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जेरेनियम का फूल

अध्यापिका मारिया यीरेमोवना ने कहा कि कक्षा में एक सजीव कोना बनाना है और प्रत्येक छात्र कोई न कोई सजीव वस्तु लाए।
जेरेनियम का फूल

अध्यापिका मारिया यीरेमोवना ने कहा कि कक्षा में एक सजीव कोना बनाना है और प्रत्येक छात्र कोई न कोई सजीव वस्तु लाए। दादी ने सुझाव दिया, 'बिल्ली का भूरा बच्चा ले जाओ।Ó दरअसल, हमारे पड़ोसी की बिल्ली ने तीन बच्चों को जन्म दिया था और वह हमारे दरवाजे के नीचे रहने चली आई थी। दादी कहती हैं, हमारे पड़ोसी बड़े कठोर हृदयी हैं। उन्होंने बिल्ली को खाना देना बंद कर दिया है। उनके पास स्लाविक को देखने तक का समय नहीं हैं, तो बिल्ली की क्या बात करें। स्लाविक पूरी सर्दियां जुराबों के बगैर जूते पहकर घूमता रहता है और बावजूद इसके उसे कभी सर्दी लगती। मैं गले के दर्द से बच नहीं पाती जबकि सर्दियों में मेरी देखभाल करने वाली छह-छह आंखें हैं, पापा, मम्मी और दादी की।

पड़ोसी की बिल्ली अपने बच्चों के साथ हमारे दरवाजे के नीचे घुस गई और पापा उसके लिए प्लेट में खाना ले गए। दादी को बुरा लगा क्योंकि पापा कोई काम-धाम नहीं करते और चल पड़े पड़ोसी की बिल्लियों को खिलाने। पिताजी का डिजाइन संस्थान बंद हो गया और सब सड़क पर आ गए थे। उसके बाद उन्हें काम का कुछ जुगाड़ करना चाहिए था लेकिन पापा कुछ और करना नहीं जानते थे। मां को दोनों जगह काम करना पड़ता और फिर घर में तनातनी शुरू हो गई। भले ही मैंने यह सब सुन रखा था पर थी मैं पापा की ही तरफ।

बिल्ली को खाना दिया जरूर जाता था, पर घर में नहीं आने दिया जाता था। लेकिन बिल्ली का एक काला बच्चा चुपके से घर में घुस गया और सोफे के नीचे जा छुपा। उसे झाड़ू से निकालने की कोशिश की गई पर कोई फायदा नहीं हुआ। शाम को जब हम टीवी देख रहे थे तो वह खुद बाहर आ गया। बेखौफ  दादी के घुटनों पर चढ़ गया और घरघर मोटर चला दी। इससे घर में शांति और आराम हो गया।

सुबह मैं गालों पर तेज ठंडी हवा के अहसास के साथ उठी। आंखें खोली तो बगल में तकिये पर बिल्ली का थोबड़ा दिखाई दिया। ढीठ कहीं की! सच में। पर कर क्या सकते हैं? बिल्ली का बच्चा प्यार पाने की कोशिश करता रहा और आखिरकार हमें उससे प्यार हो ही गया। बड़ी बिल्ली अपने भूरे बिलौटे के साथ सीढिय़ों पर ही रहने लगी। इससे मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि हमेशा संवेदनशीलता काम नहीं आती है।

तो जब दादी ने कहा, 'तुम भूरे बिलौटे को जीता-जागता कोना सजाने के लिए ले जा सकती होÓ तो पापा ने कहा, 'मैं इसके खिलाफ हूं। बिल्लियों को स्वतंत्र रखना चाहिए और चूहों का शिकार करने देना चाहिए।Ó मैंने और पापा ने दादी की सलाह को नजरंदाज कर दिया। हमने कपड़े बदले और फूल की दुकान की ओर चल दिए। दुकान पर सजी-संवरी खूबसूरत दुकानदारिन थी। 'नमस्तेÓ, पापा ने उसे कहा। 'हमें जीवंत कोने के लिए कुछ जीवित वस्तु चाहिए।Ó 'सबसे बढिय़ा कैक्टस रहेगाÓ, दुकानदारिन ने सलाह दी। 'सबसे किफायती फूल है। पानी के बिना लंबे समय तक रह सकता है।Ó उसने हमारे सामने कैक्टस का एक गमला लाकर रख दिया। उसे फूल नहीं कह सकते। जीवित ढांचा, गांठदार और कांटों से भरा।

'फाइकस भी ले सकते होÓ, दुकानदारिन ने कहा। 'पर वह पच्चीस हजार रूबल का है।Ó मैं नहीं चाहती थी कि पापा असहाय नजर आएं, इसलिए मैंने झट से कहा, 'मुझे वह लाल वाला चाहिए।Ó

गमला सबसे छोटा था। फूल भी इसमें साधारण से लगे थे। आग की एक बंूद की तरह और शायद सबसे सस्ता। 'यह जेरेनियम है। आठ सौ रूबल का,Ó दुकानदारिन ने गमला हमारे सामने रख दिया। 'सिगरेट के पैकेट की तरह,Ó पापा ने मजाक में कहा। उन्हें कीमत पसंद आई और दुकानदारिन भी। मुझे पसंद आए फूल। उसकी पत्तियां बड़ी और चमड़े-सी चमकती हुई थी पर फूल बिल्कुल साधारण। चार पत्तियों वाला, मानो किसी छोटे बच्चे ने बड़े अच्छे मूड में पेंटिंग की हो। ऐसा लग रहा था कोई बच्चा सुबह उठा और खुले दिमाग से इस फूल की कल्पना करते हुए इसे बनाया हो। न कोई अतिश्योक्ति न ही मंजे हुए कलाकार की बारीकी।

पापा ने याद करते हुए कहा, 'बचपन में मेरे पास भी जेरेनियम था।Ó उनका चेहरा खास अभिव्यक्ति दे रहा था। बचपन अच्छा दौर होता है। जब बच्चे को किसी कारणवश प्यार नहीं किया जाता, उससे किसी प्रकार की उम्मीद भी नहीं की जाती। बस इतना ही कि वह सलामत रहे और बढ़ता रहे।

'जेरेनियम कितने का है?Ó शाही अंदाज में महंगे फरकोट पहनी एक मोटी-तगड़ी आंटी ने पूछा।

'यह हमारा है।Ó मैंने काउंटर से फूल उठाकर अपने सीने से चिपका लिए।

'और यह क्या है?Ó

'यह आखरी हैÓ, दुकानदारिन ने कहा।

'अफसोस। जेरेनियम कीट-पतंगों से बचाने में मदद करते हैं।Ó

मैं सोचने लगी,  खूब फायदे का सौदा हुआ है। एक तो फूल सस्ता था और आखरी भी। ऊपर से उपयोगी होने का भी पता लगा। तिहरी सफलता। मैं सड़क पर चल रही थी और एक पल भी उससे आंख न हटा पाई। पापा ने कहा, 'नीचे देखकर चलो।Ó

घर लौट कर सबसे पहले मैंने बिलौटे को बाथरूम में बंद किया ताकि वह फूल पर न कूद जाए और उसे तोड़ दे। बिलौटे को समझ नहीं कि फूल कोई खिलौना नहीं, बल्कि एक 'जीवित वनस्पतिÓ है। दुखी बिलौटा अकेला म्याऊं-म्याऊं कर रहा था। पर मैंने रहम नहीं किया। मुझे लगा इस थोड़ी-सी सख्ती से मैंने फूल को बिलौटे के संभावित अत्याचार से बचा लिया था। मैंने फूल को खिड़की पर सूर्य की रोशनी में रख दिया। फिर बर्तन में लाकर उसे सींचने लगी।

'ज्यादा मत डालना।Ó दादी ने चेताया। 'उसका दम घुट जाएगा।Ó

मैं डर गई और रात को भी बिस्तर से कूदकर जांच-पड़ताल की कि मेरा फूल जिंदा तो है न। सुबह देखा सूर्य की रोशनी तेज हो गई थी। उसकी पत्तियां और मखमली हो गई थीं। उससे एक अलग तरह की खुशबू आ रही थी। जिसकी तुलना नहीं हो सकती थी। मैंने उसे लंबी सांस लेकर संूघा, फिर सांस छोड़ दी। यह प्रक्रिया कई बार दोहराई।

'मुझे लगता है यह पागल हो गई हैÓ, मां ने मेरी हरकत से निष्कर्ष निकाला।

'कोई बात नहीं, यह प्रक्रिया सांस लेने में होने वाली तकलीफ  या संक्रमण में उपयोगी है। 'मसलन यह जुकाम भी ठीक करता हैÓ, दादी ने कहा।

'जब उसे इतना ही पसंद है तो क्यों न अपने पास ही रख लें?Ó मां ने सुझाव दिया।

'यह गलत है। वह चीज देने की हिम्मत होनी चाहिए जो खुद को पसंद हो।Ó पापा ने आपत्ति जताई।

'पहले अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए, फिर चौड़े होकर नसीहत देनी चाहिए।Ó दादी बुदबुदाईं।

मुझे फूल देने का दुख था और पापा को भी। मैंने कहा, 'मैं उसे जीते-जागते कोने के लिए ले जाऊंगी और पूरी कक्षा उसे देखेगी। एक साथ देखने में वही मजा आता है जो संग्रहालयों में चित्रों को देखने से।Ó

पौने नौ बजे मैं स्कूल चल दी। हमारा स्कूल यार्ड प्रागंण में ही है, इसलिए मेरे साथ कोई नहीं जाता। मैं चल रही थी और नीचे अपने पैरों की तरफ  देखती जा रही थी ताकि ठोकर न लगे और फूल पर न गिर पडंू। मध्य अक्टूबर था पर गर्मी थी। गर्मियों के मौसम की तरह ही स्कूली बच्चे जैकेट के बगैर एक जैसी यूनिफॉर्म में स्कूल के सामने इक_े थे। सबसे ऊपर बोरका कारपोव दिखाई पड़ रहा था। बोरका कारपोव, वही बेवकूफ सा। अपने वृद्ध मां-बाप का इकलौता बेटा था। उन्होंने कभी उसे रोका-टोका नहीं था बल्कि सिर चढ़ा रखा था। मुझे नहीं पता सिर चढ़ाना क्या होता है पर सोचती हंू, कुछ तो गलत होता है। बोलता कैसा है। उसके लंबे-चौड़े  हाथ और पैर किसी अच्छे काम के लायक नहीं थे। दूसरे बच्चे छोटे कद के थे और सब एक सामान्य कमरे में समा जाते थे। जब उन्होंने मुझे फूल सीने से चिपकाए हुए देखा तो इधर-उधर भागना बंद कर सीधे खड़े हो गए और चुपचाप इंतजार करने लगे कि मैं कब आऊंगी। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैं रूक गई और उनकी तरफ  देखने लगी। घंटी बज गई। मुझे लगा घंटी बजते ही सभी अपनी जगह से हिलेंगे लेकिन लड़के ज्यों-के-त्यों खड़े रहे। 'तुम भी डर रही हो क्या?Ó मैंने अपने आपसे पूछा और स्कूल गेट की तरफ  चल दी। बच्चे एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े थे और मैं उनके बीच से छोटे से कॉरीडोर में घुस गई। कुछ मायूसी छाई थी जबकि सब ठीक था। मैं एक के बाद एक कदम रखती जा रही थी। आखिरी कदम बचा था और मैं गेट के उस तरफ  पहुंचने वाली थी। बस उसी क्षण बोरका कारपोव ने दो हरकतें कीं। उसने अपना बैग अपने सिर के ऊपर उठाया और उसे मेरे फूल के ऊपर...। गमला हाथ से छूट गया और टूट गया। मिट्टी बिखर गई और फूल का ऊपरी लाल सिरा उड़ गया।

मैं जड़ हो गई। कुछ समझ नहीं आया कि उसने ऐसा क्यों किया। बस इसलिए कि दूसरों को आनंद आए? पर कोई हंसा भी तो नहीं। दूसरी घंटी बजने लगी। सब स्कूल की तरफ  भागे। पर मैं मुड़ गई और अपने घर की तरफ  लपकी। ऐसे करते हुए गाड़ी के नीचे आते-आते बची। ड्राइवर ने समझदारी दिखाई। उसने तेजी से ब्रेक मारी और मेरी ओर मुक्का बांधकर लहराया। मैं अपने आंसुओं को रोक नहीं पा रही थी। मुझे हताश देख दादी को भी धक्का लगा। उनका चेहरा उदास भेड़ की तरह लटक गया। धीरे-धीरे मैं थोड़ी सामान्य हुई तो बोरका और उसके कारनामे के बारे में बताया। गाड़ी की बात दबा गई वरना पापा सहित सभी मुझ पर पागलों की तरह टूट पड़ते।

पापा ने सब सुनने के बाद कहा, 'मैं उसके कॉलर के अंदर कांच का बुरादा डाल दूंगा।Ó फिर मैंने रोना बंद कर दिया। वह खुजली करता रहेगा और परेशान होता रहेगा। खुजली और परेशानी। यह कम है पर कुछ तो है न। कुछ न करने से तो यही अच्छा है कि वह खुजली करे।

'आप बुरादा कहां लाएंगे?Ó

'निर्माण स्थल से। वहां जितना चाहो, मिल जाएगा।Ó

रात को मैं सोई नहीं और यही सोचती रही कि कैसे कांच का बुरादा खाल में चुभेगा और बोरका जमीन पर लोट-पोट करेगा। दर्द से चीखेगा और दया की भीख मांगेगा।

लेकिन पापा निर्माण स्थल पर नहीं गए और इतना वक्त गुजार दिया कि तब तक बोरका के मां-बाप ने दूसरी जगह मकान खरीद लिया। बोरका भी हमेशा के लिए हमारे स्कूल से चला गया। इस तरह फूल की हत्या का बदला लेने की हसरत दिल में ही रह गई। मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और अंकों के मामले में पांच में से तीन (औसतन) अंकों पर ही अटकी रही। सिर्फ  साहित्य में पांच अंक आते। इसके अलावा खेलकूद, दोस्ती और मौज-मस्ती उसी तरह जारी रही। कुछ नहीं बदला, पर जहन में जिंदा रहा, वह मरा हुआ फूल।

मैंने अर्थशास्त्र पढऩे के लिए विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। हालांकि मैं भाषा विभाग में दाखिला चाहती थी। लेकिन मां ने कहा अर्थशास्त्र भविष्य का विज्ञान है और बाजार में भाषा-शास्त्र की किसी को जरूरत नहीं। मैं तोल्या नाम के लड़के से अक्सर मिलती हूं। हालांकि तोल्या नाम मुझे जरा पसंद नहीं। मानो नाम नहीं, कोई खंभा हो। अनातोली नाम बेहतर लगता है। पर यह स्तालिन के घर के स्तंभों की तरह सजा-धजा लेकिन नीरस लगता है। पर चलो नाम तो नाम ही है। तोल्या खुद मुझे परेशान कर देता है। वह सीधा-सादा है लेकिन मुझे असाधारण और टेढ़े लोग ज्यादा पसंद हैं। सामने अनंत सीमाओं वाला मैदान है, ऊबाऊ पेशा और ऊबाऊ जिंदगी ने मेरे भविष्य को असंतुलित कर दिया है। मेरी धारणा है कि प्रकृति में विनाशक और निर्धारक दोनों तरह के तत्व मौजूद हैं। मुझे हमेशा यही शक रहा कि मेरी तरक्की का विनाश स्कूल में उसी सुबह शुरू हो गया था जब बोरका कारपोव ने अपना बस्ता जेरेनियम के गमले पर गिरा दिया था। मैं दंग रह गई थी, सुन्न पड़ गई थी और उसी क्षण काले देवदूत ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपनी ओर खींच लिया था। तभी सब कुछ तय हो गया था और अब तक ऐसा ही चल रहा है। हालांकि मेरी बड़ी-बड़ी आंखें हैं, सीधी पंक्ति में चमकते दांत और फ्रांसीसी सौंदर्य प्रसाधन हैं। मेरे चेहरे पर चमक है और मैं सुगंध बिखेर रही हूं। बस! बाकी सब बेकार की बातें हैं।

आज 31 दिसंबर है। नया साल। मैंने तोल्या के साथ मेट्रो में मिलने और कंपनी में जाने का वादा किया था। हम मिले। तोल्या के सिर पर ठीक झीरोनोव्स्की की तरह ठोस पट्टी वाली टोपी थी। ऐसी ही टोपी रोमानियाई कुली सर्दी की शुरुआत में पहनते थे। मैं हताश हो गई। तोल्या के शरीर से निरुत्साही ऊर्जा निकल रही थी, जैसे किसी बड़े शहर में घना कोहरा छा जाता है। 'मैं नहीं जा रही।Ó मैंने कहा, 'मुझे घर जाना है।Ó

'क्यों?Ó, तोल्या अवाक रह गया।

'क्योंकि नया साल है, पारिवारिक त्योहार है।Ó

'और तुम बुड्ढों के घर लौट रही हो?Ó

बुड्ढे यानी कि दादी, बिल्ली, पापा और मां। 'हांÓ, मैंने कहा, 'मैं वापस जाऊंगी।Ó

मेट्रो के पास फूलों का छोटा सा बाजार फैला था। मैं एक काले आदमी के पास गई और उससे एक गुलाब खरीद लिया। मैंने कितने पैसे दिए नहीं बताऊंगी। बहुत सारे दिए। मैं घर की तरफ  जाते रास्ते पर चल दी। अपने लिए जो-जो मुझे पसंद हैं, वह सब मैं खुद खरीदती हंू। मैं यह भी जानती हंू कि ऐसा ही हमेशा होता रहेगा।

घड़ी में रात के 11 बजे थे। इस समय लोग शराब का असली मजा लेते हुए सजी हुई टेबल के इर्द-गिर्द बैठे रहते हैं। पुराने साल की विदाई की तैयारी में लगे होते हैं। मैं बस में बैठी हंू, जहां मेरे अलावा सिर्फ  वाहन चालक है और एक हताश लड़की, जिसका बाहरी रूप कैक्टस जैसा प्रतीत हो रहा है। उसके हाथ में बैग है। शायद छुट्टियों का सदुपयोग वह खेलने के लिए करना चाहती थी। मेरे हाथ में गुलाब था, गहरे लाल रंग का मखमली मानो अभी-अभी कली से निकलकर अपने सौंदर्य पर इतरा रहा हो। मैं गुलाब को चेहरे के पास ले आई और हम एक-दूसरे को संूघने लगे क्योंकि खुशबू दोनों में थी।

एक स्टॉप से बस में एक सैनिक दाखिल हुआ। वह खंभे की तरह लंबा था। बड़े-बड़े हाथों और पैरों वाला। वह ठंड से जमा हुआ लग रहा था और फिर धीरे-धीरे पिघलने लगा। उसकी नाक बहने लगी। अजीब-सी नाक थी उसकी, मानो चेहरे के बीच में नहीं बल्कि गाल पर गिर आई हो। हो सकता है किसी ने उसकी नाक तोड़ दी हो। शायद सीधे मुक्के से मारा होगा। यह भी हो सकता है कि नीचे गिराकर उसके चेहरे पर लातें बरसाईं हो। फौज में ऐसा होता है। फौजी बैठ गया। खिड़की के कांच पर सांस की भाप डालकर साफ किया और अंधेरे में झांकने लगा। बीच-बीच में वह अपनी उंगलियों पर फूंक भी मारता था। मैं उसे एकटक देखती रही। उसके हाथों के बीच झुके हुए सिर के बीच जाना-पहचाना अक्स नजर आ रहा था। मैं भ्रम के इस धुंधलके में उस चेहरे को पहचानने की कोशिश करने लगी। तभी अचानक एक सिरा पकड़ में आ गया और मैंने पहचान लिया, 'बोरका! बोरका कारपोव! सचमुच वही है! स्कूल की पढ़ाई के बाद फौज में चला गया था। मेरे बदले शायद किसी ने उसे चोट पहुंचा दी थी। इतने साल मैं इस इंसान से मिलकर इसे अपमानजनक अपशब्द कहने के सपने देखती रही। मैंने इन अपशब्दों की भरपूर तैयारी भी की थी। लेकिन वे अपशब्द तो दूसरे बोरका के लिए थे। सुंदर और बेशर्म बोरका के लिए, मनमौजी बोरका के लिए। इस लंबे, ओवरकोट में लिपटे सौम्य लेकिन बेचैन बोरका के लिए नहीं। उन दिनों मैं चाहती थी कि उसे खुजली हो और वह परेशान होता रहे। शायद वह परेशान रहा होगा और बेचैनी में जमीन पर लोट-पोट भी कर चुका होगा। पर इस अहसास से मुझे जरा-भी खुशी नहीं हुई। मेरे अंदर का खालीपन बढऩे लगा और हमदर्दी भी।

मैं उसकी तरफ  गई और कहा, 'नमस्ते।Ó

बोरका ने मेरी तरफ  चेहरा घुमाया। अपने सामने एक सुंदर लड़की को फूल के साथ देखकर ऐसे चौंका जैसे कैलेंडर में यह सब देख रहा हो। वह उलझन में पड़ गया और चुकंदर की तरह लाल हो गया।

'नहीं पहचाना?Ó मैंने पूछा।

हम सालों से नहीं मिले थे। इस बीच मैं एक किशोर लड़की से युवती में परिवर्तित हो गई थी। ठीक वैसे ही जैसे मेरे हाथ में कली से निकला ताजा गुलाब था। इस अहसास का सिर्फ  अंदाजा ही लगाया जा सकता है और बोरका अंदाजा भी नहीं लगा सका।

'तुमने मेरा फूल तोड़ दिया था।Ó मैंने याद दिलाया।

'कौन सा फूल?Ó

उसे वह सुबह और जेरेनियम वाला गमला याद नहीं हैं। मेरी जिंदगी के लिए जो घटना एक हादसा बन गई थी, उसे वह घटना तक याद नहीं। मानो कुछ हुआ ही नहीं था।

'तुम बोरका कारपोव हो?Ó

'हांÓ, उसने कहा। 'तो?Ó

'कुछ नहीं। नया साल मुबारक हो।Ó मैंने उसकी तरफ  गुलाब बढ़ा दिया। पता नहीं क्यों। बस बढ़ा दिया। वह अवाक रह गया।

बोरका ने फूल नहीं लिया। वह हैरानी से मुझे देखता रहा। मैंने फूल उसके घुटनों पर रख दिया। जैसे किसी स्मारक पर रखते हैं। मेरा स्टॉप आ गया था। मैं चुपचाप उतर गई। न दौड़ी न कूदी। बस उतर गई। बोरका ने मुझे साफ  की हुई खिड़की से देखा और अचानक पहचान गया। उसकी आंखें मुझे पहचानते ही चमक उठीं और खूबसूरत हो गईं क्योंकि उनमें कुछ अर्थ और खुशी नजर आ रही थी। अब उसकी चपटी नाक उसके चेहरे को शूरवीर बना रही थी और जवान बेलमोंदो के चेहरे से मिलती-जुलती लग रही थी। बस आगे चल दी। अलविदा मेरे काले देवदूत, मेरी बेकार की निराशाएं अलविदा। अलविदा मेरे खूबसूरत गुलाब जितना हो सके जियो।

घर पर पापा, मां, दादी और बिल्ली ने मेरा स्वागत किया। वे हैरान हुए पर खुश हो गए। हम पुराने साल को खुशी-खुशी विदा करने में सफल रहे और नए साल पर राष्ट्रपति का स्वागत भाषण भी सुन सके। राष्ट्रपति बड़े नपे-तुले शब्दों में स्पष्ट बोल रहे थे। सुंदर से सूट में उनके बाल करीने से संवरे थे और लग रहा था वह असफल नहीं बल्कि भाग्यशाली व्यक्तित्व थे। वह कुछ भी करने में सफल रहे और इसका मतलब यह था कि हम भी वैसा ही कर सकते हैं। घड़ी का घंटा बज उठा। हमने गिलास उठाया और एक साथ चिल्लाए, 'उरा।Ó बिल्ली ने भी अपनी मोटर चालू कर दी और इस तरह गाने लगी मानो जिंदगी बहुत खूबसूरत है। इतनी भागम-भाग और अनजानी निर्दयता के बावजूद।

(मूल रूसी भाषा से अनुवाद: डॉ. किरण सिंह वर्मा। डॉ. वर्मा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के भाषा विभाग में रूसी भाषा की प्राध्यापक हैं।)

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