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प्रज्ञा पांडेय की कहानी: तस्दीक

संस्कृत में एमए के बाद बीएड। साहित्यिक अभिरुचियों के चलते कहानी लेखन की ओर झुकाव। पहली कहानी हंस में प्रकाशित। इसके बाद विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां और लेख प्रकाशित। कृष्ण बिहारी के संपादन में आबूधाबी से निकलने वाली पहली हिंदी पत्रिका निकट में कार्यकारी संपादक। लखनऊ में निवास।
प्रज्ञा पांडेय की कहानी: तस्दीक

भोलानाथ की एक फोटो व्हाट्स ऐप वायरल हो गई थी। जिंदगी भरपूर जीने वाले ललिता राय उर्फ बाबू साहेब के हाईटेक मोबाइल से क्लिक होकर वह तस्वीर दस सेकंड के भीतर हंसी के छींटों के साथ एक मोबाइल से दूसरे मोबाइल पर घूमती हुई उस दिन के मनोरंजन के लिए पर्याप्त थी। यह तस्वीर जहां भी पहुंचती हंसी छूटने की ध्वनि होती और लोग नाम पूछना शुरू करते, 'भाई यह है कौन’ नाम भी तुरत पहुंचता, 'अरे, अपने गांव का भोलवा।’ उधर से जवाब आता, 'बहुत चूतिया है साला।’

इधर भोलानाथ को इतना भी याद नहीं कि कब से बाबू साहेब के यहां वह हलवाहा हैं। बाबू साहेब की बीस बिगहा खेती की गोड़ाई, बुआई, निराई, फसल उगने-पकने से उसके खलिहान में पहुंचने तक में भोलानाथ कहां-कहां पिसे-छिपे रहते हैं कि दिखाई नहीं देते हैं। कभी-कभी दिखाई देते हैं जब कोई उनको बुलाता है, 'ए सांपनाथ कहां रहले हा बे। तुम सबेरे से देखाई काहे नहीं दिए बे।’ भोलानाथ के गहरे धंसे गाल लोटपोट हो हंसने लगते हैं। 'अरे ए बाबू, नाय देखे का हमें सबेरे से, तोहरे आंख के आगे त रहलीं ह। सबेरे से त खेत में कटिया करत रहलीं हां।’ बाबू साहेब का कोई चमचा, तब तक खीस निपोरता चला आता है जो बिना बात ही बीच-बचाव करता गांव में अपनी खड़े होने की जमीन पुख्ता करता बोल पड़ता, 'अरे नाहीं भैय्या ई त आज सबेरहीं से काम में लागल हव्वुए। का रे भोजन पानी लिहले?’

'नाहीं बाबू अबहीं कहां, सबेरे से त खेतवे में लागल हईं। दिन खराब बा। जेतना जल्दी काम होइ जाई ओतने नीक होई। नाहीं त बड़ी बर्बादी होई ए बाबू।’ 

बाबू साहेब के दांतों में और उन का पान ढोने वाले सिवरमवा के दांतों के कत्थई कालेपन में कोई फर्क नहीं है। फर्क है तो दोनों के कुर्तों के रंग-ढंग में। बाबू साहेब का झकास है, कपड़े का मटीरियल भी नफीस है। उसका कुछ सफेदाह मगर पीला।

पान का एक बीड़ा बाबू साहेब को तो दूसरा अपने मुंह में चांपते शिवराम, बाबू साहेब के बगल में खड़े होने के चक्कर में अपनी रीढ़ से इतना खेल गए हैं कि वह पीछे से भोथरा हंसुआ हो गई है। पेट और पीठ में जैसे धंसने की होड़ लगी है। शिवराम भोलानाथ को लुहकारते हैं, 'भाग सारे, जो पहिले खाइ के आवअ मरि जयिहें  ससुर।’

'जात हईं बाबू।’ भोलानाथ गदगदा के खाने चले जाते हैं। भोलानाथ धरती के घूमने के साथ, रात-दिन होने के साथ चलते हैं। अपनी टुटही खटिया से उठते हैं तब से लेकर अंधकार आने तक अपने पैरों पर खड़े रहते हैं और रात जाकर बंसखट पर अपने दोनों पैर लिटा देते हैं। इसी हाड़तोड़ दिनचर्या में पांच बच्चे उनकी मेहरारू ने जने हैं। किसी चीज का स्वाद नहीं जानती है लेकिन फिर भी चरफर है। 'बाबू हैं न पांचों पल जइहें।’ भोलानाथ की मेहरारू यह सुनकर भरोसे में जीती है। भोलानाथ मेहरारू से अक्सर बाबू साहेब का बखान करते हैं, 'बाबू अच्छे हैं। इतनी बड़ी जिनगी में कब्बो हाथ नाहीं उठाए हमरे प। तोहरी ओर भी आंख उठाके नाइ देखलें, भौजाई कहे लेन।’

बाबू साहेब पूछते रहते हैं, 'का रे कौनो दुख कष्ट त नाईं बा। लरिके-फरिके सब ठीक हव्वें न।’

'हां बाबू। आपके दया से कुल ठीक बा।’

'त अब बडक़ा क उमर दस साल भइल न।’ त ओहके भेज। अब खेते में।’

भोलानाथ खीस निपोर देते हैं, 'ए बाबू मलकिनिया कहति है कि लरिकवन के पढाइब।’

'ससुर तू पगलाइल हव का? का करिहें पढ़ि के? घसिये न छिलिहें।’

'हां, बाबू अउर का।’

'तब्ब?’

बाबू एक बड़ा सा बौद्धिक प्रश्न भोलानाथ के सामने छोड़ कर चल देते हैं। भोलानाथ बाबू का बहुत सम्मान करते हैं। बाबू कभी उसको गलत राय नहीं देंगे। आज वह जी रहा है तो बाबू साहेब ही इसका कारण हैं। जिनगी दे के भी उनके एहसान से उरिन नहीं होंगे।

भोलानाथ की एक ही कमजोरी है। ठर्रा। ठर्रा दे के जो चाहे काम करा ले कोई। बाबू साहेब कभी-कभी चिल्लाते हैं, 'ए भोला मरि जइब ससुर देखअ कइसन हड़हड़ाइल हव्वे। हे गिरीस सुनअ तनि। इधर सुनअ अ। इनकर एक-एक ठो पसली गिन डारा त। देखा एक्को ढेर त नाइ बा।’ पूरी जमात इस चुटकुले पर ठहाका मार हंस देती है। भोलानाथ सबके आकर्षण का केंद्र बने पसली गिनवा लेते हैं। 'नाइ कक्का बारह एह तरफ आउर बारह वह तरफ।’

'इहो ससुर क नाती गिनती नाइ जानेलें।’ सब लोग फिर मुस्की मार देते हैं। भोलानाथ जानते हैं, बाबू हुल्साते हैं तब खुद ही पिलाते हैं। वह भी अंग्रेजी। अंग्रेजी बोतल खोलने में भोलानाथ को जो सुख मिलता है और अंग्रेजी का जो सुआद मिलता है। उस दिन भोलानाथ मदमस्त होकर सोते हैं, 'ए भोलानाथ आज काम बहुत बा तोहार। अंग्रेजी हमारे पास रख्खल बा।’ भोलानाथ दोगुने जोश में भर उठते हैं और दस आदमी का काम अकेले करते हैं। इधर बाबू एक हरकारे को बुलाकर अपनी ब्लैक डॉग की बोतल मंगाते हैं जिसमें रात की तलछट वाली शराब बची है।

'आधा बोतल पानी भर बे एह में।’ शराब का धोखा देती बोतल सामने रखी गई है। भोलानाथ को बुलाकर दिखा दी गई है। भोलानाथ गांव लांघती, बसाहट के साथ चारों ओर पसरती नाली की सफाई में लगा दिए गए हैं। भोलानाथ अकेले जुटे हैं। सावन भादों के पहले नाली साफ हो जाए, नहीं तो गांव भर की दुर्गति है। जेठ के ताप का होश नहीं है उन्हें। अंग्रेजी जो रखी है। भोलानाथ की पटरा की जांघिया का पटरा डिजाइन पता नहीं कब का रंग छोड़ चुका है। सूत में भी जाली पड़ गई है। उसके बाद जाली भी खत्म हो कर जांघिए का नाड़ा बचा है और दोनों टांगों को अलग करने वाली मियानी बची है। उनकी कोनदार हड्डियों वाले चूतड़ों का कपड़ा पूरी तरह उड़ गया है। अंग्रेजी के कारण जोश में आ जाने पर अपनी लज्जा को ढंक रखने वाली, बेरंग फटी लुंगी उन्होंने उतार फेंकी है। उनके दोनों चूतड़ हर ओर से उघड़े हैं। वह नाली पर पूरी तरह से झुके दुनिया की हर मुश्किल से बेफिक्र तल्लीन हैं। नाली का सारा कचरा, बदबू, काला पानी, कीचड़, मिट्टी  सब उधिया कर निकाल फेंकने में वह भूल गए हैं कि उनको भूख-प्यास लगती है, कि उनकी मलकिनी खाना लिए उनको धिक्कारती अगोर रही है। तभी बाबू साहेब टहलते हुए उधर आ जाते हैं।

उनका हाईटेक मोबाइल तीन बार क्लिक होता है। दोनों बार दो एंगल से और एक बार सामने से। हंसी छूटने की जोरदार ध्वनि होती है पर भोलानाथ को होश नहीं है। बाबू साहेब सबको हंसी पर काबू पाने के लिए हिदायत दे रहे हैं, 'अब्बे देखिलेई त डिस्टर्ब होइ जाई। पूरा नाली साफ होइ जाए द पहिले।’ सब लोग चुप हो गए हैं पर तब तक फोटो वायरल हो गई है, व्हाट्स ऐप के कई समूहों में। उधर से हंसी के छूटते फव्वारों की उछल कूद, हंसी की गिलहरियां के लोटपोट होकर टेढ़ी-मेढ़ी हंसी की आवाज चली आ रही है। 'यह है कौन? भोलवा मुंह नाइ देखाई दी त कईसे केहू चिन्ह पाई और हवा में लहराते-ठहाके फोन कॉल्स भी बाबू साहेब के पास आ रहीं है।

'कौन है ई’

'भोला, आपन भोलवा। आज भोला को सब लोग जान गए हैं। शाम हो गई। भोलानाथ ने हाड़ गला कर नाली साफ कर दी। भोलानाथ नहा-धोकर बोतल के पास आए, लेकर चले गए। पीकर मस्त सोए। उनकी तस्वीर व्हाट्स ऐप पर घूमती रही। तीसरे दिन फिर लौटकर बाबू साहेब के मोबाइल पर फिर चमकी। बाबू साहेब एंड पार्टी एक बार फिर हंसी। 'ए भोलानाथ, भोलानाथ सुन अ जल्दी।’

भोलानाथ भागते हुए आए। बाबू साहेब ने अपने मोबाइल की स्क्रीन भोलानाथ के सामने चमका दी। 'ई का हा बाबू।’

'पहचान।’

'नाइ पहिचानत हई ए बाबू।’

'आपन चूतर नाई पहिचानत हवा और आपन घंटियो नाइ पहिचानत हवा?’

सब लोग ठठाकर हंस पड़े। भोलानाथ एकदम हकबका गए। मारे लाज के अपनी हथेलियों से अपना चेहरा ढकने लगे। 'ए बाबू ई कइसे भइल, ए बाबू मिटा द एके, ए बाबू।’

'अब का ई त दिल्ली भरे क लोग देख लिहलें।’

भोलानाथ अपना चेहरा छिपाए जमीन में गड़ गए। 'ए बाबू आज ले हमार मेहरारू हमे नंगे नाइ देखलस। ए बाबू, ए के मिटा द हो। ए बाबू। बाबू हमार लरिका देखि लीहें त केतना खराब लगी। का कहिहें ए बाबू।’

'बड़का तूं लजाधुर भईल हव्व।’ शिवराम उधर से बोला।

'ए बाबू सहिये हम बड़अ लजाधुर हईं। एहके मिटा द हम कब्बो तुहंसे अंग्रेजी नाईं मांगब। ए बाबू।’

'भाग सारे भाग।’

'नाईं ए बाबू। हम भगवानों जो आय जयिहें तबो आज इहां से नाई जायिब। एहके मिटावअ तूं।’

लोग भोलानाथ की हर गिड़गिड़ाहट पर हंस कर लोटपोट हो रहे हैं। भोलानाथ के ऊपर बेहोशी छाने लगी है। भोलानाथ उकड़ूं बैठे-बैठे गिर गए हैं। बाबू साहेब दौडक़र आए देखा तो नाड़ी बंद है। ‘भोलानाथ ए भोलानाथ।’ उनके मुंह पर पानी के छींटे दिए गए पर भोलानाथ पर किसी चीज का कोई असर नहीं हुआ। उस दिन गांव के सब लोगों को पता चला कि भोलानाथ बहुत लजाधुर थे। उनकी पत्नी ने रोते-रोते इसकी तस्दीक की।

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