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कहानी - आंटी

दिनेश पाठक चर्चित कथाकार हैं। सभी शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। कुछ कहानियों का अन्य भाषा में अनुवाद भी हुआ है। अब तक उनके नौ कथा संग्रह, दो उपन्यास और एक संपादित पुस्तक प्रकाशित हुई है। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में - शायद यह अंतहीन, धुंध भरा आकाश, जो गलत है, इन दिनों वे उदास हैं, रात के बाद, अपने ही लोग, पारुल दी, नस्ल और देखना एक दिन शामिल है।
कहानी - आंटी

स्कूल की छुट्टियां थीं। तीनों छुट्टी की मस्ती में थे। चौथा मामा के पास गया हुआ था। चारों अच्छे दोस्त थे। अकसर वे साथ रहते। जमाना इंटरनेट का था और उन्हें इंटरनेट से जुड़े रहना जरूरी लगता था। फेसबुक के बिना लगता वे अधूरे हैं। मोबाइल तो आज के वक्त की जरूरत हो गई थी। उन्होंने जैसा मोबाइल मांगा, उनके माता-पिता ने दिया था। उन्होंने लैपटॉप की जिद की वह भी उन्हें दे दिया गया। उन्होंने वादा मांगा था, यदि वे दसवीं बोर्ड में अच्छे परसेंटेज लाने मे सफल रहे तो उन्हें मनपसंद बाइक दी जाएगी। माता-पिता ने खुशी-खुशी हामी भर दी थी। वे इन दिनों रोज अपनी कल्पना में उड़ान भर रहे थे। बाइक की झन्नाटेदार सवारी रोमांचित कर रही थी।

उन्हें आजकल दूसरी तरह का चस्का लग गया था। तीनों पलक झपकते ही इंटरनेट की उस दुनिया में पहुंच जाते जिसकी कल्पना मात्र से शरीर झनझना उठता। आजकल उनकी यही दिनचर्या चल रही थी। रोज बैठ जाते और आंखें गड़ाए उन फिल्मों को देखते जिनके बारे में सिर्फ  इतनी घोषणा करनी होती थी कि वे अठारह साल के हो चुके हैं। फिल्मों के दृश्य देखते हुए उनकी सांस गरमा जाती,  तेज चलने लगती। वे बेचैन होने लगते। शरीर के रग-रग में इतना तनाव उठता कि वे फूट पड़ने को आतुर हो उठते। वे तमतमा जाते। एक-एक कर उठते और टॉयलेट जाते। अंतत: निढाल होकर फिल्म बंद कर देते। संकल्प करते कि कल से ऐसी फिल्में नहीं देखेंगे। पर संकल्प टिक नहीं पाता।

इंटरनेट की दुनिया में ऐसी फिल्मों की कमी नहीं थी। वे रोज भीतर से गरम होते जा रहे थे। आंखों में हर वक्त वे फिल्में चलतीं। नसों में रक्त बनकर दौड़ती रहतीं। शरीर हर वक्त तनाव में रहता। फिल्में देखकर वे ऊबने लगे थे। उस दिन उनमें से एक बोला, 'अब यही फिल्म देखते रहोगे कुछ प्रेक्टिकल का जुगाड़ भी होगा? पूछने वाले की आंखों में नशा था, उसके कान की लवें लाल हो रहीं थीं। 

'कैसे जुगाड़ बनेगा?’ दूसरा पूछ रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था।

वो जो तुम्हारे घर महरी आती है...’ तीसरे ने पहले से कहा, 'वह जवान दिखती है।’

'फालतू बात मत कर। उस वक्त घर में मम्मी होती है। उसे कैसे दबोच सकते हैं। नॉट पॉसिबल।’ पहले ने तुरंत प्रतिवाद किया। दूसरा थोड़ा डरपोक था। तनी हुई नसों के बावजूद एकदम बेहोश नहीं था। बोला, 'ये दबोचने वाली बात मत करो। पैसा देकर पटाओ।’

'पर कैसे?’ पहले वाले ने विवशता जाहिर की। तीनों जान-पहचान की कई लड़कियों की चर्चा कर चुके थे। फिर महिलाओं पर भी चर्चा हुई। तीसरा दांत पीसता बोला, 'स्कूल खुलने से पहले कुछ करना जरूर है। चाहे कोई भी मिले, कैसी भी मिले। मुझसे तो बर्दाश्त नहीं हो रहा है।’ तीसरे ने खतरनाक ढंग से अंगड़ाई ली। शेष दोनों ने जीभ ऐसे लपलपाई जैसे शिकार सामने हो।

उस दिन तीनों पार्क में बैठे थे। पार्क में टहल रही औरतों-लड़कियों को ऐसे घूर रहे थे कि वश चले तो अभी चबा जाएं। 'हमसे अच्छे तो जानवर हैं यार।’ दूसरा एक दिन पहले ही कह रहा था। 'उनको कोई रोक-टोक नहीं।’ तनाव के बावजूद तीनों हंसे थे। पहला बोला था, 'हां, यार! सारी रोक-टोक साला आदमी के लिए है।’ पहले ने पिच्च से दूसरी ओर मुंह करके थूका था। तीनों हंस दिए थे।

पहले इस तरह की हरकत उनसे नहीं होती थी। वे अपने में मग्न रहते। लड़कियों को घूरते अवश्य, पर नजरें इतनी प्रदूषित नहीं होती थीं। पर इधर स्थिति एकदम अलग हो गई थीं। लड़की का दिखना क्या, लड़की की कल्पना ही उनमें सनसनाहट पैदा कर देती। वे अजीब-अजीब सी बातें करने लगते। बहकने लग जाते। उस शाम भी उन्होंने लैपटॉप में सनसनाती फिल्म देखी थी। फिल्म में दो लड़के प्रौढ़ होती महिला के साथ थे। फिल्म उन्होंने बीच में बंद कर दी। उनसे सहन नहीं हो पाया था। वे बेकाबू होने लगे थे। 'चलो, आज कुछ इंतजाम करते हैं?’ तीसरा जो उनमें सबसे ज्यादा साहसी था,  ने प्रस्ताव रखा। 'क्या इंतजाम कर सकते हैं?’ दोनों ने तपाक से अपनी आंखें तीसरे के चेहरे पर फिराईं। 'जैक के घर चलते हैं।’ तीसरे ने आंख मारी। जैक उनके चौथे दोस्त का नाम था। 'पर जैक तो है नहीं।’ दोनों को आश्चर्य हुआ। समझ नहीं पा रहे थे कि तीसरे का दिमाग किस ओर दौड़ रहा है। तीसरे ने किसी गहरे रहस्य के स्वर में कहा, 'वहां जो नौकरानी आती है, उसे पकड़ते हैं। वह जब अंधेरे में बाहर निकलेगी हम भी उसके साथ बाहर निकल आएंगे। पहले उसे पैसे का लोभ देंगे, नहीं मानेगी तो दूसरा तरीका इस्तेमाल करेंगे।’ 'कौन सा तरीका?’ दोनों ने एक साथ पूछा। 'और लेकर जाएंगे कहां?’ तीसरे भेदभरे ढंग से बोला, 'अपने घर। आज मम्मी-पापा देर रात आएंगे। बस, कोई नशेवाली गोली चाहिए। चलो, उसका जुगाड़ भी हो जाएगा।’ उन्होंने योजना बनाई कि वे तीनों शाम के झुटपुटे में निकलेंगे।

तीनों तय समय पर जैक के घर के सामने खड़े थे। तीनों को पता था, आंटी इस समय तक ऑफिस से आ जाती हैं। वह इस शहर में अकेले जैक के साथ रहती थीं। जैक के पापा बेंगलुरु में नौकरी करते थे। महीने-दो महीने में कभी कभार आया करते। पहले ने डोरबेल बजाई थी। पहला आंटी को बहुत पसंद करता था। उसे उनसे मिलना अच्छा लगता था। आंटी ने खिड़की के परदे से बाहर झांका था। उन तीनों को देखकर वह चहकीं। दरवाजा खोलते हुए बोली, 'आज तुम पाजीओं को मेरी याद कैसे आ गई?’

आंटी ने ऑफिस से लौटकर शायद अभी नहाया था। वह कॉटन का स्लीवलेस गाउन पहने थीं। शरीर पर कोई भीनी खुशबू वाला टेल्कम पाउडर छिड़का था। पूरा कमरा उस खूशबू से महक रहा था। जानें क्यों तीनों को लगा, आंटी न केवल जवान हैं वरन खूबसूरत भी हैं। वे अजब निगाहों से आंटी को देखने लगे। उन्हें आंटी पहले कभी ऐसी नहीं लगी थीं। 'ऐसे क्या देख रहे हो।’ आंटी मुस्कराई। यह मुस्कराहट उन्हें कसमसाने लगी। पहले ने थूक निगलते हुए हुए कहा, 'क्या बात हैं आंटी आज अकेली हैं, काम वाली बाई नहीं आई?’ आंटी की मुद्रा में नाराजगी उभरी, 'इन कामवालियों का क्या। फोन कर दिया नहीं आऊंगी। खैर, तुम लोग सुनाओ पढ़ाई कैसी चल रही है?’

'पढ़ाई?’ तीनों हकलाए। उत्तर पहले ने ही दिया, 'जैक नहीं हैं आजकल, सो पढ़ाई में मन नहीं लग रहा है।’ आंटी हंसी। खदबद करती हंसी। इस हंसी में आंटी का बदन इस तरह हिला कि वे हड़बड़ाए। उन्होंने एक-दूसरे की ओर देखा। तीनों को लगा कि वे एक ही बात सोच रहे हैं, आंटी के बदन के बारें में। आंटी कह रही थी, 'जैक ही कौन-सा पढ़ाकू है। अच्छा तुम लोग बैठो, मैं पहले तुम लोगों के लिए कोल्ड ड्रिंक लाती हं।’

आंटी किचन की ओर गई तो तीनों ने एक-दूसरे की आंखों में झांका। तीनों को लगा, उसनके रक्त में कुछ खदबदा रहा है। पहला फुसफुसाया, 'नौकरानी तो आई नहीं। प्रोग्राम फेल।’ तीसरा फुसफुसाया, 'प्रोग्राम फेल नहीं होगा। कुछ दूसरा प्रोग्राम चलेगा।’ पहला समझ सब रहा था। भीतर कुछ अलग भी चल रहा था। फिर भी वह सहमा। बोला, 'तुम्हारा मतलब।’ 'हां ठीक समझे।’ इस बार दूसरा बोला। स्वर बहुत मंद था। 'आंटी कितनी जबरदस्त लग रही है।’

नहीं, नहीं।’ पहला डरा। 'मजा नहीं लेगा?’ तीसरा पूछ रहा था। तभी आंटी उनके सामने आ गई। 'तुम लोग शुरू करो। मैं आ रही हूं।’ आंटी जैसे ही मुड़ी, तीसरे ने जेब से एक पुड़िया निकाली, चौथे गिलास में डालकर उसे परे कर दिया। आंटी लौटकर आई और सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई। आंटी खूब चहक कर बातें कर रही थी। अचानक उन्हें हल्का-सा नशा महसूस हुआ था। उन्होंने अपना एक हाथ कपाल पर रखा। आंखें मुंदने-सी लगीं। पहले ने पूछा, 'आंटी, तबीयत तो ठीक है न?’ 'पता नहीं क्यों सिर हल्का-सा घूम रहा है। मैं जरा लेटना चाहूंगी।’ आंटी उठीं, पर लड़खड़ाई। तीनों ने उन्हें संभाला और बेडरूम के गुदगुदे पलंग पर उन्हें सीधा लिटा दिया। आंटी बेसुध थी। तीनों अब ड्राइंगरूम में थे। रक्त का उबाल निकल चुका था। पहला सबसे ज्यादा डरा हुआ था। 'अब क्या होगा।’ उसका शरीर कांप रहा था। 'चुप रह।’ तीसरे ने डांटा। 'कुछ नहीं होगा।’ दूसरे ने भी वही दुहराया। आंटी जब होश में आएंगी तो उन्हें नहीं छोड़ेगी। मां-बाप के पास तो शिकायत जाएगी, पुलिस में भी शिकायत होगी। सोचते ही उनकी रूह कांपने लगती। फिर अगले पल ही दूसरा खयाल आता, नहीं, कुछ नहीं होगा। शर्म के मारे आंटी इस बात को दबा जाएंगी, किसी से भी जिक्र नहीं करेंगी। क्या कहेंगी किसी से भला?

'चलो, निकल चलें।’ तीसरा फुसफुसाया। तीनों जैसे निकलने लगे, आंटी की हल्की सी कराह सुनाई दी। तीनों ठिठक गए। लगता है, आंटी का नशा टूटने लगा है। उन्होंने किवाड़ की ओट लेकर बेडरूम की ओर झांका। आंटी नग्न । उसी दशा में अपना सिर दाएं-बाएं झटक रही थीं। अचानक वह उठकर बैठ गईं। आधे होश की हालत में वह चिल्लाई, 'पुलिस।’ तीनों भागकर बेडरूम में घुसे। दूसरे ने आंटी का मुंह दबोच लिया था। तीसरा तुरंत दुपट्टा ढूंढ लाया। उसने दुपट्टे से आंटी का गला बांधा। पहले की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। तभी उसने देखा कि आंटी छटपटा रही हैं। कुछ देर की छटपटाहट के बाद आंटी शांत हो गई। देह में अब कोई हरकत नहीं थी। तीनों को लगा, यह सब तो उन्होंने नहीं सोचा था। पता नहीं यह सब कैसे हो गया था।

'सुन।’ तीसरे ने पहले से कहा, 'कोल्ड ड्रिंक के सारे गिलास किचन के सिंक में ले जाकर अच्छी तरह धो दे। अंगुलियों के कोई निशान नहीं रहने चाहिए।’ तीनों ने पूरी सतर्कता बरतते हुए यथासंभव अपने होने के निशान मिटाए। बाहर अंधेरा घिर चुका था। तीनों पीछे के रास्ते से चुपचाप बाहर निकल आए।

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