दादी याद आती तो उनके साथ अकसर भेड़िया भी याद आ जाता। दादी खुद तो आंगन में सोती पर हमें भीतर कमरों में सुलाती। उन्हें डर था कि कहीं भेड़िया घर की किसी बच्ची को न उठा ले जाए। हम भी जोश से कहते, 'भेड़िया जब उठाकर ले जाएगा, तो क्या हमारी नींद नहीं खुलेगी। हम डंडे से मार मारकर भेड़िए को भगा देंगे।’ पर हमें यकीन था कि ऐसी स्थिति में हम दादी को आवाज लगाने के अलावा और कुछ नहीं कर पाएंगे। अपनी मजबूती और हौंसले के लिए प्रसिद्ध दादी हंसिये से ज्वार या बाजरा की तरह उसकी गरदन काट देगी। इस बात पर अकसर दादी मुस्करा देती। पर कभी-कभी हताशा और निश्चय मिश्रित भाव से कहती, 'यही फर्क है बेटा शेर और भेड़िए में। शेर अपने शिकार को शिकार की तरह झपटता है। लेकिन भेड़िया उसे पहले दोस्त बनाता है, फिर उसे खाता है। कहते हैं भेड़िए को हंसते हुए बच्चे खाने में मजा आता है। इसलिए भेड़िया सोते हुए शिकार को दबे पांव उठा ले जाता है। दूर एकांत में उसे अपने पंजों और गर्दन से गुदगुदाता है। फिर जब वह खूब खुश होकर हंसने खिलखिलाने लगता है तब उसे अपना शिकार बनाता है।’ हमें दादी की ये बातें किसी परी कथा से ज्यादा रोमांचक लगतीं और हम किसी दिन भेड़िए के आ जाने की कल्पना भर से ही पहले पुलकित फिर भयभीत हो जाते।
एक बार छुट्टियों में हमने जिद पकड़ ली आंगन में सोने की। तब थक हारकर दादी ने अगली छुट्टियों में आंगन में सोने देने का आश्वासन दिया। जो काम अगली छुट्टियों में हो सकता है, वह इस बार क्यों नहीं, इसकी समझ हमें अगली छुट्टियों में आंगन की दीवार देखकर आई। हमारे पहुंचने से पहले ही दादी ने आंगन की कच्ची दीवार और ऊंची करवा दी थी। अब आंगन कुछ बंद-बंद पर पहले से ज्यादा सुरक्षित हो गया था। गुलाबी और हरे रंग से दीवार पर बेल बूटे भी बनाए थे। बेल के फूलों के बीच में जगह-जगह छोटे-छोटे शीशे लगाकर दीवार को दादी ने कलात्मक बना दिया था।
दादी को लगता था कि भेड़िया अब दीवार नहीं लांघ पाएगा। बच्चों के सोने के लिए आंगन अब पहले से ज्यादा सुरक्षित है। इसके बावजूद दादी ने आंगन में सोने देने के लिए एक और शर्त लगा दी कि एक रात में सिर्फ एक बच्ची ही उनके साथ बाहर सोएगी। हमारे सोने के बाद दादी हमारी टांग अपनी टांग के साथ रस्सी से बांध लेती। ताकि अगर भेड़िया दबे पांव आ भी जाए तो हमें उठाते ही दादी की नींद खुल जाए और वह भेड़िए की इस धृष्टता का जवाब दे सकें।
दादी के चेहरे पर नजर आने वाला भेड़िए का वही आतंक एक दिन पिताजी के चेहरे पर भी नजर आया और उन्होंने गांव से दूर शहर में ही छुट्टियां बिताने का निश्चय किया। पड़ोस के कुम्हार की बेटी जो खेत में घास लेने गई थी, कहते हैं उसे भेडिय़े ने अपना शिकार बना लिया था। यह रात की वीरानी की नहीं बल्कि जेठ की दुपहरी की सुनसान घटना थी। हर तरफ कुम्हार की लड़की के ही किस्से थे। उसके बाद से लड़कियों ने अकेले खेत में जाना बंद कर दिया और पिताजी ने लड़कियों को गांव ले जाना।
दिन गुजर रहे थे कि एक दिन अचानक खबर मिली कि भेडिए ने शहर में भी दस्तक दे दी है। गांवों के सुनसान खेतों के साथ-साथ अब शहर की गलियां भी उससे सुरक्षित नहीं रहीं। सुनने में यह भी आ रहा था कि शहर में आने से पहले ही भेड़िए ने अपनी चाल और चेहरा भी बदल लिया है। अब वह केवल चरित्र से पहचाना जाएगा, उसे उसके बदले हुए चेहरे में पहचानना और मुश्किल हो गया है। दादी अब नहीं थी, हमें डर लगा कि अब अगर भेड़िया आ गया तो कौन उसका हंसिये से मुकाबला करेगा। हम ही नहीं पिताजी भी हमसे ज्यादा डरने लगे थे। पिताजी और उनके कुछ दोस्तों ने अपनी-अपनी गलियां एक तरफ से बंद करवाने का फैसला लिया। ताकि अगर भेड़िया गली के एक रास्ते से अंदर आ जाए तो उसे भागने के लिए दूसरा रास्ता न बचे।
पिताजी की यह सुरक्षा जिंदगी भर काम आई। हम पर भेड़िए ने कभी हमला नहीं किया। हम खुश थे और बंद गलियों को इसका स्थायी हल मानने ही वाले थे कि एक दिन कहीं से खबर आई कि भेड़िए ने मोहल्ले की ही एक बच्ची को अपना शिकार बना लिया है। हम हैरान थे इस बात से कि जब सब गलियां बंद थीं तो भेड़िया अंदर आया कैसे। पर भेड़िया हमसे ज्यादा चालाक निकला। वह गली में ही नहीं हमारे घर में भी दाखिल हो चुका था। दादी ठीक कहती थी भेड़िए की आहट को पहचान पाना बहुत मुश्किल होता है। अब भेड़िए हमारे बीच घुल मिल कर रह रहा था और हम उसे पहचान नहीं पा रहे थे। देखने में वह बिल्कुल किसी आम आदमी की तरह लगता था पर मौका पड़ते ही अपना चरित्र बदल लेता और किसी भी बच्ची पर झपट पड़ता। उस बच्ची के साथ भी ऐसा ही हुआ था। भेड़िया बहुत दिनों से उनके यहां किराए पर रह रहा था। हंसमुख और मिलनसार भी था। जल्दी ही उसने सबका विश्वास जीत लिया और मौका मिलते ही उस घर की बच्ची को अपना शिकार बना लिया।
वह लड़की अब पूरे मोहल्ले के लिए एक समस्या हो गई थी और मोहल्ले के संभ्रांत लोग इसका हल ढूंढ रहे थे। जब कुछ समझ में न आया तो भेड़िए का भला परिवार देखते हुए बच्ची को सदा-सर्वदा के लिए भेड़िए के ही सुपुर्द कर दिया गया।
हम पर भेड़िए का आतंक दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा था। हम डरे हुए थे। हम अब किराएदारों से बहुत डरने लगे थे। सयानी औरतों ने निश्चय किया कि जिस घर में भी भोली भाली मासूम बच्चियां हैं उन्हें अपना मकान किसी को किराए पर नहीं देना चाहिए। और सयाने लोगों ने अपने मकान किराए पर देने बंद कर दिए।
दिन और मजे में गुजर रहे थे, बच्चियां अब पहले से ज्यादा खुश, आजाद और स्वावलंबी नजर आने लगी थीं। हंसती-खिलखिलाती जब वे स्कूल-कॉलेज जाती तो और खूबसूरत नजर आतीं। शहर के संभ्रांत लोगों के समूह हमें भेड़ियों से निपटने के गुर सिखा रहे थे। दुपट्टे का फंदा बनाना, टंगड़ी मार कर गिराना, अंधेरे में आती आहटों को पहचानना, कोहनी से धक्का देना, पर्स में पिन रखना आदि आदि। लड़कियां ये गुर सीख कर पहले से ज्यादा मजबूत हो गईं थीं। अब अपनी सुरक्षा के लिए उन्हें दूसरों की जरूरत नहीं पड़ती थी। वे कहीं भी अकेले आ जा सकती थीं। पर अचानक एक दिन ऐसी ही एक मजबूत लड़की जो हमेशा खुश रहती थी फिर से भेड़िए की शिकार हो गई। हम हैरान थे कि इतना सब सीखने के बाद भी वह भेड़िए का मुकाबला क्यों नहीं कर सकी। मालूम हुआ कि जितने समझदार हम हुए थे उतना ही ज्यादा चालाक अब भेड़िया भी हो गया था। अब उसने अपना स्थायी शरीर छोड़कर हर आदमी में थोड़ा-थोड़ा वास कर लिया था। समय रहने पर वह किसी भी शरीर में प्रवेश कर सकता था और निकल भी सकता था। अब उससे निपटना और भी मुश्किल हो गया था क्योंकि वह हवा की तरह अदृश्य, भावनाओं की तरह अवर्णनीय हो गया था। उसने हमारे सब प्रशिक्षणों की काट खोज ली थी। इस लड़की के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। भेड़िए ने जब उसे अपनी मीठी बातों में फुसलाया वह खुश हो गई। जब उसने उसकी गर्दन पर गुदगुदाया वह खिलखिलाने लगी। वह हंसती रही, खिलखिलाती रही और धीरे-धीरे अपने सब प्रशिक्षण भूल गई। जब वह हंसी तो उसकी आंखें बंद हो गईं और ठीक उसी समय भेड़िए ने अपने चेहरे पर चढ़ा नकाब हटा दिया। अपने पैने दांतों और नाखूनों से भेड़िए ने उसे लहुलुहान कर दिया। दुपट्टे का फंदा बनाना, टंगड़ी मार कर गिराना, पर्स की पिन का इस्तेमाल, कोहनी का इस्तेमाल धीरे-धीरे सब गुम होता चला गया। भेड़िया उसे गुदगुदा रहा था, वह हंस रही थी। भेड़िए के दांत उसे चबाए जा रहे थे और वह धीरे-धीरे पिघलती, खोती जा रही थी।
मजबूत, होशियार, खुशमिजाज लड़कियों के भेड़ियों से हारने के किस्से दिनों दिन बढ़ते जा रहे थे। स्कूल, कॉलेज, ऑफिस, शहर, गांव अब हर जगह भेड़ियों के तत्व विचरने लगे थे। अब हर समय, हर जगह लोग डरे-सहमे रहते। सब कुछ ठीक ठाक होते हुए भी भेड़िए की दहशत उनके दिलों दिमाग पर छाई रहती। हर शख्स एक दूसरे को शक की निगाह से देखता। भेड़ियों की शिकार लड़कियों की तादात बढ़ती जा रही थी। भेड़िए दिनों दिन बढ़ते जा रहे थे। लड़कियां कमजोर होती जा रही थीं। पर इस सबके बीच एक बड़ा परिवर्तन नजर आया। भेड़िए की शिकार लड़कियां अब गायब नहीं होती थीं, बल्कि वह जिंदा रोबोट बन जाती थीं। चलने, फिरने, काम करने वाली लड़कियां। बाहर से मजबूत, भीतर से कमजोर लड़कियां। सब कुछ ठीक था। वातावरण में हवा, पानी, मिट्टी की तरह भेड़िए की दहशत स्थायी होने लगी थी। शोध अब भी चल रहे थे। भेड़ियों के बढ़ते जाने के, उससे निपटने के और भेड़ियों की शिकार लड़कियों को फिर से वापस हंसती खेलती लड़कियां बनाने की कोशिश के।