Advertisement

शहरनामा | जगदलपुर: “खूबियों से भरा ये शहर है मेरा”

“खूबियों से भरा ये शहर है मेरा” अपनी मस्ती में मस्त शहर इसकी तारीफ अब मैं क्या बयां करूं, खूबियों से...
शहरनामा | जगदलपुर: “खूबियों से भरा ये शहर है मेरा”

“खूबियों से भरा ये शहर है मेरा”

अपनी मस्ती में मस्त शहर

इसकी तारीफ अब मैं क्या बयां करूं, खूबियों से भरा ये शहर है मेरा। जगदलपुर (बस्तर) जीवनदायिनी इंद्रावती नदी किनारे बसा शहर है, जो छत्तीसगढ़ की रियासत रहा है। इसका इतिहास, संस्कृति और परंपराएं समृद्धशाली हैं। यहां राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव का राजमहल है जिसमें स्थित है माई दंतेश्वरी का मंदिर, जगन्नाथ मंदिर, सिरहासार भवन, रिया दरबार, माडि़़न चौक आदि। आदिवासी बहुल इलाका होने के बावजूद प्रगति ने पांव पसार लिए हैं। चौतरफा हरियाली होने से शामें खूबसूरत और नजारे आंखों को ठंडक पहुंचाते हैं। सिरहासार चौक पर कतारों में लगे गुपचुप, चाट के ठेलों पर भीड़ की चटखारेदार जुबान के अनुसार, यहां जैसा जायका महानगरों में भी नहीं। जगदलपुर ने कभी सांप्रदायिक दंगों की लपटें नहीं देखीं लेकिन अंदरूनी इलाकों में नक्सलियों के उत्पात ने भारी क्षति पहुंचाई है। ‘बस्तर की मिट्टी-पानी की तासीर ऐसी है कि जो यहां बस गया, फिर कहीं नहीं जाता।’ आधुनिकता और विकास के बाद भी मौसम का रवैया दोस्ताना है और यह दोस्ताना बाशिंदों के मिजाज में भी घुला-मिला है। पहले तो गर्मी पड़ते ही झमाझम बारिश हो जाती थी। यहां की वन संपदा और खनिजों ने व्यापारियों को ऐसा लुभाया कि अन्य राज्यों से आकर लोग यहां बस गए। अत: शहर में सभी जाति-धर्मों की बसाहट है। ग्रामीण अंचल में आदिवासी जातियां - हल्बा, भतरा, गोंड, धुरवा, मुरिया, पनका, धाकड़, महारा निवासरत हैं। जितनी जनजातियां, उतनी बोलियां प्रचलित थीं पर अब ये हिंदी बोलने लगे हैं। मोहल्लों को पारा कहते हैं जैसे नयापारा, हिकमी पारा, कुम्हार पारा।

 

नियाग्रा फॉल से कम नहीं

जगदलपुर में कई दर्शनीय स्थल हैं। तीरथगढ़ जलप्रपात 300 फुट की ऊंचाई से गिरता है जहां सीढि़यों से उतरकर तलहटी में शिव-पार्वती का मंदिर है और पेड़ों पर असंख्य बंदर उछलकूद करते हैं। जगदलपुरिया चित्रकूट जलप्रपात को ‘नियाग्रा फॉल’ से कम नहीं मानते हैं। यहां रोमांचकारी कुटुमसर और कैलाश भूमिगत गुफाएं हैं। कांगेर घाटी उद्यान वन्यजीवों की प्रसिद्ध शरणस्थली है। दलपत सागर झील में सूर्यास्त की नयनाभिराम छटा मरीन ड्राइव का आभास देती है। 600 साल पुरानी दशहरे की परंपरा अनूठा अनुष्ठान और 75 दिनों तक चलने वाला लोकपर्व भी है। दशहरा रावण वध से संबद्ध न होकर महिषासुरमर्दिनी मां दुर्गा से आबद्ध है। आदिवासियों के अनेक देवी-देवता दशहरे में आमंत्रित होते हैं और ये अपने आराध्यों की पालकी, ध्वज, छत्र और प्रतीक लेकर आते हैं। कलेक्ट्रेट परिसर और हाइस्कूल में आदिवासियों को ठहराने की व्यवस्था होती है। लकड़ी के 4 और 8 चक्कों के विशाल रथों को परिक्रमा के लिए सैकड़ों ग्रामीण खींचते हैं। भगवान जगन्नाथ के महापर्व ‘रथ यात्रा’ को बस्तर में ‘गोंचा’ कहते हैं और भगवान को तुपकी से सलामी देते हैं। बांस के पिचकारी नुमा यंत्र से मटर के दाने जैसे ‘पेंग’ (एक झाड़ी का फल) को तुपकी (तोप का लघुतम रूप) में डालकर डंडी से बलपूर्वक मारते हैं, जिससे फटाक की तेज आवाज निकलती है। बच्चों के लिए यह खेल है पर युवा भी एक-दूसरे को तुपकी से पेंग मार कर मजे लेते हैं।

 

महुआ का मंद अंग्रेजी के बराबर

प्रमुख वनस्पति महुआ के फलों से बनने वाली दारू ‘मंद’ कहलाती है, जो अंग्रेजी दारू से कमतर नहीं होती। स्ट्रांग दारू ‘फुल्ली’ और हल्की ‘रासि’ कहलाती है। ‘लांदा’ दारू चावल से बनती है। सल्फी के पेड़ से रस निकलता है, जो देर तक रखने पर नशीला होता है और ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों में प्रयोग होता है। बेवड़ों को यहां ‘मतवार‘ पुकारा जाता है। बोड़ा, बास्ता, फुटु, चापड़ा चींटी निराले स्वाद के लिए प्रसिद्ध हैं। जंगल में मिट्टी के अंदर से बोड़ा निकलता है जो आकार में छोटे आलुओं जितना होता है और 1200 रुपये किलो तक बिकता है। बास्ता बारीक कटी बांस की कोमल जड़ें होती हैं। फुटु, मशरूम की प्रजाति है। शाकाहारियों के लिए ये मांसाहार के विकल्प हैं। लाल रंग, बड़े आकार की चींटियों की चटनी बनती है जिसे चापड़ा चटनी कहते हैं और औषधीय गुणों से युक्त मानकर लोग बड़े चाव से सेवन करते हैं।

 

युवा पीढ़ी की सरगोशियां

कई साल की कवायद के बाद जगदलपुरवासियों को मिली हवाई सेवा की सौगात और छोटे से एयरपोर्ट ने रायपुर और हैदराबाद से इसे जोड़ दिया। बाहर पढ़ने और नौकरी करने वाले बच्चों को सुविधा हो गई। रेस्तरां, होटल, चौपाटी, मॉल ने युवा पीढ़ी की सरगोशियां बढ़ा दीं। 2020 में पहला डिजिटल पुस्तकालय बना और प्रसिद्ध साहित्यकार के नाम पर ‘लाला जगदलपुरी जिला ग्रंथालय’ नाम रखा गया।

 

कला और साहित्य की समृद्ध परंपरा

यहां का बेजोड़ काष्ठ शिल्प एवं धातु शिल्प बेहद सराहा जाता है। आकाशवाणी की स्थापना के साथ साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियां शुरू हो गईं। युववाणी और मधुरिमा कार्यक्रम लोकप्रिय थे, रेडियो नाटकों ने भी पैठ बना ली। दूरदर्शन केंद्र की स्थापना के बाद कलाकारों की सक्रियता बढ़ गई। गुलशेर अहमद खान ‘शानी’ के उपन्यास पर आधारित सीरियल ‘काला जल’ जगदलपुर की देन है। पिछड़े कहे जाने वाले इलाके ने हर क्षेत्र में आज अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है जो मेरे शहर के लिए सम्मान की बात है।

(लेखिका की सपना-सा लगे, संगत, आबगीना जैसी कृतियां प्रसिद्ध हैं। यहां उनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad