(डिस्क्लेमर : यह किस्सा नब्बे के दौर का एक जरूरी सच है। हम सबने सिनेमा और संगीत बदलते देखा, अन्य सांस्कृतिक दृश्यों की तब्दीलियाँ देखीं। इतिहास के बदलते पन्नों या कहें इन्हीं बदलावों में से हमारी उम्र का प्रतिनिधि, कोई एक लड़का भी गुजरा। अब यह किस्सा है, रिपोर्ट है, दर्शन-फ़र्शन है जो भी है सामने है और हाँ! यह उसी के आँखों का बयान भी है। )
घटनाओं का क्या है? लाख एहतियात रखो फिर भी कभी भी, कहीं भी घट जाती हैं और कुछ ऐसी घटती हैं जिनका गहरा प्रभाव मन पर, जीवन पर पड़ जाता है। पंकज के साथ भी यही हुआ था। वैसे तो उसके पिताजी गाँव, जवार, रिश्तेदारों के यहाँ के शादी बारात में खुद ही जाते थे पर एक बार उन्होंने पंकज को जाने को कह दिया। यह पंकज के लिए बारात जाने का पहला मौका था। जिस तरह की घटना ने सिद्धार्थ को बुध्द बनाया, मोहनदास को गाँधी, यह बारात कुछ उसी तरह की घटना पंकज के लिए साबित हुआ। पंकज गाँव से दूर टाउन में पढ़ता था। यहाँ भी हम तीन-चार दोस्तों के अलावा उसका कोई समाज नहीं था। पड़ोस में भी वह केवल काम-से-काम रखता था। पर एक बात उसमें विशिष्ट थी। वह परम श्रेणी का जिज्ञासु था और हम यह भी जानते थे कि किसी वस्तु, घटना, तथ्य विशेष में उसकी अधिक रुचि हो जाने पर उसका मन उसकी डिटेलिंग के लिए फुरदुग्गी हो जाता था। जब उसके पिताजी का आदेश आया कि 'गोतिया के यहाँ शादी है, हम कलकत्ता से आ नहीं पाएंगे। सो, तुम जरूर चले जाना।'- तो बारात जाने के नाम से ही उसका मन फुरदुग्गी हो गया। हो भी क्यों ना, उसके लिए बारात जाने का यह पहला मौका था। अब तक उसने दूसरे हमउम्रों से अथ-बारात क़था सुनी ही थी। हालांकि गाँव में एक बार उसने अपने बगीचे में चंपारण से आए बारात में अनिल सिंह का मशहूर नाच देखा था। उस दिन उसकी शब्दावली में नाच के 'पाउटी काटना, जिलेबी छानना, बुनिया झारना' जैसे कुछ शब्द दाखिल हुए थे। डुग्गी, टिमकी के तिगिड़ तिगिड़ ढुम्म की संगत का जादू और जोकर के 'आई मिलन की रात, सइयाँ मारा ऐसा लात की भुभुन फुट गया' वाली जोकरई में उसका मन बहुत दिनों तक डोलता रहा था।
गोपालगंज टाउन में दादाजी के साथ रहने से यह मौका भी बहुत मिला नहीं था। वहाँ जीवन अधिक से अधिक स्कूल से भागकर फिल्में देखना और बाकी का ट्यूशन के अलावा साइन थीटा, कौस थीटा करते ही बीत रहा था। इस तरह के सांस्कृतिक माहौल की जानकारी शहरिया दोस्तों से नहीं पर गाँव जाने पर मुखामुखम कुछ मिल जाती थी। अब बारात जाने का योग सही मौके से मिला था। सो वह पिताजी के कहे अनुसार गाँव से अन्य गँवई रिश्तेदारों के साथ पहली बार जनता बाजार की ओर बारात गया। आज भी हर्षवर्द्धन का मानना है कि 'काश! पंकजवा उस बारात में न गया होता।'- वह अपनी उम्र के हिसाब से 'हर प्रकार के अनुभवों से युक्त' अनुभवी लड़का था। इस मामले में भी उसका अनुभव सही था। पंकज पहले से सिंसियर था पर इस एक ही बारात से वह अपनी उम्र से अधिक होकर स्कूल लौटा और बात-व्यवहार में ग्रुप का चचा बन गया था।
उन दिनों हमारी तरह के नौजवान होते लड़कों में बारात जाने का क्रेज गज़ब का था। बारात गए नौजवानों में दूल्हे के साथ माड़ो में घुसने का शौक भी खूब था। यह अलग बात है अलग-अलग इलाके की शादियों में माड़ो में एंट्री पाने का क्राइटेरिया भी अजब-गजब था। कोई गंभीर किस्म का जीजा, मामा, भैया जैसा आदमी आदेश करता - 'केवल लड़के का भाई दूल्हे के साथ अंदर आएगा','केवल कैमरा वाला एक आदमी', कोई थोड़ा उदारवादी होता तो कहता 'दूल्हे के साथ केवल दो दोस्त अंदर जाएंगे'- जैसी शर्तें आज के महानगरीय पबों में घुसने की एंट्री की नियमावली से अधिक कठोर थी। कुछ तो ऐसे में भी कुछ बारातवीर या न्योताकमाऊ द्वारपूजा में 'साजन जी घर आए' के बीच ऊपर से फेंके जा रहे बताशे की मार में ही मामला सेट कर लेते थे। पंकज का यह पहला मामला था सो अपने तईं वह भी पूरा बारात कमाने में लगा हुआ था। उसकी इच्छा माड़ो में जाने की कतई नहीं थी। हमारे ग्रुप के बारातवीर आनंदभूषण ने उसको ज्ञान देकर भेजा था कि 'असल चीज है, द्वारपूजा के समय ही जलपान का डिब्बा, शर्बत फिर पहली खेप के आज्ञा बीजे (भोज निमंत्रण) में पेट पूजा। उसके बाद सीधे जनवासे में वीडियो या नाच देखना और सो जाना। फिर लौटते हुए सबसे पहले कमांडर या टाटा चार सौ सात में आगे की सीट छेंक लेना। बाकी सब फालतू बात होती है।'- पंकज दीक्षित होकर बारात गया था। पटीदारी के छोटे चाचा की शादी थी सो बारात द्वारपूजा को चली तो पंकज भी ट्रॉली पर नाच रहे लौंडा के आगे अपनी उम्र के लड़कों के साथ खूब नाचा। लौंडा गाँव से ही था। लेकिन बारातियों में यह बात पसरी हुई थी कि रात को जनता बाजार से बंगाल की बाई जी वाला बिनाका ऑर्केस्ट्रा का कार्यक्रम होना है। उसने वहीं अपने गाँव के चितामन काका को किसी से कहते सुना भी -'एक से एक कटपीस है तीनों बाईजी। देख लीजिएगा जब नाचेगी सब न त करेंट लग जाएगा।
आय-हाय-हाय-हाय! सब नाच लौंडा भुला जाइएगा।'- फिर कहने वाले और सुनने वाले दोनों अजीब ढंग से खी-खी कर हँसे थे। उधर ट्रॉली पर लौंडा 'जिमी जिमी आजा आजा' पर पसीने से तरबतर था। जून का महीना, गर्मी और उमस के साथ मिलकर पंकज के कपड़ों में ऊपर से नीचे तक समा गया था। पर कोई परवाह नहीं, द्वारपूजा में जलपान के बाद सबको भर गिलास बर्फ डालकर रूह अफज़ा भी तो मिला। कलेजा तर हो गया। मन ही मन उसने आनंद को सराहा -'यह अनंदवा कितना बारात घूमा है? बड़ा अनुभवी है ससुरा।'
रात का भोज निपटाने के बाद शामियाने में पूरी रात बाई जी के नाच को देखने का जी हुआ। शामियाने में महफ़िल उठान पर थी। उसने देखा कि रोज सवेरे त्रिपुंड लगाकर दुआर पर ज्ञान देने वाले रघुबर चाचा कैसे बाईजी के आगे दाँत में नमरी दबाकर ऑन डिमांड 'चमक चम चमके अंगूरी बदन', 'कोठे ऊपर कोठरी मैं उसपे रेल चला दूँगी' पर लकां कबूतर हुए जा रहे थे।कंजूसी में मक्खड़ (मक्खीचूस) कहे जाने वाले उनके साले होसिला मामा दुनाली लिए लगातार अनाउंसर से जबरिया बाई जी को 'चोली के पीछे क्या है', और 'चढ़ गया ऊपर रे' से लेकर 'मेरी चोली में छप्पन करोड़' और 'चूं चूं खटिया बोले' जैसे गीतों पर नाचने का दबाव डाल रहे थे। दूल्हे चाचा के पिताजी ठाकुर बाबा भी माड़ो की जरूरी रस्मों के बाद अब जनवासे में पचास के नोटों का बंडल हाथों में पकड़े एक भूमिका में आ गए थे। अनाउंसर गीतों के बीच डांसर को जरूरी लोगों के पास जाने का इशारा कर रहा था। ये दुनिया ही कुछ और थी। उस वक़्त पंकज ने पाया कि संसार का सब ज्ञान इसके आगे मिथ्या है, यह जो दिख रहा है यह कोई और लोक है, ये चीन्हे चेहरे कोई और ही हैं। बाईजी बाबा को ओढ़नीनुमा चमकौआ कपड़ा ओढ़ा चुकी थी और रेशमी कुर्ता में से बाबा का हाथ निकल कर बाई जी के कमर पर था। स्टेज पर 'गज़ब सीटी मारे सइयाँ पिछवाड़े' बज रहा था। बाबा ने लगभग पसरते हुए सैटकिया लड़की के कमर में खोंस दिया। नोट खोंसते ही होसिला मामा के दुनाली की चीख शामियाने के ऊपर निकली। अनाउंसर ने सबको उत्साह में चिल्लाकर बताया 'ये सौ रुपया का ईनाम, मिस फलाँ को, चिलां बाबू ने ढोढ़ी में...." उफ्फ़! ये क्या था? पंकज एक अलग दुनिया में था। यही है आर्केस्ट्रा का नाच? जिसके लिए चितामन काका लड़की वाले के दुआर पर गिजबीज हो रहे थे? अभी तो कुछ महीने पहले ही इन्हीं ठाकुर बाबा ने "अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ! नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत- पढ़ाया था। समझे बबुआ ऐसे बने रामबोला तुलसीदास।" - पर यह जीवन सत्य उम्र के आधे से अधिक सफर तय कर चुके बाबा, मामा और चाचा को समझ क्यों नहीं आ रहा था? शायद इस ज्ञान को वह हम स्कूल वाले बच्चों की लिए दिन के उजाले में बचा कर रखते थे। क्योंकि यहाँ रात तो अब ऐसी साजिश का नाम लग रहा था जहाँ सब रिश्ते-नाते तिरोहित थे। पंकज ने उस रात पाया कि ये सब कोई और हैं और इनको वह नहीं जानता। इनमें से कोई नहीं जो 'रामबोला से तुलसी' बनना चाहता था। सब दूसरों से कहने की बात है। अनंदवा यह ज्ञान क्यों नहीं दिया। वह केवल रूह अफज़ा, पूड़ी, तरकारी, गाड़ी तक ही रह गया था।
कैशोर्य की दहलीज में घुसे पंकज ने यह भी देखा कि बड़ों की अगुवाई में उसकी उम्र के लोग अनाउंसर से 'सात समुंदर पार मैं तेरे' पर नचवाने से आगे कुछ कह नहीं पा रहे थे। दूल्हा और उसके संगी माड़ो में थे और इधर रात गहरी होती जा रही थी और तमाम चाचा, मामा, जीजा, फूफा टाइप रिश्तेदार और मुखिया जैसे लोग उम्र, संबंध, और मनुष्य शरीर को त्याग किसी और ही अवतार में चुके थे। सब एक से एक मर्द दिखने में व्यस्त थे। उस क्षण में गठिया से टेढिया कर चलने वाले भी स्वस्थ हो गए थे। अब तक उसने सिनेमा के पर्दे पर ही यह आइटम देखा था पर यह तो उससे भी ...। हालांकि पंकज का एक मन स्टेज पर चरंगा मछरी की तरह छलबलाती बाईजी मिस करिश्मा की ओर था पर इन बड़ों की नजरों में बुरा न बन जाए इस ऊहापोह में वह त्रिशंकु हो गया था। वह यह तय नहीं कर पा रहा था कि उसको यह अच्छा लग रहा है या बुरा। फिर बड़ो की स्थिति देख, उसने सोचा इससे बढ़िया था माड़ो में ही चला जाता। रात एक बजे से आगे सरक गयी थी और इधर स्टेज पर बड़ों ने 'मेरी चोली छोटी हो गयी' पर नोट लुटाने शुरू कर दिए थे। 'वाह बेटा! किताबें खरीदने, ट्यूशन में दाखिला दिलाने में इन्हीं बड़ों की अम्मा मर जाती है, पैसे पेड़ पर फरते हैं क्या? और देखो यहाँ लग रहा है इनके नोटों में गूलर का फूल गिर गया है'- वाह रे दुनिया।
रात के अंधेरे ने बूढों को जवान किया हुआ था और जो जवान होता फिल्मी लड़का इस माहौल में आया था वह अपने बड़ों की हरकतें देख अपनी जवानी के चौखट पर ही रुक गया था। रात के साथ- साथ लड़के के मन और उत्साह में शामियाने में छेद होना भी शुरू था। अब पंकज इस जनवासे के 'रंगारंग कार्यक्रम' में न 'इन' था, न ही 'आउट'। उस वक़्त उसको ऐसा भान हुआ गोया उसको यहाँ कोई पहचानता तक नहीं। यह अजनबी लोग हैं। वह इस कोफ्त में डूब ही रहा था कि मिस सोनिया ने स्टेज पर 'टिप टिप बरसा पानी' करते हुए वारिस मास्टर के साथ जहर बोना शुरू कर दिया था। एक आदमी ने दौड़कर एक मग पानी डांसर डाल दिया था और वारिस मास्टरवा अक्षय कुमार बना हुआ था। मोहरा! जिसके टिकट के लिए पंकज और उसके दोस्तों ने श्याम चित्र मंदिर के कॉउंटर पर मार करके टिकट लिया था और बेंच पर बैठकर फ़िल्म देखी थी। उसने मन ही मन कहा - 'साला! ये मास्टर है, हमलोगों को एडवांस मैथ, आईआईटी, मेडिकल का ज्ञान बाँचता रहता है और देखो ...इसी चाल चलन से इसका इजीनियरिंग में सेलेक्शन नहीं हुआ होगा...।'- रवीना ने ऐसा नृत्य देख लिया होता तो वानप्रस्थ चली जाती। उसके सिनेमची दोस्तों में रवीना की भरपूर इज्जत थी। पर यहाँ तो रवीना की हत्या हो रही थी। 'टिप टिप' बरसकर खत्म हुआ तो मिस करिश्मा 'सेक्सी सेक्सी सेक्सी मुझे लोग बोले' के साथ आई। पंकज अउजिया कर शामियाने के बाहर निकल आया। बाहर एक कोने में द्वारपूजा वाला लौंडा सतेन्दर लुंगी पहनकर बीड़ी पीते हुए मिस करिश्मा के नाच में समाया हुआ था। सतेंदर नचनिया उसके गाँव के पूर्वारी टोले का था। उसने पंकज को टोका - 'का हो बिद्यार्थी जी ! सेसकी सेसकी लोग बोले नहीं जम रहा है का?'- कोफ्त में पड़ा पंकज गंभीर हो गया -'ना जी! हमको शुरुवे से ई सब पसंद नहीं है।' - सतेंदर पास आ गया - 'जाने दीजिए बिद्यार्थी जी ! दु चार साल से तो हमलोग खाली परिछावन, दुआरपूजा, छठ घाट तक ही रह गए हैं। लोग को मिस सोनिया, मिस करिश्मा आ उहे सब चाहिए। जब असल माल मिल रहा है तो हमको कौन पूछता है जी।'- उसने बीच वाली उंगली निकली और कलाई को शामियाने की ओर लहराकर बोला -'अब हमारा नाच किसको चाहिए, सबको यही वाला कपड़ा उघाड़ नाच चाहिए।'- पंकज हुंकारी भरा। उसको याद आया- 'सातवां में थे, जब गाँव में जोगी चाचा के यहाँ आयी बारात में तसलीम का नाच देखे थे। वहाँ भी नाच ही था और यही चाचा, मामा,फूफा, मास्टर, जीजा सब मौजूद थे। तसलीम के नचनियों ने जब लहरा बजने के बाद 'हफ्ता में दु बार पूजालू सुके और सोमार, हो मईया थावेवाली, हो मईया रहसु वाली' गाया तो सबने उनका आँचर दु टकिया से लेकर बीस टकिया से भर दिया था। वहाँ भी 'ये गोटेदार लहँगा निकलूँ जब' से लेकर 'जाते हो परदेस पिया जाते ही खत', 'रब ने बनाया तुझे मेरे लिए' जैसे गानों के अलावा भोजपुरी के 'मेला में सइयाँ भुलाइल हमार और केहू लुटेरा केहू चोर हो जाला आवेला जवानी बड़ा शोर हो जाला'- जैसे गीत थे पर रिश्तेदारों ने स्टेज पर चढ़कर इस तरह का प्रतिभा प्रदर्शन नहीं किया था ना ही लौंडे के डांर या चोली में नोट खोंसा था। सतेंदर बीड़ी फूँक वही ट्राली पर पसरकर शामियाने में झांकने लगा था। पंकज ने एक उड़ती हुई नजर उस बावन चोंप के बड़े शामियाने में डाली। शामियाना बाहर से किसी उड़नतश्तरी की तरह दिख रहा था। अब मिस करिश्मा 'अंगूर का दाना हूँ, सूई ना चुभा देना' पर मटकते हुए फूफा के पास सट गयी थी। उस वक़्त उस नाचने वाली को घेरे रिश्तेदार दो पैरों पर खड़े तो थे पर दिख बिल्कुल चौपायों की तरह रहे थे। पंकज ने मन-ही-मन कहा - 'इनको मैं जानता ही नहीं। ये कौन लोग है? भक्क!! आज से आर्केस्टा वाले बारात में ही नहीं आऊँगा। इससे बढ़िया वीडियो दिखा देते।'- वह उस तरफ चल दिया जिधर सोने की व्यवस्था की गई थी। कुछ उम्रदराज बाराती सिर के नीचे अपना बैग और चप्पल दाबे सो रहे थे। कुछ खैनी की लेनदेन के साथ गेंहूँ की उपज इस साल कितनी हुई है और दहेज में मिले माल टाइप बतकही में व्यस्त थे। पंकज वहीं एक बिस्तर पर पड़ गया। शामियाने में पसरी उमस से उलट बाहर हवा चल रही थी। आसमान की छत पर तारे पसरे हुए थे। वह इधर सोने की कोशिश में था कि शामियाने में दो फायर और हुए। 'छत पे सोया था बहनोई, मैं तन्ने समझ के सो गई' पर सभी लहालोट हुए पड़े थे। पर स्कूल से तिकड़म लगाकर फिल्में देखने का शौकीन मन यहाँ के गीत-संगीत से ही उखड़ गया था। जबकि उसको किस म्यूजिक के बाद कौन अंतरा आएगा यह तक याद है। इतनी निष्ठा उसने संस्कृत के श्लोकों में दिखाई होती तो दसवीं में संस्कृत में फेल न हुआ होता। पर उस बारात वाली एक रात में ही उसकी देह न सही पर उसका मन कुछ अधिक ही परिपक्व हो गया था। 'किताबें बहुत सी पढ़ी' थी उसने पर अब चेहरा भी पढ़ लिया था।
बाद में, स्कूल में हर्षवर्द्धन ने सारी कहानी सुनने के बाद घोषणा की - 'अच्छा तो यह उस बारात का असर है तभी बेटा तुम में डिफेक्ट आ गया है।' - पंकज हँसा -' डिफेक्ट! सही कह रहे हो बेटा, कम-से-कम डिफेक्टेड ही सही कुछ तो हूँ। कम-से-कम चौपाया बनने से तो बेहतर है। देखना यह सबको ले डूबेगा एक दिन।'- उसकी जुबान पहले से काली थी या उस रोज हुई पता नहीं पर इसके बाद हमारी आँखों के आगे जल्दी ही कुमार शानू, उदित नारायण इत्यादि के सामने रंगीला रसिया जैसे छाती तान खड़े हुए जिनके गीत रिश्ते में इन्हीं ऑर्केस्ट्रा वाले के समधी हुए। इनका मुँह और पेट बहुत बड़ा था। इन्होंने जल्दी ही हमारा बहुत कुछ लील लिया। उनके तरीकों ने महावीरी अखाड़े के जुलूस पर भी अपना रंग चढ़ा दिया। यह भी हमारा नब्बे ही था। इसी समय हमारा भोजपुरिया समाज 'बोकवा बोलत नइखे', 'लजाई काहें खाईं अपना भतरा के कमाई' और 'अईंठ के गोरिया मारेले जम्हाई, खाई का रे' से 'जा झार के' और 'बथs ता बथsता आई हो दादा'- कहके जुड़ चुका था। शायद अब किसी में नौकरी, गरीबी, भूख, बिजली, पानी से लड़ने की इच्छा न थी। सब कुछ एक डेक और दो साउंड बॉक्स के साथ बैटरी से जुड़ने लगे थे। इनसे हर चौक, हर गुमटी गुलज़ार हो रही थी। सरस्वती पूजा से लेकर, पीड़िया तक, परिछावन से लेकर शामियाने तक यही था। हमारे समाज ने अपनी दुनिया रचनी शुरू कर दी थी। जिनको दूसरी दुनिया रचनी थी वह गांव-जिलाबदर, राज्य बदर हो रहे थे। उधर सिनेमा में खानों ने जगह ले ली थी और नाच में बंगाल और मुजफ्फरपुर की ओर से आई बाईजी के ऑर्केस्ट्रा ने। बाकी बचा लोक तो उसके लिए कहा न ! रंगीला, रसिया जैसे दर्जन भर गायक 'मारे सटासट' और 'सात आइटम', 'सइयाँ फरलके पर' से हमारे लोगों का 'प्यार' पाकर खुद ही डायमंड और जुबली स्टार बन गए थे। सतेंदर जैसे अनेक लोग मजबूरन या तो इस नए ढब में सेट हो गए थे या तो नाच-गाना छोड़ ठेकेदारों के साथ दिल्ली, नोएडा, गुड़गांव,मुम्बई निकल गए या अरब कमाने जाने के लिए पासपोर्ट बनवाने लग गए थे। सब से बड़ा सच पेट ही तो है तो जिंदा रहने के लिए यह जरूरी भी था। एक रोज सतेंदर ने गाँव में पंकज को कहा था - 'बिद्यार्थी जी, अब अरब जाकर कमाएंगे। पासपोर्ट लग गया है।'- 'और नाच ?' - वह मुस्कुराया - 'तेरी दुनिया से होके मजबूर चला'- बड़ी तेजी से बदलाव हो रहा था। कुछ नया हो रहा था और पुराना शिफ्ट। उदारवादी दौर था। यह भी नब्बे ही था और ये किस्सा केवल एक पंकज का नहीं था, हम सब भी तो इसी समय में गुजर रहे थे। तब क्या पता था यह नया बीज, बरगद बन हमारे आसपास मजबूती से उग जाएगा। गाँव वाले ठीक कहते हैं कि बरगद के नीचे कुछ सार्थक कहाँ फलता है। पंकजवा की आशंका भी सही थी, सब डूबेगा इस में। कौन कहता है कि ज्ञान केवल किताबों से मिलता है और कौन कहता है कि केवल टाइटैनिक ही डूबा था...।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)