्य को शक्तिशाली बनाती हैं और गोपालगंज भी विपरीत परिस्थितियों से जूझता शहर है। एक ओर हर साल आने वाली सदानीरा गंडक की बाढ़ से आधा जिला डूब जाता है, दूसरी ओर आधे जिले में सूखा पसरा रहता है। यहां रोजगार नहीं है पर शहर के युवक मेहनत के बल पर देश और देश के बाहर अरब देशों में काम करके हर साल अरबों रुपये भेजते हैं। शहर इन्हीं युवकों की भुजाओं पर टिका है।
(परत और पुण्यपथ उपन्यासों के लेखक)