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मनोज कुलकर्णी की कहानी - औघड़ समय

मूलतः चित्रकार। अनेक चित्र-प्रदर्शनियों में कला-कृतियां चयनित, प्रदर्शित। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां, कविताएं, रेखांकन, समीक्षाएं और कला-लेख प्रकाशित। एक कहानी-संग्रह के अलावा ‘जन-वाचन’ आंदोलन के लिए लिखी कुछ पुस्तकें प्रकाशित। जनवादी लेखक संघ की पत्रिका ‘नया-पथ’ के चित्रकला-विषेषांक के अलावा भारत ज्ञान विज्ञान समिति के लिए ‘ज्ञान विज्ञान वार्ता’ के कुछ अंकों और एक बाल पुस्तक माला का संपादन। बच्चों की किताबों के लिए रचनात्मक रेखांकन। कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेजों और पुस्तिकाओं के अनुवाद प्रकाशित। सांस्कृतिक और सामाजिक आंदोलनों से गहरा जुड़ाव। घुमक्कड़ी और फोटोग्राफी में गहरी दिलचस्पी।
मनोज कुलकर्णी की कहानी - औघड़ समय

मेरा बचपन उज्जैन में गुजरा।

हमारा कुनबा, विशाल और पुराने पुश्तैनी मकान में रहता था। चाचा, चाची, बुआ, भाइयों, बहनों का हरा-भरा कुटुंब। घर में, हमेशा तीज-त्यौहार, व्रत-पूजा की धूम मची रहती। कक्षा सात की संस्कृत पुस्तक में एक श्लोक था, जिसके अनुसार मोक्षदायक सात नगरियों में उज्जयिनी भी एक थी। ये श्लोक, एक दरवाजा था मेरे लिए, रहस्यमयी धुंध में लिपटे हुए आश्चर्य-लोक की तरफ खुलता हुआ।

देव-असुर संग्राम, सर्पराज की रस्सी, पर्वत की मथानी, अमृत मंथन, अमरत्व की लालसा, अमृत की चार बूंदों का छलकना ये तमाम पुराकथाएं, मेरे बाल-मन पर रोमांचकारी छाप दर्ज कर रही थीं।

महज चार का रहा होउंगा जब पहली बार सिंहस्थ देखा था। कुछ धुंधली तस्वीरें, अब भी जेहन में हैं। मसलन नंगे साधुओं को देख किलक कर तालियां पीटना। कोई मेहमान आता घर में, तो बुआजी मजे़ लेकर पूछती, ‘मुन्नू सिंहस्थ कैसा था, बताओ तो?’ मैं झट अपनी चड्डी उतार फेंकता और कहता ‘ऐसा।’ सब हंस-हंस कर लोट-पोट हो जाते।

बारह बरस बाद ग्यारहवीं कक्षा में था, जब खुली आंखों से सिंहस्थ देखा। नंगे साधुओं की जमातें, राजर्षियों का वैभव, औघड़ों के तंत्र-मंत्र, योगियों की समाधियां, हैरतअंगेज लिंग-प्रदर्शन, साध्वी सुंदरी मां शारदा सरस्वती के प्रवचन, धार्मिक महात्म्य के हजारों-किस्से, शाही स्नान की सनसनी और काल भैरव का मदिरापान, किशोरवय को उत्तेजक बनाए हुए थे।

उम्र के साथ-साथ उज्जैन से रिश्ते भावनापूर्ण, रसमय और घनिष्ट होते गए। इतिहास, पुराण और मिथकों की मिली-जुली गंध में पगा हुआ महाकाल, क्षिप्रा, न्यायप्रिय-विक्रम, बत्तीस पुतलियों का सिंहासन, सौंदर्यशास्त्री भर्तृहरि और उनका वैराग्य, कृष्णगुरु सांदीपनि, कवि कुलगुरु कालिदास, मेघदूत और अनिंद्य सुंदरी वासवदत्ता का नशा मुझ पर छाता चला गया था।

उज्जैन एक जादुई पिटारा था। जिसका एक नायाब करिश्मा था, बाबा जयशिव।

कोई पैंतीस-सैंतीस की उम्र, चमकीली सांवली काया, तीखी नाक, बड़ी-बड़ी लाल आंखें, भूरे-जटाजूट, फहराती दाढ़ी, भव्य मस्तक पर भस्म का त्रिपुंड़, कानों में छोटी-छोटी बालियां, कलाई में तांबे का मोटा कड़ा, एक हाथ में कमंडल और दूसरे में चमचमाता त्रिशूल, उस पर बंधा छोटा सा डमरू। नाटा कद, लंबा उदर, गले में झूलती रुद्राक्ष की माला और कंधे पर लटकती पोटली।

जय शिव जय शिव के लयात्मक घोष और लकड़ी की पादुकाओं की संगतकारी खट-खट से, उसके आगमन को लोग दूर से ही जान जाते। हर मौसम में सिर्फ भगवा लंगोट पहनने वाला ये अलमस्त साधु, हर रोज सुबह शहर की गलियों में घूमता। भिक्षा नहीं मांगता, कोई प्रेम से बुलाकर दे दे, तो ठीक। लेता भी तो सिर्फ आटा। बाकी दिन वह कहां और कैसे गुजारता, पता नहीं। बालमन में, कभी जानने की जिज्ञासा भी नहीं हुई।

शहर की आड़ी-टेढ़ी गलियों से जब वह गुजरता, मोहल्ले के बच्चों का झुंड, उसके पीछे हो लिया करता। मेरे बचपन की सुबहों का एक बड़ा हिस्सा, दोस्तों के साथ बाबा जयशिव के पीछे डोलते हुए बीता। उससे समय पूछता कोई, तो बगैर घड़ी के वह बिल्कुल सही समय बताया करता। लिहाजा बच्चे ही क्या, बड़ों के लिए भी एक रोमांचक खेल था, बाबा जयशिव।

दोस्तों के इरादे डॉक्टर, वकील, इंजन-ड्राइवर या पुलिस बनने के थे, लेकिन मैं बड़ा होकर बाबा जयशिव की तरह साधु बनने का ख्वाब देखा करता।

‘जय शिव! कितने बजे?’ लोग पूछते। ‘सात-पच्चीस, बारह-अड़तीस, पौने-पांच, साढ़े-आठ।’ सुबह, दोपहर, शाम या रात, उसका जवाब संक्षिप्त और अचूक हुआ करता। लोग घड़ियां मिलाया करते।

वह एक किवदंती-सा था।

उसका सही नाम, पता, ठिकाना किसी को मालूम नहीं था। अनेक रहस्यमय और कौतूहलपूर्ण किस्से जरूर प्रचलित थे। मरघट में रहता है, प्रातः चार बजे क्षिप्रा मैया में डुबकी लगा, ताजी चिता के भस्म से मस्तक पर त्रिपुंड सजाता है, फिर महाकाल महाराज के दर्शन कर, लोटा भर भांग का सेवन करता है और भोलेनाथ की जयकार करता हुआ, भिक्षाटन के लिए, शहर की गलियों में निकल पड़ता है।

जितने मुंह थे, बातें उनसे कहीं अधिक थीं।

कोई कहता तांत्रिक हैं, भूतप्रेत वश में कर रखे है। कोई कहता तीन सौ बरस से ज्यादा उम्र का है। हिमालय में कायांतरण कर चुका है, इसलिए बूढ़ा नहीं दिखता। कुछ की धारणा थी कि महाकाल भगवान ने खुद प्रगट हो, उसे दर्शन दिए हैं और काल जानने का वरदान भी। कुछ को यकीन था कि बाबा, मारणमंत्र जानता है और उड़न विद्या भी। रोज उड़ कर बारहों ज्योतिर्लिंगों के दर्शनों को जाता है। कुछ उसे ढोंगी-साधु ठहराते, तो कुछ का मत था कि वह पढ़ा-लिखा विद्वान है। अंग्रेजी भी आती है उसे। तात्याटोपे के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ने, लार्ड डलहौजी से आमने-सामने वाद-विवाद करने से लगाकर सुभाषचंद्र बोस का सहयोगी होने, अंग्रेज न्यायाधीश को अपने त्रिशूल से मृत्युदंड देने और एक फिरंगन का बाबा के प्यार में दीवानी बन जाने जैसे पता नहीं कितने उल्टे-सीधे, अचरजकारी और अविश्वसनीय किस्से चाव से सुने-सुनाए जाते।

नामालूम कैसे पर समय वह सचमुच सटीक बताता।

लोग अपनी बुद्धि, शिक्षा, श्रद्धा, अंधभक्ति, तर्कशक्ति अनुसार महाकाल का इष्ट, काल गणना के किसी लुप्त प्राचीन मंत्र का ज्ञान, पालतू कर्ण प्रेत द्वारा निरंतर कान में सही समय बताते रहने जैसी ऊटपटांग बातों से, उसकी कथित दिव्य शक्ति को व्याख्यायित करने की कोशिश किया करते।

सचमुच वह उन हजारों निकम्मे, नशेड़ी, अघोरी, भिखारी या उन हजारों भिखारी या ठग साधुओं से, जो जोगिया बाने की आड़ में भोली जनता को उल्लू बना, अपनी स्वार्थ सिद्धि करते, एकदम अलग था। वह, उन धर्माचार्यों की तरह भी नहीं था, जो भव्य वेषभूषा, प्रभावी वाचा, तामझाम से रची गई महिमा, करोड़ों के मंदिरों, मठों, देश-विदेश में होने वाले प्रवचनों आदि के माध्यम से धनाड्य शिष्यों को मूर्ख बनाते हैं। उन महंतों से भी जुदा, जो सांप्रदायिक-राजनीति की पूंछ पकड़ अपना जीवन तारते हैं।

इन सबसे विपरीत, उसका अपने समय से, समाज से जीवंत संपर्क था। अक्सर उसे प्रासंगिक मुद्दों पर तार्किक चर्चाएं करते, देखा-सुना जाता। उसके द्वारा कई जनहितकारी काम किए जाने की खबरें भी मिलती। बाढ़, दुर्घटना जैसी विपदाओं में वह मौके पर मोर्चा संभाले दिखता। धार्मिक जलसों, जुलूसों में व्यवस्था बनाता नजर आता। नागरिक, उसका सम्मान करते थे। एक बार शहर में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद बनी शांति समिति में उसकी महती भूमिका रही थी।

कहा जाता है कि बातचीत के लिए मुस्लिम समाज ने उसी की मध्यस्थता को स्वीकारा था। उसके अतीत के बारे में सर्वाधिक व्यावहारिक दास्तां, मैंने बरसों बाद प्रो. सान्याल से सुनी थी। उनके अनुसार बाबा जयशिव बचपन में गुस्सा कर घर से भाग आया था, रेल में किसी सज्जन सेठजी से टकरा गया। वह उसे अपने गांव लेते गए। बाद में पास ही के किसी गांधी आश्रम में उसे रख दिया गया। फिर एक दिन, वहां से भी वह उड़ गया। बैरागी स्वभाव को आश्रम के अनुशासन ने स्वाध्यायी और कर्मनिष्ठ बना दिया। बचपन से महाकाल का उपासक था, सो उज्जैन चला आया। शिव भक्ति और गांधी-दर्शन का विचित्र संयोग था उसके व्यक्तित्व में।

कॉलेज में दूसरे साल, छात्र-राजनीति में मेरी रुचि बढ़ी। ये विचारधारा के प्रति पनपते आग्रह और संस्कार में गुंथी पड़ी रुढ़ियों और आस्थाओं से मोहभंग और विद्रोह का दौर था। बाबा जयशिव की तरह साधु बनने की बचपन की इच्छा, पता नहीं पीछे कहां छूट गई। अब तो कुछ परिवर्तनकारी काम करने का जज़्बा, दिमाग में प्रतिपल घुमड़ता रहता। उसी दौर में, लोगों की अंधभक्ति और निराधार आस्था पर चोट करने के जुनून में हमने एक नॉनवेज चुटकुले को जयशिव की कालगणना-शक्ति पर चस्पा कर उसका मजाक बनाया था। हमारे द्वारा प्रचलित वह कहानी थोड़ी अभद्र लेकिन दिलचस्प थी।

किस्सा कोताह यह कि शहर उज्जैन के मध्य एक भव्य, सुंदर व ऊंचा घंटाघर है। जिसकी चार घड़ियां, चारों दिशाओं को समय बोध कराती हैं। इसी घंटाघर के लंबवत रास्ते पर गोल बगीचा है, शहीद पार्क। जिसके बीचों बीच शहीद स्तंभ है। बहुत पुरानी बात है, इसी स्तंभ के नीचे एक मन मौजी साधु ने अपना डेरा डाला। वह अन्तर्यामी, त्रिलोक-त्रिकालदर्शी था। अतीत में क्या कुछ घटा और भवितव्य क्या है, उसे सब पता था। जाहिर है मुसीबत के मारे, दीन-दुखियारे अपने कष्टों से मुक्ति की आस लिए, उसके इर्द-गिर्द बने रहते, उसकी सेवा करते। साधु मुंहफट था, सीधे मुंह बात नहीं करता था। सभी को डपटता रहता, गंदी गालियां दिया करता। लेकिन चमत्कार की आस में, लोग-बाग सहन किया करते। दफीना खोजने वाले, दुश्मन को मूठ करवाने की इच्छा रखने वाले, सट्टे का नंबर पूछने वाले या स्वर्ण बनाने की गोपनीय विधि जानना चाहने वाले नशेड़ी, गंजेड़ी, आवारा और बहिष्कृत भी उसके आस-पास मंड़राते रहते। माल-असबाब के नाम पर उसके पास महज एक पोटली, कमंडल, चिलम और एक घोड़ा था। हष्टपुष्ट, कत्थई घोड़ा। जो साये की तरह उसके साथ रहता। ऐसा-वैसा नहीं, बल्कि एक जादुई घोड़ा।

शहीद स्तंभ के तले जब वह पूजा-पाठ, ध्यान-भजन में मगन रहता, घोड़ा उसके समक्ष खड़ा रहता। साधु की विचित्र विशेषता थी कि यदि कोई उससे समय पूछता, तो क्षणांश अपनी आंखें खोलता, सामने खड़े घोड़े के लिंग को आहिस्ता हिलाता। लिंग, पेंडुलम की तरह दोलन करता और तत्काल ही साधु सही समय बता दिया करता। लोग दांतों तले उंगली दबा लेते, उसकी जय-जयकार करते।

धारणा थी कि लिंग जितने दोलन करता है, वही उस क्षण का समय होता है। जिज्ञासुओं ने गिन कर परखने की कोशिश भी की। लेकिन एक पेंच था, दोलन की आवृत्तियों से घंटे तो पता चल सकते हैं, किंतु साधु तो मिनिट तक का सही समय बताता है? था कोई खब्ती, जिसने इस शंका का समाधान भी ढूंढ निकाला। यूं कि शहीद स्तंभ, जिसके तले वह समाधि लगाता था, से घंटाघर की घड़ी ठीक सामने थी। उसकी आंखें और घड़ी के बीच बनने वाली सीधी रेखा के मध्य, एकमात्र बाधा थी, सामने खड़े घोड़े का लिंग। अतः आंखें मूंद, मंत्रोच्चार की नौटंकी के बाद, जैसे ही वह घोड़े के लिंग को हिलाता, उसे घंटाघर की घड़ी दिख जाती और वह सही समय बता दिया करता। निरंतर ऐसा करते हुए, उसे समय-ज्ञान का अच्छा अभ्यास हो गया। उसने काल-गणना की अपनी मौलिक विधि विकसित कर ली। वही साधु आज का बाबा जयशिव है।

समय एक पंछी था।

कब डैनों पर आकाश उठाए अनंत को छाना, कब किसी पेड़ की ठंडी छांव में सुस्ताया, कब चहचहाया, कब गुमसुम रहा, किस कोटर में घोंसला बनाया? पता ही नहीं चला।

पिता की मृत्यु हुई और घर का बंटवारा। पुश्तैनी मकान का अपना हिस्सा बेच, नई कॉलोनी में एक मकान खरीद रहने लगे हम। फिर नौकरी ने मुझसे उज्जैन छुड़वा दिया।

जीवन जीने की मशक्कत ने, फिर कभी इत्मीनान से उज्जैन के साथ मिलने, बोलने, बतियाने, गले लगने या कंधे पर सिर रख रोने की फुर्सत नहीं बख्शी। शादियों, त्यौहारों या किसी गमी के सिलसिले में जाता भी तो परिजनों से मुलाकातों, यारों के साथ अड्डेबाजी, गपशप, पीने-पिलाने के दौर या पुरानी प्रेमिकाओं की याद में छुट्टियां कब खर्च हो जातीं, पता ही नहीं चल पाता।

उज्जैन, जब बेमन छोड़ना पड़ा था मुझे, तो बहुतेरी टूटती-फूटती स्मृतियों को सहेज, दिमाग के ऊपरी आले में रख, मैं भूल गया। स्मृतियों के उसी कबाड़ में एक महीन स्मृति बाबा जयशिव की भी थी।

थोड़े दिनों पहले सरकारी दौरे पर दिल्ली में था कि एक दिन होटल की लॉबी में बचपन का लंगोटिया महेश तनेजा टकरा गया। बहुत बदल गया था। अधगंजा सिर, आंखों के नीचे लटक आई थैलियां, सुनहरी फ्रेम का चश्मा, खिचड़ी मूंछे, नाक के आजू-बाजू चिंता रेखाएं, दोहरी ठुड्डी और दूर तक चली आई तोंद। भड़कीली सफारी, उस पर तेज़ इत्र, सफेद चप्पलें, महंगी कलाई-घड़ी, कई उंगलियों में विभिन्न नगों की अंगूठियां और हाथ में नन्हा सा मोबाइल फोन। पक्का सिविल ठेकेदार। एक पल, पहचानने में दिक्कत हुई। लेकिन दूसरे ही पल हम गले मिल रहे थे।

लगभग अगवा कर, वह मुझे अपने घर ले गया। पत्नी से, बेटे-बेटी से, चहकते हुए मिलवाया ‘मेरा यार आया है।’ मैं, मम्मीजी से मिलने को व्याकुल था। अपने कमरे में गुमसुम बैठीं, वह माला जप रही थीं। झुर्रियों में दबी आंखों की बिनाई कमजोर हो चुकी थी। मुझे पहचान नहीं पाईं। जब, पुराने दिनों के कुछ हवाले दिए महेश ने, तो गुजिश्ता दौर एकाएक झिलमिलाया उनकी आंखों में और फिर टप-टप टपकने लगा। अपने पास बिठा, देर तक मेरा सिर सहलाती रही। अम्मां के हाल पूछती रहीं।

उस रात, महेश के घर की छत पर महफिल जमी। रम ने जल्द ही रंग दिखाना शुरू किया। गिलासों में बर्फ के टुकड़े और हमारा बचपन, तेजी से पिघलना शुरू हो गए। घुटनों तक ढीली चड्डियां पहने, एक दूजे का हाथ थामे, हम उज्जैन की तंग गलियों में भटक रहे थे। गिल्ली-डंडे से लगाकर बैठक-चांदी तक सारे खेल हमने खेले। बीच-बीच में पेड़ों पर चढ़े, झूले पर झूलते रहे या साईकिलों पर सवार हो दूर-दूर तक घूम आए। आंखों में शालिनी, ज्योति, कुसुम और चित्रा की गड्ड-मड्ड शक्लें डूब-उतरा रही थीं। ओठों पर रह-रह कर चम्मू, गुड्डू, पप्पू और नंदू के नाम फिसल रहे थे, जबान पर कच्ची इमलियों और कबीट का खट्टा स्वाद मचल रहा था। हमने बरसाती नाले से रंगीन मछलियां पकड़ीं और कांच की बोतल में बंद कर लीं। शर्त लगा कर, नदी के इस से उस पार तक, दस बार तैरे। थक कर मंदिर की ओट में बैठे। छिप-छिप कर घाट पर नहाती औरतों को देखा। कक्षा में अकेली पा, किरण के गाल की पप्पी ले ली। शिकायत के डर से कुछ दिन स्कूल ही नहीं गए। श्रद्धापूर्वक रानाडे सर, जो फौज से रिटायर होने के बाद निःशुल्क गणित पढ़ाने आए थे के चरण स्पर्श किए। खूब याद आईं प्रेरणा मैडम, जो इतनी सुंदर थी कि सारे दोस्त बड़े होकर उन्हीं से शादी करने का ख़्वाब देखते थे। अतीत की स्वप्निल धूप-छांव में ही बाबा जयशिव ने यादों के दरवाजे पर, हौले से घंटी टुनटुनाई, जब महेश ने छेड़ते हुए पूछा था, ‘यार तू इस नौकरी-वौकरी के पचड़े में कैसे पड़ गया? तेरा तो साधु बनने का इरादा था न, बाबा जयशिव जैसा। भूल गया?’

हम नहीं जानते थे कि बाबा जयशिव जिंदा भी है या मर गया।

महेश के साथ हुई इस मुलाकात के बाद से, जयशिव का अंधड़ जेहन में लगातार घुमड़ता रहा। दफ्तर में दोस्तों से उसका जिक्र किया, तो वे उपहास में हंस दिए। मुझ जैसे नास्तिक से ऐसा वाक्या सुन, उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने उसे गप्प, वहम, मजाक व अंधश्रद्धा ठहराया। पत्नी को बताया, तो देर तक हंसती रही और ताना मारते हुए बोली, ‘तुम अभी बच्चे के बच्चे ही हो।’

लेकिन मुझे चैन नहीं था।

बाबा जयशिव के ख्याल का असंख्य पैरों वाला कीड़ा, दिमाग में दिन-रात चल रहा था। न घर में मन लग रहा था, न दफ्तर में। ‘अंधेरे में’ के मुक्तिबोध याद आए बेतरह -

मेरा सिर गरम है

इसीलिए भरम है

सपनों में चलता है आलोचन,

विचारों के चित्रों की अवलि में चिंतन।

निजत्व-भाफ है बैचेन,

क्या करूं, किससे कहूं,

कहां जाऊं, दिल्ली या उज्जैन?

मैंने तय पाया उज्जैन। खोजूंगा बाबा जयशिव को। अखबारों, टी.वी. चैनलों पर सदी के पहले सिंहस्थ की धूमधाम थी। पत्नी और बच्ची भी उत्सुक थे। लिहाजा दफ्तर से छुट्टी ले, उज्जैन जा पहुंचा। अम्मा खुश हुई कि अरसे बाद मैं सिर्फ आराम के लिए उसके पास आया हूं।

घरेलू गप्पा-गोष्ठियों में इधर-उधर की बातों के सहारे, अम्मा और भैया से बाबा जयशिव का जिक्र किया। निराश होना पड़ा। मैंने पाया, उनकी यादों के कोठार के कहीं अंधेरे कोने में दबी-छिपी पड़ी है, उसकी स्मृति। जिसे बाहर निकालने, बुहारने में उनकी दिलचस्पी न देख, दोस्तों की ओर रुख किया। लेकिन उनके पास राजनीति, समाज, संस्कृति, टी.वी, सिनेमा, सेक्स, धर्म, दंगे, क्रिकेट, फैशन, शेयर बाजार, महंगाई, युद्ध से लगाकर कसरत करने के अत्याधुनिक उपकरणों व हाजमा दुरुस्त करने के नवीनतम उपायों तक न जाने कितने ज्वलंत, प्रासंगिक व प्राथमिक विषय थे, सिर फुटौव्वल के लिए। जिनके समक्ष बाबा जयशिव का प्रसंग रूमानी नॉस्टेल्जिया।

उस स्मृति से किनारा करने के लाख यत्न किए। करवटें बदली, खिड़की की सलाखें गिनी, पत्नी के शरीर को उलट-पुलट दिया, किताबें खोलीं और बंद की, टी.वी चलाया बेमतलब, लेकिन सब बेकार। एक फांस की तरह मस्तिष्क में चुभी हुई थी वह याद। आखिर, आंखों-आंखों में ही कट रही उस रात, मैंने निश्चय पक्का किया और दूसरे दिन अलसुबह उसकी तलाश में अकेला ही निकल पड़ा।

महाकाल, हरसिद्धि, रामघाट, नृसिंह घाट, दत्त अखाड़ा, गढ़ कालिका, भर्तृहरि गुफा, सिद्धवट, कालभैरव, मसान भैरव, गंगा घाट, मंगलनाथ, नगरकोट की देवी घंटों तक खाक छानी। यहां तक कि रेल्वे स्टेशन, बस स्टैंड के मुसाफिरखानों, रैन बसेरों से लगाकर वेश्याओं की बस्ती और कुष्ठ रोगियों के आश्रम तक में ताक-झांक कर आया।

पुजारियों, पंडों, जोगियों, दर्शनार्थियों, ट्रैफिक हवलदारों, भिखारियों और हिजड़ों तक से उसके बारे में पूछा। कुछ पता नहीं चला। पूरे हुजूम में बस बाबा जयशिव नहीं था।

थक कर, एक खोखे पर समोसा खा, चाय पी और पैर फैलाते हुए सिगरेट सुलगाई ही थी कि दिमागी-सिगड़ी को अंगार मिला। खटाक, माचिस की तीली की हल्की आवाज के साथ, जेहन में कौंधा, मरघट!

मैं मरघट के रास्ते पर बढ़ चला।

अमूमन जैसे कि मरघट होते हैं, उजाड़, वीरान, सांय-सांय कर डराते हुए, ये वैसा नहीं था। न भयभीत करता सन्नाटा, न गिद्धों के झुंड या झींगुरों की कर्कश आवाजें या सूखी-पत्तियों की डरावनी खड़खड़ाहट। एक शांत और साफ-सुथरा श्मशान था, अंतिम संस्कार के लिए बने व्यवस्थित चबूतरों वाला। वहां भीड़ नहीं थी। एक बुझती चिता के अंतिम अंगारे धीमे-धीमे चटक रहे थे। वातावरण में हल्की सी चिरायंध थी। भिखारीनुमा एक कृशकाय बूढ़ा, फेंका हुआ कफन बटोर रहा था। कुछ मरियल और खुजेले कुत्ते, एक हड्डी के लिए आपस में गुंथे हुए थे। मृतक के शोकाकुल परिजन, घाट की सीढ़ियों पर गुमसुम बैठे थे। एक वृद्ध की छाती में सिर छिपा, सिसकते किशोर की हिचकियां, माहौल को गमगीन बना रही थीं।

मृत्यु भय की पदचापें एकाएक महसूसीं और सिहर गया। मुख्य घाट से आगे बढ़ गया। मन को थिर कर, यहां-वहां टटोला। पहली नजर में तो बाबा जयशिव के वहां होने का, कोई चिह्न नजर नहीं आया। जहां खड़ा था, पेड़-पौधों के झुरमुटों के बीच से एक पगडंडी नीचे ढुलक गई थी। यूं ही हौले-हौले उस पर सरक गया। एक जगह वो ठहर गई और ऊबड़-खाबड़, टूटी-फूटी पथरीली सीढ़ियां शुरू हो गईं। नदी में उतरती हुई। नदी क्या, सड़े पानी का पोखर। ठहरे हरे पानी की सड़ांध, हवा में हिलारें ले रही थी। नाक पर रुमाल रख, एक-एक सीढ़ी उतरता गया। बीच में एक बरगद मिला। पसरा हुआ। उसकी विशाल छाया में शरण ली। फैली हुई जटाओं पर कुछ कौवे सुस्ता रहे थे। उनकी कांव-कांव, दृश्य की खामोशी को बीच-बीच में तोड़ देती थी। पसीना पोंछते हुए सिगरेट सुलगाई। दृश्य को समेटने के लिए गर्दन को बाएं से दाएं छोर तक, अर्धवृत्त में घुमाया। दूर से एक पतली धार में बहकर आती हुई नदी थी। बिल्कुल बांईं ओर मुख्य घाट था। छोटे-छोटे मंदिरों के चमकते कलशों पर पताकाएं फरफरा रही थीं। लोग नहा रहे थे। पुल थे, जिन पर वाहनों और भीड़ की लगातार आवाजाही थी।

सामने, हरियाली के दूर तक जाते सिलसिले को, ईंट के भट्टों से उठती हुई धुएं की धूसर लकीरें, जहाँ-तहाँ तोड़ रही थीं। दूर, दायीं ओर निर्जन पहाड़ियां थीं। जंगली वनस्पतियों से लदी-फदी। जिनके बीच एक पुराना, जर्जर और त्यक्त मंदिर था। बस वही उसी मंदिर के पास, एक चट्टान की काली छाया में, लेटी हुई आकृति का किंचित आभास था। मैंने नजर गड़ाई। आकृति वहां थी। उत्साहित हो, दौड़ पड़ा उस तरफ। आस-पास फैले हुए निर्जन सन्नाटे से सिहर, फिर ठिठक गया। कुछ क्षण खड़ा रहा। ध्यान से देखता रहा। आकृति वहां निश्चित तौर पर थी। संशय और भय से घिरा, चैकन्ने कदमों से आहिस्ता-आहिस्ता उस ओर बढ़ा। धीरे- धीरे स्पष्ट होती गई आकृति। कुछ और नजदीक गया। थोड़ी देर तक शंका कुनमुनाती रही। फिर एकाएक विश्वास लौटा। ‘मिल गया आखिर।’ मैं बुदबुदाया।

वही सांवली काया, नाटा-कद, नाक नक्श, कड़ा, कमंडल, त्रिशूल, डमरू और लकड़ी के खड़ाऊ। गले में रुद्राक्ष की माला, भस्म का त्रिपुंड और कानों में बालियां। कमर पर बंधा रहने वाला भगवा लंगोट बदरंग, मैला और चीकट हो चुका था। जटाओं और दाढ़ी में बेतरह सफेदी फैल गई थी। चेहरा झुर्रीदार, अशक्त बूढ़ा दिखने लगा था। पेट धंस गया था। छाती पर पसलियां उभर आई थीं। कंधों की कड़ी हड्डियां नजर आ रही थीं। दुर्गंध का भभका उठ रहा था। उसके मुंह पर, मक्खियां भिनभिना रही थीं। आंखें बंद किए बेसुध-सा पड़ा हुआ था।

‘वही है।’ आती हुई उबकाई को रोकते हुए, मैंने मन को तसल्ली दी।

अंततः अपनी खोज सफल होने पर मैं खिल उठा और चिहुंक पड़ा, ‘जयशिव।’ ये चिहुंक, बचपन के किसी दिन से, मचलती हुई चली आई थी।

‘...’ आकृति की न आंखें हिलीं न ओंठ।

‘जयशिव! कितने बजे?’ बदबू को सहन करते हुए उसके और करीब जा पुकारा।

मगर पत्थर के बुत सी आकृति बेहरकत रही। वही है या कोई और? संदेह के हथौड़े ने दिमाग ठकठकाया। लेकिन उस काया का आयतन, वह नख-शिख, मेरी स्मृतियों की स्लेट पर इस कदर गहरे अंकित थे जिन्हें मेटना मुश्किल था। मैंने हार नहीं मानी। इस बार उसके कान के बिल्कुल करीब जा पूछा, ‘जयशिव कितने बजे?’

‘बारह...’ एक अस्फुट स्वर हवा में थरथराया, कुछ पल।

मैं भौचक। घड़ी देखी, दो बजकर दस मिनट हो रहे थे। सोचा, सुनने में गलती हुई शायद।

समाधान के लिए पुनः प्रश्न दोहराया, ‘जय शिव कितने बजे?’

‘बारह।’ इस बार जवाब स्पष्ट और मुखर था।

अचानक एक जादुई सतरंगी तिलस्म भरभरा कर, आंखों के सामने ढहने लगा। जिसके सचमुच होने का मैं बरसों गवाह रहा। जिसकी तरह बनना मेरे बचपन का ख्वाब था। जिसके जिक्र को मेरे सहकर्मियों ने वहम, मजाक, गप या अंध श्रद्धा ठहरा, खिल्ली उड़ाई। पत्नी ने बच्चा कहा। मन डूबने लगा। क्या इसे ढूंढने की बेचैनी और मेहनत जाया गई? ये बाबा जयशिव ही है या कोई पाखंडी, ढोंगी? बुढ़ापे में अपनी चमत्कारी विद्या भूल-बिसूर तो नहीं गया?

मैं, उस रोमांचक करिश्मे को नष्ट नहीं होने देना चाहता था। हिम्मत जुटा अंतिम कोशिश की, ‘जय शिव ! कितने बजे?’

‘अबे ऽऽऽ बोला न बारह। सुनाई नहीं देता क्या बहरे?’ क्रोध में दहाड़ता उठ बैठा वह पत्थर का पुतला।

मैं सहम कर कुछ कदम पीछे हटा। अवाक्, कभी कलाई पर बंधी घड़ी तो कभी बूढ़े, अशक्त और क्रोधित जयशिव बाबा को टुकुर-टुकुर देखता। कलाई घड़ी उसकी आंखों के सामने करते हुए, प्रतिवाद की कोशिश की ‘अभी तो दो बजकर...’

‘चोप्प।’ फुस्कारते हुए बीच में रोका उसने और मेरा हाथ पकड़ कर नीचे झटक दिया।

मैं, अंदर तक कांप गया। सोचा, व्यर्थ ही इसे ढूंढ़ने की जोखिम उठाई। वह तेजी से मेरी और झपटा।

‘स्साले। बोला न बारह बज गए। एक बार, दो बार,  दस बार बोला कि बारह बज गए, बारह बज गए। तो भी पूछता ही जा रहा है। जयशिव कितने बजे, कितने बजे?’ हथेली से प्रश्नवाचक भंगिमा बना, चेहरे को विकृत कर, मटकते हुए, उसने चिढ़ाया।

मैं कुछ और कदम पीछे लड़खड़ाया।

वह फनफनाता हुआ मेरी तरफ आ रहा था। निस्तेज काया में नामालूम कहां से बिजली की रफ्तार आ गई थी। आंखें फैलाई उसने, जिनमें, दूर घाट पर बुझ रही चिता की लाल-लाल चिंगारियां चटक रही थीं। क्रोधित आंखों से मेरी भयभीत आत्मा के भीतर तक झांका उसने। मेरे रोंगटे खड़े हो गए। वह और करीब आ गया। इतने करीब कि उसकी सांसों का गर्म लावा, मेरी गर्दन पर बिखर रहा था। मैं पसीने से भीग गया। मेरी गर्दन पकड़ ली उसने और धुंधुआती चिता की ओर घूमा, चीखते हुए पूछने लगा, ‘वो देख वो। वो मुर्दा किसका है जानता है?’ वह एक क्षण ठहरा फिर बोलने लगा, ‘नहीं जानता? अबे सत्य की लाश है वो। मर गया सच तो फूंक दिया उसको। राख कर दिया।’

वह सन्निपात की दशा में पहुंच गया था। आवेश में झूम-झूमकर चिल्लाने लगा, ‘पुण्य मर गया। प्रताप मर गया। बुद्धि, शरम, हया भी मर गई। जला दिया। सबको जला दिया।’

उसने अभी भी मेरी गर्दन पकड़ रखी थी। मेरी जान गले तक आ गई थी। फिर मेरी गर्दन को बलपूर्वक नीचे झुका, अपने पैरों से जमीन से ठोकते हुए, प्रश्न किया उसने ‘ये क्या है बता साले ये क्या है?’

‘मिट्टी।’ कांपती आवाज, जैसे-तैसे निकली मुंह से।

‘अरे ऽऽ गधे इसे मिट्टी कहता है। पवित्र क्षिप्रा नदी को मिट्टी कहता है। मिट्टी में मिल जाएगा तू। स्साले। पर क्या करेगा तू? नदी सूख गई तो मिट्टी ही कहेगा उसको। क्यों, क्यों सूख गई नदी, बता?’ उसने मेरी गर्दन पर अपनी पकड़ मजबूत की।

मुझे चुप रहने में ही भलाई जान पड़ी।

‘नहीं मालूम?’ उसने फिर फटकारना शुरू कर दिया, ‘अबेऽऽ जब सच मर जाएगा, ईमान मर जाएगा, धरम मर जाएगा तो सूखेगा नहीं, नदी का पानी? ताब रहेगा उसमें? वेग रहेगा?’ एकबारगी जोर से झिंझोड़ कर, उसने गर्दन छोड़ दी मेरी।

घूर रहा था वह। कीच भरी आंखें जल रही थीं। जटाएं खुल कर, कंधों पर छितर गईं। ओठों से उड़ा फिचकुर दाढ़ी में फैल गया था। शरीर से उठती दुर्गन्ध, भीषण थी।

मुझे मितली सी आ रही थी।

कुछ खामोश पल गुजरे। फिर वह सूखी पड़ी क्षिप्रा नदी की छाती पर, धप्प-धप्प करता, तेज कदमों से बेतरतीब डोलने लगा। हाथों से विचित्र मुद्राएं बनाता। रुष्ट स्वर में, आकाश ताकते हुए, किसी अदृश्य को संबोधित करने लगा, ‘देश के दुनिया के बारह बज गए और ये पागल हमसे बाबा जयशिव से पूछते हैं, घड़ी दिखाते हैं कि कितने बजे?’

उदासी की डरावनी छाया, उसके चेहरे पर घिर आई। वह आंखें तरेर रहा था। फिर दांत पीसते हुए अपने फेफड़ों की सारी ताकत लगा चीख-चीख कर बोलने लगा, ‘कोई नहीं बचेगा। अरे जरा सोचो रे हिंदुओ, मुसलमानों कैसे बचोगे रे? एक-दूसरे को काट कर? जला कर। रोको रे इसे रोको कोई।

खीज कर वह अपनी जटाएं नोचने लगा, ‘कौन रोकेगा इसे? मुख्यमंत्री? वह तो खुद कत्लेआम करवा रहा है! पुलिस? वो तो बेकार है। घर-मकान स्वाहा, जिंदगी भर की कमाई लुट गई रे। तो देश का बेड़ा गर्क नहीं होगा? स्साले पूछते हैं कितने बजे? सब नेता फिजूल, कुर्सी के दलाल लाशों पर रोटी सेंक रहे हैं किसी का दुःख-दर्द दिखता नहीं अंधे, कुत्ते, कमीने थू।’ घृणा से बलगम थूका उसने, जो दाढ़ी में उलझ गया।

मैं हतबुद्धि, काठ के पुतले सा जड़ हो चुका था।

त्रिशूल पर लटके डमरू को निकाला उसने और सड़क पर मजमा जमाने वालों की तरह गोल-गोल चक्कर खाते हुए घूमने लगा। डम... डम... डम... डमरू बजाता मदारी के से नाटकीय अंदाज में, ऊंची आवाज में बोलने लगा, ‘आग लग गई, आग लग गई। चारों दिशाओं में आग लग गई। दौड़ो-दौड़ो पानी लाओ रे।’ फिर ठिठक कर एक क्षण, मुझे देखा और पूछने लगा ‘कहां से लाओगे पानी? अकाल पड़ा है, नदियां सूख गईं हैं, आग लग गई कैसे बुझाओगे?’ 

‘पानी चाहिए?’ वह मुझ से मुखाबित था।

‘यह लो यह लो पानी।’ उसने अपनी लंगोटी खोल दी और नंगा हो गया। वह मेरे सामने पेशाब करने लगा। 

‘क्या बुझेगी आग इतने पानी से? नहीं न ! तो अब कहां से लेकर आऊं पानी? पापियों! सारी नदियां सुखा दीं तुमने! तो अब जलो, मरो।’

उसकी मर्मान्तक-चीखें, कलेजे को चीर रही थीं।

वह जहां खड़ा था, वहीं धम्म से बैठ गया। खामोश मुझे देखता रहा। फिर दयार्द्र आंखों से आकाश को देखता रहा और अचानक जमीन पर सिर फोडते हुए विलाप करने लगा, ‘नासपीटों ! सब बर्बाद कर दिया तुमने। अयोध्या, अहमदाबाद सब बर्बाद। सब बर्बाद! सब राख कर दिया तुमने रे, तुमको कोई माफी नहीं। राम के नाम पर राम की ही मर्यादा तोड़ते हो, दुष्टों। तुम्हारा नाश होगा। कुत्तों की मौत मरोगे।’

उसके माथे से निकला खून चेहरे पर बह आया था। बिखरी जटाओं, दाढ़ी, मिट्टी, थूक, बलगम और खून से लिथड़ा चेहरा, भयानक लग रहा था। मैं भयभीत था, कुछ सूझ नहीं रहा था।

‘जालिमों, सड़-सड़ के मरोगे। कीड़े पडेंगे। डाकुओं! जनता को लूट कर अपने घर भर रहे हो भाई-भाई में दीवारें उठा रहे हो, हिटलर की औलादों ! जनता में डंडा करते हो स्सालों एक दिन तुममें वो डंडा करेगी। फिर पानी भी नहीं मांग पाओगे कमीनों!’

वह चीखते, चिल्लाते हांफ गया। कमजोर, सांवला शरीर पसीने से तर था। सांसों की ध्वनि हवा में गूंज रही थी। उसका चेहरा विषाद में डूबा हुआ था। वह अब कुछ धीमे बड़बड़ा रहा था, ‘जनता भूखों मर रही है, अनाज गोदामों में सड़ गया। किसान खुदकुशी कर रहा, बच्चे, औरतें तंगहाल, नौजवान बदहाल और ये स्साले चैन की बंसी बजा रहे। मेरेंगे स्साले  सब के सब।’

मैं असमंजस में था, भागना चाह रहा था, लेकिन भाग नहीं पा रहा था। गला सूख रहा था, पैर कांप रहे थे।

‘इधर आ।’ इशारे से बुलाया उसने।

मैं पस्त। काटो तो खून नहीं।

‘हां, हां तू इधर आ स्साले।’

अपने आप पर, मन ही मन लानत भेजता, डरते-सहमते उसके करीब पहुंचा। ऊपर से नीचे तक घूरा उसने। मेरी घिग्घी बंध गई।

अपना बदरंग, मैला और चीकट लंगोट दिखाते हुए उसने शांत भाव से पूछा ‘इसका भगवा रंग क्यों उड़ा? बता ये मैला क्यों हो गया?’

प्रश्न, मैं समझ नहीं पाया। दुविधा को तोड़ वह खुद ही बोल पड़ा, ‘नहीं जानता न।’

‘अबे उल्लू के पट्ठे ! इसका रंग चोरों ने चुरा लिया। मासूम बच्चों की किताबों में भर दिया, बदमाशों ने। हरामियों ने इतिहास और संस्कृति को रंग दिया उससे। फिर मेरी लंगोटी मैली नहीं होगी? दाग नहीं लगेंगे?’ वह विक्षिप्त अट्हास कर रहा था।

मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम। भागना तय कर उसकी निगाहों से अपने को बच

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