कृष्ण अपने वातानुकूलित ड्राइंगरूम में बैठे संजय-दृष्टि की डोर थाम कर सुदूर स्विस बैंक के तहखाने में पड़े अथाह धनराशि का अवलोकन करके मुग्ध हो रहे थे कि सचिव ने आकर सूचना दी, 'सर, सुदामा साहब आए है।’
कृष्ण चौंक पड़े। सुदामा? 'चार सौ इक्कीस’ चैनल का तेज तर्रार स्ट्रिंगर अचानक इस वक्त। कोई और होता तो लौटा देता। पर इस नासपिटे को? न बाबा न! कृष्ण दोनों बाजूओं को जटायू के खुले डैनों की तरह दाएं-बाएं फैलाए सिंह-द्वार तक लपक आते हैं, 'आओ महाराज आओ।’
'महाराज?’ सुदामा फनफना उठते हैं। 'कृष्ण, हम आपको क्या रसोई बनाने वाले महाराज दिख रहे है? एक वरिष्ठ पत्रकार को महाराज का संबोधन। थोड़ा प्रोटोकॉल तो रखिए।’
कृष्ण मन ही मन हो-हो कर हंस पड़ते हैं। प्रोटोकॉल का बात करता है ससुर, हंह! अरे, हमारे एक ठो बड़े नेता ने आप लोग के लिए क्या कहा, नहीं मालूम? कैटेल क्लास...। कैटेल क्लास को प्रोटोकॉल। प्रगट में कृष्ण सुदामा को बांहों से खींचकर ड्राइंगरूम में ले आते हैं। ड्राइंगरूम की भव्यता देखकर सुदामा का कलेजा टीस-टीस कर उठता है। ग्वाला का बेलूर हुज्जतबान लड़का। जवान छोरियों को छेड़ने और मक्खन-मिसरी चुराने का जिसका शानदार रिकॉर्ड रहा, वह रंगमहल में राजसुख भोग रहा है। और वे? उच्च शिक्षित तेजस्वी ब्राह्मण। दाने-दाने को मोहताज।
सोफे पर बैठते-बैठते भी सुदामा साइड की जेब से एक पोटली निकालते हैं और दन्न से सेंटर टेबल पर पटकते हुए फनफना उठते हैं, 'देखिए, देखिए... किस हद दर्जे का सड़ा हुआ बदबूदार चावल पी.डी.एस की मार्फत जनता में वितरित किया जा रहा है। यही चावल मिड डे मिल योजना के तहत स्कूलों में भी जा रहा है। गरीब जनता और देश के नौनिहालों के प्रति यही प्रतिबद्धता है आपकी सरकार की?’
कृष्ण चौंककर घबरा उठते हैं। फिर नाटकीय अंदाज में ठहाका लगाते हुए हंस पड़ते हैं, 'सुदामा, जब तुम बैग से पोटली निकाल रहे थे तो हम बूझे कि भौजी ने सौगात भेजी है हमरे लिए...।’
'आश्चर्य! इतनी गंभीर बात को आप फाख्ता की तरह हंसी में उड़ाना देना चाहते हैं? कहे देते हैं कृष्ण, इस मामले में दोस्ती-फोस्ती नहीं चलेगी। हमें आपका स्टेटमेंट चाहिए। अभी... इसी वक्त। यह चैनल पर जाएगा।’
सुदामा के तेवर देखकर कृष्ण सहम जाते हैं। केतना समझाया था मंत्री लोगों को कि भैया, जितना मन करे, दुन्नो हाथ से खजाने को लूटो, कोई परवाह नहीं। पर सिरिफ चुनाव के पहिले का चार-छ: माह जनता जनार्दन का सेवा में लगा दो ताकि फिर पांच साल तक राजसुख भोगने का सर्टिफिकेट मिल जाय। पर न्न, कोई ससुर बूझने को तैयार नहीं। लो, अब कर लो बात।
'सुदामा, तुम न बड़ी जल्दी आपा खोकर बंदर जैसे उछलने लगते हो।’ कृष्ण मुस्कराए। ससुर के देमाग का इंजिन पूरी तरह गरम होकर खोखियाया हुआ है। तेल-पानी डालकर ठंडा करना होगा। फिर अंत:पुर की ओर गरदन मोड़कर हांक लगाते हैं, 'हे रुक्मनी जी, हमरे लंगोटिया यार न पधारे हैं। घर का बना टटका राबड़ी तो चटवाइए इन्हें।’
थोड़ी ही देर में चांदी के कटोरे में राबड़ी लेकर रुक्मिणी प्रगट होती हैं। रुक्मिणी का सोलह श्रृंगार से सजा रूप लावण्य देखकर सुदामा ईर्ष्या से सुलग उठते हैं। जेहन के स्क्रीन पर पैबंदी साड़ी में कृषकाय श्यामवर्णी पत्नी का चेहरा कौंध जाता है। राबड़ी की ओर चोर नजरों से देखते हुए कुछ देर न... न... करते हैं, फिर संयम, नकली मसाले से बने कच्चे बांध की तरह हरहरा कर टूट जाता है। सुदामा लपक कर कटोरा उठा लेते हैं।
कृष्ण पोटली की गांठ खोलते हैं। भीषण बदबू। एकदम अखाद्य। पर सच को स्वीकार लिया तो नेता किस बात के? देश में एक से एक घोटाले हुए। किसी ने भी सच को स्वीकारा क्या?
कृष्ण आनन-फानन नए पैंतरों का जाल फेंकते हुए फनफना उठते हैं, 'सुदामा, ध्यान से देखो तनी। बदबू चावल से नहीं, उस कपड़ा से आ रही है जिसमें चावल बंधा है, दरअसल तुम बड़े भोले हो। नासमझ। समस्या दूसरी है।’
'दूसरी?’ सुदामा पलकें झपकाने लगते हैं।
'हां हां दूसरी। इ सब विपक्ष का चाल है भैया। सारा विपक्ष सीआईए और आईएसआई के साथ मिलकर हमरा सरकार को बदनाम करने पर तुला हुआ है। पर हम डरने वाला नहीं हूं। जनता-जनार्दन ने मेनडेट देकर भेजा है हमको। पूरे पांच साल तक सूबे को लूटने का... सॉरी... सूबे की सेवा करने का, बूझे? हमने जनता को पूरा ट्रांसपेरेंसी वाला सरकार दिया है। जो भी करते हैं, खुल्ला-खुल्ला। ध्यान से देखा, तब्बे न समझ में आएगा, ट्रांसपेरेंसी कौन चीज होता है। देखो... देखो...।’
सुदामा गहरी नजरों से घूरते हैं कृष्ण को। सचमुच। सफेद झीना कुरता। कुरते के पीछे से झांकती बनियान। बनियान के पीछे से झांकते हुए गुच्छ के गुच्छ बाल। कृष्ण के विराट रूप को देखकर सुदामा सम्मोहन में खो जाते हैं। 'हमें आपका स्टेटमेंट चाहिए...। सेंटर टेबल पर जो सच पड़ा उसके बाबद...।’
कहते हुए सुदामा की जबान हकला जाती है।
'दुर्रर्र बुड़बक...।’ फिर वही बेबाक ठहाका। 'कहा न कि बदबू चावल से नहीं पोटली का कपड़ा से आ रही है। हम कपड़ा को सफा करके चमका देंगे। बस, थोड़ी सी मोहलत दे दो।’
'मोहलत...?’ सुदामा अकबका जाते हैं।
'हां भाई, तुमको अपना डेरा पहुंचने में जेतना वक्त लगेगा, बस उतनी ही मोहलत। न कम, न ज्यादा...।’ होंठों में मुस्कराते हैं कृष्ण। रहस्यमय मुस्कान! 'हम सब ठीक कर देंगे...।’
'क्या खाक ठीक कर देंगे?’ सुदामा बिदक उठते हैं, 'चार साल में कुछ नहीं कर सके, तो तीस मिनट में क्या उखाड़ लेंगे? ज्यादा से ज्यादा सीबीआई बैठा देंगे। न... न... । हम एक जिम्मेदार पत्रकार हैं कृष्ण। दोस्ती-फोस्ती में कोई रियायत नहीं करेंगे।’
जिम्मेदार पत्रकार। कृष्ण फिर मन ही मन हंस पड़ते हैं। तुमरे जैसे पत्रकार टके में दस के भाव मिलते हैं हटिया में। प्रगट में कहते हैं, 'अरे यार, सिरिफ तीस मिनट देकर देखो तो। उसके बाद जो भी फोडऩा हो- अंडा या भांडा, फोड़ देना, ठीक...?’
सुदामा लौटते हुए सारी राह गहरी सोच में डूबे रहते हैं। कृष्ण हमेशा से ही चालाक और शातिर रहा है। लेकिन इस बार उसकी कोई चालाकी काम नहीं आएगी। हंह, तीस मिनट में क्या खाक ठीक कर देगा?
दरवाजे पर ठक-ठक कर वह दरवाजा खटखटाते हैं। पत्नी दरवाजा खोलती है तो तेल मसाले की लिजलिजी बू नथूनों में ठुंस जाती है। सुदामा के जेहन में रुक्मिणी का खिला-खिला चेहरा चिलक जाता है। एक गुलाब का फूल तो दूसरी गोभी का। पत्नी गले में बांहे डाल देती है और उन्हें खींचती हुई शयन कक्ष की ओर बढ़ जाती है। सुदामा चौंक पड़ते हैं। अयं, कलमुंही किए पिनक में है कि सरे शाम। छी... छी...। शयन कक्ष में लाकर पत्नी कोने की ओर संकेत करती है, 'उधर देखिए स्वामी...।’
एकांत कोना। मोच खाया पुराना ट्रंक। ट्रंक पर पुरानी गुदड़ी। गुदड़ी पर पड़ा था वह 'लाल की तरह। वह यानी एक छोटा सा सूटकेस। सूटकेस में चमचमाती लेजर किरणें भरी हुई थीं। सुदामा ने अचकचाकर बैग से पोटली निकाली। अरे... पोटली का कपड़ा एकदम साफ हो चुका था।’