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उपन्यास अंश - फांस

सुप्रसद्धि कथाकार संजीव का नया उपन्यास फांस समर्पित है, सबका पेट भरने और तन ढकने वाले, देश के लाखों किसानों और उनके परिवारों को जिनकी हत्या या आत्महत्या को हम रोक नहीं पा रहे हैं। फांस संजीव द्वारा किसान आत्महत्या पर केंद्रित अनेक वर्षों के शोध का परिणाम है। फांस खतरे की घंटी भी है और आत्महत्या के विरुद्ध दृढ़ आत्मबल प्रदान करने वाली चेतना और जमीनी संजीवनी का संकल्प भी। जल्द ही यह उपन्यास वाणी से प्रकाशति हो रहा है। पेश हैं उपन्यास अंश :
उपन्यास अंश - फांस

इस बीच एक खबर विदेश की।

फकत आठ घंटे के समयांतराल पर स्विट्जरलैंड में वंदना...।

जाने कब तक वह अपने भीतर के अरण्य में ही भटकती रही। कोई ई-मेल आया था और बिज्जू उसे विजुअलाइज कर रहा था! यहां इतनी दूर से।

इंटरलोकन से बासल तक की इस यात्र के दरम्यान ट्रेन की कांच की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से आल्प्स की पर्वत श्रृंखला पर नजर गड़ी हुई थी उसकी, कहीं हरा कोट तो कहीं काला कत्थई रंग का ओवर कोट पहने आल्प्स। कहीं पहाड़ के सीने से फूटते झरने, तो कहीं सैलानियों को पहाड़ों पर ले जाते फोनी कूलर। कितना सुंदर है आल्प्स, ऊपर चोटी बर्फ से ढकी हुई जैसे चांदी का मोर मुकुट हो। ऊपर से गिरते झरने, छोटे-छोटे नन्हे फूलों की घाटी। सब कुछ इतना मोहक था कि समय को जैसे पंख लग गए हों। वह खुलकर हंसी, पहली बार यह अहसास हुआ कि कितना जरूरी था उसके लिए खुलकर हंसना। वह सोचने लगी, 'क्यों नहीं हंस पाती वह अपने घर में, बासल में।’ इस खूबसूरत शहर इंटरलोकन की खूबसूरती ने उसे इतना स्वस्थ कर दिया था कि अब वह तनिक तटस्थ भाव से सोच सकती थी, भारत में मरते किसानों और स्विट्जरलैंड में बढ़ती आत्महत्याओं पर। स्विट्जरलैंड के बीच क्यों बीच-बीच में उभर आता है भारत?

इस अपूर्व खूबसूरती के बीच भी भला कोई सोचता है मौत के बारे में? नहीं, वह मौत के बारे में नहीं, जिंदगी के बारे में सोचेगी। वह उन नीले फूलों के बारे में सोचेगी जिसके लिए उसके भारतीय दोस्त ने कहा था कि उसने ऐसे गहरे रंग के नीले फूल कहीं नहीं देखे। उसकी अमेरिकन दोस्त लूसी इसे फूलों का देश कहती थी। यहां की नैसर्गिक सुंदरता से भी शायद इस देश को संतोष नहीं, कितने सुंदर, कितनी तरह की पत्तियों वाले पेड़, उसे तो नाम भी नहीं पता। इस सुंदरता को भी और सुंदर बनाने के लिए पेड़ों को भी ऊपर से ट्रिम कर दिया गया है। पता नहीं, बिज्जू ने तुलसी की यह चौपाई बताई थी या संजीव ने,

'सुंदरता कहं सुंदर करई, छवि गृह दीप शिखा जनु बरई।’

अब वह इस देश को आत्महत्या का देश कहती है। उसका भारतीय दोस्त संजीव इसे 'खामोश परिंदों’ का देश कहता है। भारत से आने के बाद यहां की इतनी गहरी खामोशी उसे भी अजीब लगती है, कई बार उसे डर भी लगता है इस खामोशी से। गहराती शाम के समय इंटरलोकन में तो लगता ही नहीं कि यहां लोग भी रहते हैं। लगता, जैसे यहां सिर्फ चमकती सडक़ें, जगह-जगह झूलते फूल और बिना दुकानदारों की सजी दुकानें और छोटे-छोटे ढलुआ छतों वाले घर रहते हैं। यहां घर को लेकर भी लोगों के दिमाग में कैसी अजीब धारणा है। भारत में थी तो हर कोई उसे अपने घर में आमंत्रित करता, कितनी आत्मीयता है वहां, जबकि यहां स्विट्जरलैंड में घर बुलाना मतलब किसी को अपनी व्यक्तिगत जिंदगी में दखल दिलाने जैसा। एकाध बार ही ऐसा हुआ होगा जब उसके घर मेहमान आए होंगे। सब कुछ बाहर-बाहर होता है। मित्रों से मिलना, जन्मदिन, क्रिसमस।

अकेला घर और दीवारें जीवन की उदासी और मनहूसियत को कितना बढ़ा देती हैं। उस पर इतने लंबे दिन! नौ बज गए पर रात का कहीं ठिकाना नहीं। भारत में कितना अच्छा है, सात बजते ही रात और दस बजते ही मीठी-सी नींद। यहां की उजली छोटी रातें नींदें चुरा लेती हैं। पास की 'सेल्फ-बार’ की दुकान से बीयर की एक बोतल खरीदती है वह। पास में ही खड़ी है एक थुल-थुल बूढ़ी। शायद ठीक से कोड देख नहीं पाई। खरीदना चाहती थी योगर्ट (दही), खरीद लिया मिल्क। उसने सहायता की उसकी। ऊफ। ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। पांव कैसे कांप रहे थे उसके। मन फिर मर गया उसका। क्या यह भी घर में एकदम अकेली है, उसकी लैंड लेडी की तरह। उसकी लैंड लेडी, 90 के आसपास होगी। मुंह में दांत नहीं, पेट में आंत नहीं पर होंठ रंगे हुए, चेहरा पुता हुआ, बाहर सब टिप-टॉप। यही विद्रूपता खासियत है इस देश की। मूल मंत्र है यहां का। कमजोर नहीं दिखना। दुखी नहीं दिखना। असफल नहीं दिखना।

अंतस में सारी कालिमा छुपाए रखना। बाहर प्रसन्नता का प्रदर्शन।

स्विस बैंकों में पता नहीं किस-किस देश का छिपा होगा काला धन। मगर परसों जब जमायका की एक महिला बस में चढ़ी तो सारे लोग उतर गए। रेसियल डिस्क्रिमिनेशन या किसी को अपनी प्राइवेसी में दखल एलाउ न करना। बंद समाज। एक मुखौटे, एक बुरके में सिमटा समाज। दम नहीं घुटता होगा? नहीं? नहीं घुटता यह अकेलापन भी एक अति है। वह अकेलापन का कोई पर्यायवाची ढूंढना चाहती है।

तनहाई।

नहीं तनहाई या एकांत में एक रूमानियत है। वहां वह अहसास व्यंजित नहीं हो पाता जो अकेलेपन में होता है। जब न कोई आने वाला हो, न कोई जाने वाला, न कोई कहने वाला, न कोई सुनने वाला। गालिब ने कहा था, 'रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहां कोई न हो, हम सुखन कोई न हो और हम जबां कोई न हो। बे दरो दीवार-सा एक घर बनाना चाहिए, कोई हम साया न हो और पासबां कोई न हो। पड़िए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार और अगर मर जाइए तो पैहवां कोई न हो।’

उमड़ती भीड़ भी कभी-कभी अकेला करती है। दमघोंटू निस्संगता। जब सन्नाटा अहरह दस्तक देते-देते थक जाए पर वह वज्र कपाट न खुले, न टूटे। सड़क पर चली जा रही है वह अकेले-अकेले। बादलों ने ढक रखा है आकाश, सो अपना साया भी साथ नहीं। ऊपर एक पत्ता गिरता है चकराते हुए। वह ठिठक कर देख रही है उसे। इस सन्नाटे में क्या कोई हिलकोर उठी होगी इस पत्ते के गिरने से? उठी भी होगी तो जम गई होगी जैसे जमती है झील। यह हरियाली, यह रंगीन, क्षितिज की यवनिका, सड़क की तनहाई।

वह ग्लोब के सामने थी। एक-दूजे में कीटों की तरह गुंथे-भिंदे देश। नीचे महासागर। टेढ़ी-मेढ़ी झुकी-झुकी दुनिया। ग्लोब को उसने घुमा दिया है। एक देश आ रहा है, एक देश जा रहा है। मैं इस ग्लोब में तुम्हें ढूंढ़ रही हूं विजयेंद्र। अपने देश को, विदर्भ को और तुम्हें। यहां शाम घिरने वाली है। वहां रात हो गई होगी। तुम बिजली या लैंप की रोशनी में चार्ट फैलाए 'भारतीय किसानों की आत्महत्याओं पर सिर धुन रहे होगे।’ तुम्हारे कंधे पर हाथ रखना चाहती हूं, दुख से की गई आत्महत्याओं के बरअक्स सुख से की गई आत्महत्याओं को रखना चाहती हूं।

सुनो।

यह दुनिया का ऐसा देश जहां आत्महत्या की दर सबसे अधिक है। एक ऐसा देश जहां कानूनी रूप से मर्सी किलिंग मान्य है। एक ऐसा देश जहां पिछले 800 सालों में कोई युद्ध नहीं हुआ, दूसरे विश्व युद्ध के समय यूरोप के लगभग सभी देशों पर बम गिरे पर स्विट्जरलैंड इससे अछूता रहा। कॉन्सपेरेंसी थ्योरी है कि स्विस सरकार ने हिटलर को मदद भिजवाई थी। बहरहाल, दुनिया के सबसे खूबसूरत और अमीर देश में आत्महत्या इतनी अधिक क्यों? जहां ईमानदारी मूल्य नहीं, लोगों की आदत है। जहां आज की तारीख में भी नियम लोकसभा में नहीं वरन रेफरेंडम से बनते हैं। जहां के लोग इतने शांतिप्रिय और बंद हैं कि रात 10 बजे से सुबह 6 बजे के बीच आप कोई हल्ला-गुल्ला नहीं कर सकते। विवाह आउटडेटेड है। 'लिव इन’ प्रचलन में है। एक समय बाद 'लिव-इन’ भी टूट जाता है। हर व्यक्ति अकेला है। कोई उसके अकेलेपन में खलल न डाले। कई बार यह भी देखा गया कि दो स्पाउज में कोई व्यक्ति तभी मर गया तो दूसरा आत्महत्या कर लेता है। जिसने दु:ख नहीं देखा वह सबसे बड़ा दुखियारा है। इसलिए दु:ख के प्रथम आघात से ही युवक अपने को मेट्रो के सामने फेंक देता है। ऐसे केस की रिपोर्ट भी नहीं होती है।

परिवार सुख का सबसे बड़ा स्रोत होता है। अकेलापन आज वहां सबसे बड़ी समस्या है। लोग जब इसे झेल नहीं पाते हैं तो मर्सी किलिंग के लिए आवेदन देते हैं, कोर्ट के द्वारा आदेश मिल जाने पर आप ऐसी किसी भी संस्था में दाखिला ले सकते हैं। वे आपको विकल्प देंगे कि किस प्रकार आप मरना पसंद करेंगे। यदि आपकी कोई च्वायस नहीं है तो वे आपको ड्रग देंगे, पहले आप तीन दिनों तक नहीं उठेंगे, वे फिर ड्रग की मात्र बढ़ा देंगे, फिर आप सात दिन बाद नहीं उठेंगे, फिर एक समय ऐसा आएगा कि आप कभी भी नहीं उठेंगे।

पता नहीं, तुम इसे कैसे लोगे। बताना।

तुक्वहारी वंदना

विजयेन्द्र ने मेल पढ़ा। मल्लेश को आ जाने को फोन किया और चहलकदमी करता रहा। आकर जवाब लिखा, 'मेल करने के लिए आभार। पढ़ा। अकेलेपन का रहस्य अब कुछ-कुछ समझ में आने लगा है जिसके चरम पर पहुंचकर कोई आत्महत्या करता है। अजनबीपन (एलायनेशन) हो या अकेलापन (लोनलीनेस) पश्चिम की अवधारणा अलग है। भारतीय अवधारणा अलग। यह अकेलापन उनका खुद का वरण पैदा किया हुआ है जबकि हमारा अकेलापन हम पर लादा गया है। वे इसका हल अपने तरीके से ढूंढ़ें, हम अपने तरीके से।’

मल्लेश आ गया तो लैपटॉप उसके सामने कर दिया। मल्लेश ने वंदना का मेल पढ़ा। कुछ बोला नहीं। 'यह समस्या मंगल ग्रह की भी है। कल ही पढ़ रहा था, वहां गया हुआ रोबोट भी वापस लौटना चाहता है।’ विजयेंद्र ने हंसकर कहा।

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