मैं आज आपको जीवन की सच्ची कथा सुनाने जा रही हूं। सुनेंगे? रेवती रमण, जवाहर और रामचरण की तिकड़ी गंगा किनारे वाले लॉ कॉलेज की विख्यात थी। तीनों तीन तरह के पर सदा साथ चिपके रहते। रेवती रमण न सिर्फ हंसोड़ थे बल्कि किसी रोते हुए को भी अपनी चुटीली वाणी से हंसाकर लोटपोट कर देते थे। वे उत्तर के बड़े किसान किंतु जिला कोर्ट से सफल संपन्न पिता के पुत्र थे। उनका मन कक्षा में कभी नहीं लगता। उनका मानना था कि कानून की पेचदगियां क्लास रूम में पढ़ाके समझाई नहीं जा सकतीं, इसलिए वह क्लासरूम में बैठे-बैठे कागज फाड़-फाड़ के कनकौए बना के प्रोफेसर साहब की ओर जैसे ही वह मुड़ते फेंकते रहते जो उनकी शर्ट में कभी कान पर टकरा कर नीचे गिरता। कभी-कभी किसी प्रोफेसर की नजर जाती वरना सारा वार मात्र इसी सफलता का भागी होता कि छात्रों को मुंह दबा कर हंसा पाते, विषय विमुख कर पाते। कभी-कभी ही कोई प्रोफेसर ध्यान देते और नाराज होते, 'आप सभी लोग कम से कम ग्रेजुएट तो हैं। कल को कोर्ट में गाउन पहनकर जज के सामने तकरीरें पेश करेंगे, तब यही हरकत करेंगे? जज की ओर कनकौए उछालेंगे? हद!’ पूरी कक्षा दबी-दबी हंसी से दोलायमान हो जाती और प्रोफेसर झेंप जाते। रेवती रमण मुंह में पान दबाए गंभीर मुद्रा में बैठने की असफल चेष्टा करते।
जवाहर और रामचरण अगली बेंच पर गुमसुम बैठे होते। जवाहर बेहद संजीदा इंसान था, गो कि वह मानता था कि लॉ कॉलेज में पढ़ाने वाले प्रोफेसर सतही ज्ञान रखते हैं। उनका लेक्चर सुनकर कोई लाभ नहीं तथापि अनुशासन का पालन करते हुए चुपचाप बैठा रहता। कनकौए उड़ाने से इसको कोई फर्क नहीं पड़ता, यह रेवती रमण का विरोध भी नहीं करता। रामचरण जवाहर के बगल की सीट पर बैठा-बैठा मन ही मन भय खाता था कि प्रोफेसर साहब कहीं रेवती रमण को लोकेट न कर लें और उसे डांट न पड़ जाए। पर ऐसा कभी हुआ नहीं। कक्षा के बाद जवाहर और रामचरण एम.ए. की कक्षा करने चले जाते और रेवती रमण एक उभरते हुए वकील के साथ उनके चैंबर में काम करते। वकील साहब उनके शहर के थे सो वह इनके अभिभावक भी थे, पिताजी के आदेश का पालन करते कक्षा में शरारत करते रेवती रमण वकालत का गुर सीख रहे थे जबकि उनके दोनों मित्र एम.ए., पी.एच.डी. करने का मन बनाए हुए थे। तीनों एक साथ एक फ्लैट लेकर रहते थे। रामचरण का घर नजदीक था सो उनके घर से अक्सर भोजन सामग्री आती। एक वर्ष की परीक्षा हो चुकी थी, उन दोनों ने एम.ए. भी कर लिया था। जवाहर दूसरी बार एम.ए. करके अपनी इच्छित विषय को लेकर कलकत्ता चला गया। रामचरण और रेवती रमण बी.एल.पार्ट-2 में पढ़ने लगा और वकील बनकर निकला। जवाहर पहले से शादीशुदा था। रामचरण और रेवती की शादी बी.एल. की पढ़ाई करते हुए ही हो गई थी। उन दिनों शादी तो हो जाती पर गौना बाद में होता। गंगा के दक्षिण भाग में गौने तक पति-पत्नी का रिश्ता अनजान होता। पर ये शरारती युवक इस जुगत में होते कि कैसे छुपकर अपनी ब्याहता से मिल लिया जाए। रेवती रमण की शादी के छह माह बाद ही गौना हो गया। उनकी पत्नी रानी पंद्रह-सोलह साल की गदबदे बदन वाली स्त्री थी। उन दिनों के लिहाज से पढ़ी गुनी यानी मैट्रिक पास थी। बेहद खुशदिल और सुगृहिणी। भोली और चंचल। रेवती रमण अपने घर में अकेले पुत्र थे। कुछ दिनों तक अपने शहर में पिता के साथ वकालत कर शहर छोड़ राजधानी आ गए। वहां हाईकोर्ट ज्वायन कर लिया। कायदे से उन्होंने पहले जमीन खरीद कर घर बनाया तब हाईकोर्ट आए। रामचरण हाईकोर्ट में जम चुके थे। जवाहर किसी बड़ी सरकारी नौकरी में चले गए थे। तीनों जब भी मिलते हंसी का फव्वारा फूटता रहता। रेवती रमण के प्रभाव में गंभीर जवाहर भी बढ़-चढ़ कर मजाक करने लगते। जब पूरा परिवार इकट्ठा होता तो पत्नियां और बच्चे यह देख बेहद चकित होते कि ये तीनों साथ मिलकर बच्चे कैसे बन जाते है! रानी अक्सर रेवती रमण की सीमा से बाहर जाती मजाकिया बातों से एतराज जताती। जवाहर की पत्नी सीमा साथ मिलकर हंसती और क्या करती।
रानी किसी भी उत्सव में तल्लीन होकर भाग लेती। ढोलक बजाकर गाना, झूमर नाचना साथी स्त्रियों को नचवाना उसका भी शगल था। रेवती की सहमति सब में रहती। वह जवाहर और सीमा से कहता कि देखो मैंने इसे भी अपना-सा बना लिया है। धीरे-धीरे रेवती और रामचरण बड़े वकील बन गए। उनके पास पैसों के ढेर लग गए पर मसरूफियत बढ़ गई। बीबी बच्चों को समय न दे पाते। घर में उदासी का माहौल हो गया था। मात्र छुट्टिïयों या उत्सवों पर तीनों मित्र और उनका परिवार बैठता तो हंसी मजाक का वातावरण आता। माहौल खुशनुमा बनाने का दारोमदार रेवती रमण पर ही था और रेवती की धारा का उत्स थी रानी। धीरे-धीरे समय अपनी लय में आगे बढ़ता गया। रेवती रमण की बड़ी बेटी की शादी खूब धूमधाम से हुई। रानी गृहिणी होते हुए भी नाच गाने के धमाल में जुटी होतीं। सीमा उन्हें देखकर चकित रहतीं। उनका अजस्र आनंद का भंडार वातावरण की सृष्टि कर देता। इन तीनों दोस्तों की इस खुशनुमा जिंदगी में व्यातिरेक तब आया जब इनकी बेड़ी बेटी रंभा बीमार पड़ गई। लाख खर्चे के बावजूद भी वह किडनी फेल हो जाने से मात्र चौबीस वर्षों की आयु में गुजर गई। तीनों घरों में सनाका खिंच गया। रंभा का एक पुत्र था जिसे रानी पालने लगी। अपने आंसू पी लिए फिर ढोलक फिर गान फिर थिरकते पैर। इनकी महफिलें कम तो हुईं तुरत वीरान न हुईं। रंभा के पति की दूसरी शादी में बढ़-चढ़ कर भाग लिया, खूब ढोलक बजाया, थिरक कर नाचीं और वहां से घर आकर सीमा के कंधों पर सिर रख कर फूट-फूट कर रोईं। 'ऐ दीदी, आपके पास रो लेती हूं। आप तो मेरा दु:ख समझ रही हैं न, वकील साहब और बच्चे मेरा आंसू कभी न देख पाएंगे।’ यह एक साधारण शिक्षिता स्त्री के भाव थे।
धीरे-धीरे काल अपनी गति से बढ़ रहा था। सारे बच्चे बड़े हो गए, सबकी शादियां हो गईं। जवाहर के बेटे की शादी में रंभा का बेटा भी रानी के ढोलक की थाप पर थिरक रहा था और वह झूमकर गा रही थी-
'बेटा बेटा मत कर सासू अब तो बेटा मेरा है...’
सिर्फ सीमा उसके अंदर के दर्द को समझ रही थी। रानी के घर बहुएं आईं, तीन नातिन और पोतियां हुईं, पोते हुए। एक ढर्रे की जिदंगी थी। अब रेवती रमण किस जज या जूनियर के साथ कनकौए उड़ा रहे हैं, इसकी फिक्र इसे कहां थी। परंतु रेवती बेहद मसरुफियत में भी रानी के पास आकर उनके मायके पर तंज कस कर हंसी मजाक कर अपना तनाव दूर कर लेते। वकालत के साथ राजनीति यानी बार कौंसिल की राजनीति में रमे हुए थे। रानी कई बार समझती, 'अपनी उम्र देखिए इस सब से अलग हटिए।’ लेकिन उनकी कभी नहीं सुनते। बेटे दामाद सभी वकील थे सो किसी प्रकार का कोर्ट संकट समझ में नहीं आता था। बेटा भी बार कौंसिल की राजनीति में सक्रिय सदस्य था। सब कुछ अपनी राह पर चल रहा था परंतु काल की गति को कौन जा सकता है?
बेटा अपने पीछे भरापूरा परिवार छोड़ दुर्घटना में मारा गया। यह पूरे शहर को स्तब्ध करने वाला दु:संवाद था। रानी ने अपनी पुत्रवधु की कमर में चाबियों का गुच्छा सौंपकर बिस्तर पकड़ लिया। आंखों के आंसू ताप से सूख गए। रेवती रमण अपना दु:ख भूल रानी की परिचर्या में लग गए। तीनों मित्र अब भी मिलते, थोड़ी हंसी दबी-दबी होती पर ठहाके थम गए थे। रानी अकेले में सीमा से कहती, 'क्यों हमारी खुशिया ईश्वर को मंजूर नहीं थी दीदी।’
'तुम अब भी ईश्वर का नाम लेती हो रानी, वह है मुझे नहीं लगता।’ सीमा खासी चिढ़ी होती।
'नहीं दीदी, मेरा विश्वास है।’
अपने विश्वास को साथ लेकर चली गई। चुपचाप चली गई दु:खों के पार। हम पहुंचे रेवती रमण के पास। वह मुस्कुराते हुए मिले। घर की भावी योजनाओं पर बोले, बच्चों के कॅरिअर की प्लानिंग पर बोले, जिजीविषा से भरे हुए पचहतर वर्षीय रेवती रमण उर्जसव लग रहे थे। ऐसे कि हमने इधर पंद्रह साल में नहीं देखा था। पिछले साल शादी की पचासवीं वर्षगांठ पर तो बिल्कुल नहीं। बीमार रानी और थके से रेवतीरमण भारी दक्षिणी माला ज्यों अतिरिक्त बोझ। आज अकेले होकर आभा कैसे बिखेर रहे हैं।
'भाभी आपने रानी को कृष्ण और मुझे राधा बनाकर फोटो खींचा था याद है?’ मुझे याद आया, उनके विवाह गौने के बाद यह कौतुक हमने किया था। उन्होंने वह पुराना उखड़ा चित्र मुझे दिखाया, साथ ही कई पुराने भूले-बिसरे चित्र दिखाए। मैं उनके चेहरे का भाव पढ़ने लगी।
'क्या देखती है? क्या मैं रानी की तरह दीखता हूं?’ मैं हैरत में थी कि क्या यह मन पढ़ लेते हैं?
'मेरी राधा नागरि मेरे अंदर है, यही मेरी ऊर्जा है। मैं उसका काम पूरा किए बिना अपने को बीमार पड़ने भी नहीं दे सकता।’
एक कहकहे से उनका चैंबर खिल उठा, ऊपर गरुड़ पुराण हो रहा था, कृष्ण के साथ राधा बने रेवती रमण कृतकार्य और हम विमुग्ध।