वह ऐसा दिखता था या नहीं पर उसके दोस्तों ने उसके दिमाग में भर रखा था और खुद हर्षवर्द्धन को भी ऐसा लगता था कि उसकी शक्ल सन्नी देओल से मिलती है। वह दौर कुछ ऐसा ही था जहाँ सबने कोई न कोई हीरो खुद पर ओढ़ रखा था। हर्ष बाबू घायल से घातक, इम्तिहान, लुटेरे, हिम्मत, क्षत्रिय, विश्वात्मा तक के सन्नी देओल के एक-एक शब्द चबा चबाकर पचाए हुए थे। लड़कों से झगड़े में उसके गुस्से का ताप और बालों का स्टाइल भी नेचुरली सन्नी देओल वाला ही था। उधर हमारे छोटे से जिले में लड़कियों में ममता कुलकर्णी, सोनाली, रवीना, करिश्मा में कंपटीशन था।
हर्ष में एक और खास बात थी। वह कैसेट्स खूब खरीदता था और रिकॉर्डिंग भी खूब करवाता था। हमारी दोस्ती का एक सिरा इससे भी जुड़ता था कि उससे गाहे-बगाहे कैसेट्स उधार लेकर सुने जा सकते थे। आनंद उसका जॉनी लीवर हुआ करता था। इन दोनों ने साथ रहते हुए चुपके से जिस चतुराई से कुछ गुल खिलाए हैं, उस हिसाब से इन्हें मोसाद, रॉ, एफबीआई जैसी एजेंसियों में सीधे बहाल किया जा सकता था। उन दिनों गणित के हमारे एक शिक्षक हुआ करते थे, जो कड़क धोती कुर्ता पहनते और कम-से-कम तीन हाथ का दुख हरण लेकर ही क्लास में आते। खान सर तो आज इंटरनेट सेंसेशन बने हुए है पर हमारे गणित वाले उन सर के क्लास की कायदे से रिकॉर्डिंग कराके आज इंटरनेट पर डाल दी जाती तो निश्चित ही वह तूफानी वायरल हो जाती। वह गणित को भोजपुरी-हिंदी अंदाज में पढ़ाया करते। पर हम अस्सी छात्रों की संख्या वाली कक्षा में छिहतर से अस्सी तक गिने जाने वाले हम पांचों दोस्त नियम से हर क्लास में उनसे पिटते। हमारा बीटेक वाला पंकज कहता है कि मैथ वाला मास्टर जी हम सबको ऐतना पीटा है कि एक लंबे अरसे तक हमारा मोरल हाई न हो सका। गणित की कक्षा का सबसे बड़ा पीटउर (मार खाने में उस्ताद) महेश, मास्टर साहब के लिए 'दिल' फ़िल्म की एक पैरोडी बनाकर गीत गाता था- "जी चाहता है तुझको जला दूँ, मौत को तेरे गले से लगा दूँ।" - लेकिन पेड़ कटते रहे पर कुल्हाड़ी को कहाँ फ़र्क पड़ने वाला था।
क्लास में रोज-रोज की ऐसी छड़ीदार हौसलागिराई मार से बचने के लिए हमने एक आईडिया निकाला । क्यों ना मास्टर साहेबवा के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया जाए। वह अपने यहाँ ट्यूशन पढ़ने वालों को नहीं मारते हैं। बस फिर क्या था, हर्षवर्द्धन को यह जिम्मेदारी सौंपी गई। उसके बड़े पापा शुगर मिल में लेबर अफसर थे और जिसकी जेबखर्ची से हमारी भी फिल्मों का काम यदा-कदा चला करता था। उसको टेस्टिंग के लिए भेजा गया। रिजल्ट आश्चर्यजनक निकला। अगले दिन ही केवल सतहत्तर से अस्सी तक वाले पिटे, छिहतर साफ बचा। वह अब डि-क्लास हो गया था।
लेकिन खरबूजे को रंग दिखाना ही था, कितने दिन रामनामी ओढ़े रहता। उस रोज घर से ट्यूशन फीस के पचास रुपये मिले। उन दिनों जनता सिनेमा का ऑडियो सिस्टम दुरुस्त होकर स्टीरियोफोनिक बना था और वहाँ राजा बाबू, आ आ ई, उ ऊ ओ वाली खटिया सरकाउ ट्यूशन से हिट हुए पड़े थे। पर राजा बाबू तो देखे जा चुके थे। हर्षवर्द्धन को तब करिश्मा कपूर बस हीरोइन भर या कहें कि सिनेमा में फिलर भर ही लगती थी। वह तो भला हो मनीष मल्होत्रा और 'राजा हिंदुस्तानी' फिर बाद में 'दिल तो पागल है' का, जो करिश्मा कपूर हर्ष बाबू को देखने लायक हीरोइन लगी। बहरहाल, जनता में अब 'इंसानियत' लगी थी और मायापुरी मिजाजी हर्ष को यह फ़िल्म देखनी थी, कहावत है- चोर का संघाती तेलहा, सो आनंद पाण्डेय ने युक्ति दे दी। वैसे इंसानियत में सोनम भी थी और जया प्रदा के हिस्से 'साथी तेरा प्यार पूजा है' जैसा नब्बे का करेजा गीत था पर स्कूल से बाहर अगर कोई हर्षवर्द्धन के दिल में उतरी थी, वह रवीना टण्डन थी और इस फ़िल्म की खासियत थी कि हर्ष बाबू की शक्ल वाला हीरो सन्नी देओल रवीना के अपोजिट था। तो यह मामला संगीन वाला था। अब फ़िल्म देखना अत्यंत जरुरी था।
मैथ्स वाले सर के ट्यूशन फीस के पचास रूपये में से बालकनी के दो टिकट लिए गए - कीमत सात-सात रुपये और एक रुपया साइकिल स्टैंड का पार्किंग चार्ज। रवीना ने लाल ड्रेस में गाना शुरू किया 'लाल कगरी वे मेरी लाल कगरी, रंग जिसका है लाल, जैसे गोरी के हो गाल, जब लचके कमरिया दे दे संग ता दिल आशिकों का हलाल कगरी' तो इधर बालकनी में बैठा हमारा स्कूल से बंक मारके निकला सन्नी देओल का पानी मिले रूप वाला किशोर नायक खुद में शरमाते इतराता रहा, वह सीट पर बैठे-बैठे मन ही मन रवीना को बता रहा था कि 'ओ तेरे कगरी के मोतियों में, ऐसी है चमक, जब मारे लश्कारे, लोग गिर-गिर जाएं, कभी किसी का ना करे ख्याल, लाल कगरी रे तेरी लाल कगरी'- भाड़ में जाए त्रिकोणमिति, भाड़ में जाए मास्टरजी का तीन फीट्टा दुख हरण। अब रवीना क्लास और स्कूल के बाहर जनता सिनेमा में थी और उल्लास में हमारा सन्नी ट्यूशन फीस लुटा रहा था। उस गीत के साथ वह सीट पर बैठा पर्दे में समाया हुआ था।
नब्बे के गीतों और सिनेमा की जो दीवानगी हर्षवर्द्धन की रही है मुझे लगता हूँ कि अगर यह सिनेमाई दौर संघ लोक सेवा आयोग का पेपर होता तो वह यूपीएससी टॉपर हो जाता। वह कुमार शानू उदित नारायण अलका याग्निक आदि के गीतों के कैसेट्स भरवाने और उन गीतों को लाइन ब लाइन कंठस्थ करने में उस्ताद था।फ़िल्म पूरी हुई, अगले दिन मास्टर साहब को पैंतिस रुपये सिर झुका कर दिए गए। पक्ष में यह दलील दी गयी कि "अभी इतने ही रुपये घर से मिले हैं आप एडजस्ट कर लीजिए सर, अगली बार पूरा कर देंगे।"- वैसे डी.ए.वी उच्च विद्यालय के सन्नी देओल भूल गए कि वह रवीना के फैन थे तो गुरुजी भी अमिताभ के जबरा फैन थे। फिर हर्षवर्द्धन बाबू को उस रोज यह मालूम चला कि जिस रोज हम तीनों दोस्तों से गद्दारी करके वह आनंद के फ़िल्म देखने गए थे, उस रोज स्कूल में गणित के मास्टर साहब ने पढ़ाया ही नहीं था बल्कि वह भी छुट्टी पर थे। कारण यह कि उस रोज उनकी सलहज और साले आये हुए थे। गोपालगंज के गंजहे लोगों में शहर में रहने वाले जीजाजी से के.चौधरी की चाट और एक फ़िल्म अनिवार्यत: देखने की रवायत थी। सो मास्टरजी उसी शो में रियर क्लास में थे और दुर्भाग्य से "लाल कगरी" गुनगुनाता उनका छात्र फ़िल्म खत्म होने के बाद उनके ही सामने से बालकनी से निकला था। रंग में डूबे हर्ष बाबू को यह पता नहीं चला था पर हम सब आज तक यह समझ नहीं पाए कि मास्टरजी का क्रोध अपने ट्यूशन फीस में पंद्रह रुपयों के कम होने की वजह से था कि खुद के रियर क्लास और उस धृष्ट बालक के बालकनी में देखे जाने से। वैसे यह आज तक स्पष्ट नहीं हुआ है। पर इतना जरूर है कि इस राज से पर्दा अगले दिन तब उठा जब छिहतरवां फिर से पिटा और इस बार हमसे दो सोंटा अधिक पिटा। पर हमारे सन्नी के हथेली पर दर्द नहीं हुआ था, रवीना जो जेहन में थी। उसके लिए तो वह भरी क्लास मुर्गा भी बन सकता था।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)