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कहानी - सुख पहेली

रामधारी सिंह दिवाकर ग्रामीण जीवन के कथा शिल्पी के तौर पर जाने जाते हैं। पाठकों के बीच उनकी प्रसिद्धि गांव के जीवन को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने वाले कहानीकार की है। उनके बारह कहानी संग्रह और सात उपन्यास हैं। इसके अलावा शोध, आलोचना, संस्मरण आदि पर भी दर्जनों पुस्तकें हैं।
कहानी - सुख पहेली

पिछले महीने होली में गांव गया था। जब भी गांव जाता हूं, बबुआन टोले की पुरानी हवेली में रहने वाली बुआजी से जरूर मिल लेता हूं। सूनी-वीरान-सी हवेली में बिल्कुल अकेली हैं वृद्धा बुआजी। एक नौकर है पुराने समय का। पहले मां थी यहां। हृदय रोग हो गया तो हरेंद्र मां को पटना ले आया। पटना की पॉश कॉलोनी में हरेंद्र के पिता बाबू गजेंद्र नारायण का आलीशान भवन है। हरेंद्र की मां जिनको मैं और मेरी उम्र के सब बड़ी मां कहते हैं, उस भवन में आधुनिक सुख-सुविधाओं के बीच रखी गई हैं। 'रखी गई हैं’ इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि बड़ी मां गांव की हवेली छोड़ कर जाना नहीं चाहती थीं।

 

जब भी पटना में बड़ी मां से मिला हू, वे हमेशा एक ही बात रटती रही हैं, 'हरेंद्र को समझाओ न बेटा, मुझे गांव भेज दे।’

 

'हवेली में अब क्या रखा है बड़ी मां। तीन-चार एकड़ का आम बगान, चार-पांच एकड़ धनहर जमीन। यहां आप इतनी सुविधाओं में रहती हैं। इतना सुसज्जित कमरा, मखमली कालीन, एसी अटैच्ड बाथरूम, गीजर। आपकी सेवा के लिए नौकर-नौकरानियां।’

 

'सो सब तो है बेटा, लेकिन मन बेचैन रहता है अपने गांव के लिए। समझाओ न हरेंद्र को। मुझे भेज दे गांव।’

 

पिछले महीने गांव में बुआजी से मिलने गया तो उन्होंने मुझे एक बटुआ देते हुए कहा था, 'अब ज्यादा दिन जी नहीं सकूंगी रितेश। यह बटुआ भाभी जी की अमानत है, लौटा रही हूं। उनको चुपके से दे देना।’ उस बटुए को सिल दिया गया था- मुहरबंद। टो-टा कर मैंने परखने की कोशिश की- आखिर इसमें है क्या? कुछ पता नहीं चला। पूछना मेरा हक नहीं था।

 

बुआजी का दिया वही बटुआ पटना लौटने पर मैं बड़ी मां को देने गया था। हरेंद्र के उस आलीशान भवन के बड़े से अधखुले गेट पर जो दरबान स्टूल पर बैठा था, मुझे पहचानता था। बावजूद इसके, मेरे हाथ का बैग उसने वहीं रख देने को कहा। आगे सुरक्षा गार्ड खड़ा था। मेरी तलाशी की जरूरत नहीं थी। वह जानता है, मैं यहीं सचिवालय में सहायक हूं और मालिक के गांव का उनका साथी हूं। सुरक्षा गार्ड ने इशारे से मुझे आगे बढ़ने को कहा। लंबा गलियारा था। गलियारे से गुजरते हुए मैं सोच रहा था, हरेंद्र इतनी सुरक्षा के घेरे में क्यों रहता है? क्यों डरा हुआ रहता है? क्या उसका करोड़ों का कारोबार ही उसका शत्रु है? सड़क और पुल निर्माणों के ठेके...शहर का सबसे बड़ा बिल्डर हरेंद्र नारायण। हम दोनों पटना के सेंट माइकल स्कूल में साथ-साथ थे। हरेंद्र ने आईआईटी कानपुर से सिविल इंजिनियरिंग की डिग्री ली और पिता के फैले हुए कारोबार की बागडोर संभाली। मैं एक क्लर्क का बेटा क्या बन सकता था। सचिवालय सहायक की नौकरी मिल गई, यही बहुत।

 

ब्लू हेवेंस कंस्ट्रकशन कंपनी प्रा. लि. का बड़ा-सा साइनबोर्ड सामने था। दफ्तर के एक बड़े से हॉल में आठ-दस कर्मचारी कंप्यूटर पर काम कर रहे थे। उनमें तीन खूबसूरत महिलाएं थीं। बगल में हरेंद्र का कमरा था। कमरे के सामने स्टूल पर आदेशपाल बैठा था। मुझे देखा तो खड़ा हो गया। हरेंद्र ने उत्फुल्ल भाव से मुस्कुराते हुए कहा, 'अरे रितेश। आओ, बैठो।’ फाइल बंद करते हुए वह मुझे देखने लगा।

 

'ठीक हूं हरेंद्र भाई। होली में गांव गया था। हवेली में बुआजी से मिला। वह एकदम अकेली हैं। बहुत उदास। देखकर लगा, जिंदगी से हार गई हैं। बड़ी मां उनके साथ थीं तो दोनों हंसती-बतियाती रहती थीं।’ हरेंद्र धीरे से हंसा, 'मैंने तो बुआजी से भी कहा था, चलिए पटना लेकिन पता नहीं क्या है उस गांव और उस खंडहर हवेली में। मां भी छोड़ना नहीं चाहती थीं हवेली। वह तो ब्लड प्रेशर और हार्ट का प्रॉब्लम था कि मां किसी तरह यहां आने को राजी हुई। लगता है, मां की आत्मा का चुंबक वहीं कहीं हवेली में है।’ मैंने भाभीजी के विषय में पूछा। हरेंद्र ने कहा, 'आज सुबह की लाइट से दिल्ली गईं। वहां का ऑफिस मैडम ही देखती है न। फिर दोनों बच्चे भी वहीं पढ़ते हैं।’ पैंट की जेब में बुआजी के दिए हुए बटुए को उंगलियों से छूते हुए मैं उठकर खड़ा हो गया, बड़ी मां से मिलकर आता हूं। हरेंद्र मुस्कराया, 'हां, मिल लो। वैसे मैं जानता हूं, वह तुमसे क्या कहेंगी।’

 

बड़ी मां का कमरा फर्स्ट फ्लोर पर है। कई बार जा चुका हूं। कमरे के दरवाजे से पुकारा, 'बड़ी मां।’ वह लेटी हुई थीं। मुझे देखा तो उनका बूढ़ा चेहरा प्रसन्नता से इस तरह दीप्त हो उठा जैसे किसी अंधेरे-बंद कमरे की खिडक़ी खोल दी गई हो। 'कैसे हो बेटा? पटना में रहते हो और इतने दिनों बाद आए हो।’ पैंट की जेब से बटुआ निकालते हुए मैंने कहा, 'होली में गांव गया था। बुआजी ने यह दिया है आपको देने के लिए।’ बड़ी मां ने बटुआ आंखों से छुआ, फिर आंखें मूंदे उसे हृदय से लगाए रहीं। बटुए को तकिए के नीचे रखते हुए उनकी आंखें डबडबाईं हुई थीं। बोलीं, 'मालती (बुआ का नाम) को ऐसी क्या हड़बड़ी हो गई कि...।’ बटुए का रहस्य बड़ी मां ने भी नहीं खोला।

 

'हवेली गए थे तुम। बगान में आम के पेड़ तो बौरा गए होंगे।’ 'हां बड़ी मां, आम बगान एकदम महमह कर रहा था। बड़ी मां आंखें बंद किए हवेली की यादों में खो गईं, 'फगुआ के आते-आते आम के बौर पकने लगते हैं। गंध से भर जाती है हवेली। ऐसी मादक गंध। इसी महीने में जिद्दी कोयल की कुहू-कुहू। कोयल की बोली सुने बहुत दिन हो गए। यहां तो साफ -साफ पता नहीं चलता कि कौन मौसम आया, कौन गया। इस महल ने बाहर की दुनिया को बाहर ही रखा है। वह तो मैं एक दिन छत पर गई तब देखा कि सामने के गलियारे में सहजन का पेड़ फूला है। सारी टहनियां फूलों से लदी थीं। टोकरी-टोकरी भर उजले-उजले फूल। तभी याद आया अपनी हवेली का आम बगान।’

 

बड़ी मां ने कॉलबेल का बटन दबाया। एक लडक़ी हाजिर हुई। 'जी माताजी।’ बड़ी मां ने इशारे से कुछ कहा। पांच-छह मिनट में वही लड़की तश्तरी में कुछ मिठाइयां और नमकीन के साथ एक गिलास पानी रख गई। बड़ी मां बोली, 'तुम तो हरेंद्र के संगी-साथी हो। तुम्हारी बात सुनेगा हरेंद्र। कहो न जाकर, मुझे गांव भेज दे। यहां मैं जल्दी मर जाऊंगी बेटा। हमेशा लगता है, जेल में हूं। कहीं बाहर जा नहीं सकती। मंदिर भी जाती हूं तो साथ में बॉडीगार्ड। जाओ बेटा, कहो हरेंद्र से।’

 

नाश्ता खाकर मैं हरेंद्र के कमरे की तरफ  जाने के लिए सीढ़ियों से नीचे उतरने लगा। आगे-आगे मैं, पीछे-पीछे बड़ी मां। वह हरेंद्र के कमरे के दरवाजे पर पर्दे की ओट में खड़ी हो गईं। हरेंद्र ने फाइल से चेहरा उठाते हुए मुझे देखा, 'मिल आए मां से? क्या बोलीं?’ मैंने बड़े विनम्र भाव से, खुशामदी मुद्रा में हरेंद्र की तरफ  देखा, 'हरेंद्र भाई, बड़ी मां को क्यों नहीं भेज देते गांव? कुछ दिनों के लिए ही भेज दो।’ हरेंद्र मस्कराया, 'तुम तो समझ सकते हो रितेश, छह-सात महीने पहले मां को हवाई जहाज से दिल्ली ले जाना पड़ा। हार्ट अटैक हुआ था। साथ में डॉक्टर गया, मैं गया। एम्स में इलाज हुआ। यहां रोज इनका ब्लड प्रेशर देखना पड़ता है, समय पर दवा खिलानी पड़ती है। डॉक्टरर नियमित चेक-अप करते हैं। सोचो, गांव कैसे भेज दूं। मेरी मां है वह। उनकी मर्जी पर उनको नहीं छोड़ सकता। वहां पुरानी खंडहर हवेली में क्या रखा है? बिजली नहीं रहती। न डॉक्टर, न हॉस्पीटल। तुम मां को समझाते क्यों नहीं हो। आखिर उनको यहां कमी क्या है?’ मैंने मन ही मन कहा- कमी यही है कि यह यह महल बड़ी मां की पुरानी हवेली नहीं है। दरवाजे की तरफ  देखा, बड़ी मां वहां नहीं थीं। मैं किसको समझाता। बड़ी मां कहती हैं हरेंद्र को समझाओ, हरेंद्र कहता है मां को समझाओ।

 

मैं फिर गया बड़ी मां के कमरे में। वह उदास बैठी थीं। मैंने कहा, 'आपने तो हरेंद्र की बात सुनी ही होगी बड़ी मां।’ बड़ी मां कुर्सी से उठकर पलंग पर पीठ टिका कर बैठ गईं और ऊपर छत को देखने लगीं। कुंहरती हुई बोलीं, 'इलाज और दवा-दारू से मुझे कितने दिन जिंदा रखेगा हरेंद्र। गांव की अपनी हवेली में मरती तो सिरहाने तुम्हारी बुआ रहती, गांव की सैकड़ों औरतें होतीं, लोग होते। चैन से मरती वहां। यहां तो नौकर-चाकर हैं, हॉस्पीटल में नर्स- डॉक्टर। इन्हीं को देखकर मरूंगी।’ बड़ी मां कुछ क्षण चुप हो गईं। फिर धीरे से बोलीं, 'गुसांई जी रामायण में कहिन हैं कि 'जनमत मरत असह दुख होई।’ जन्म के समय का 'असह्य दुख’ तो किसी को याद नहीं रहता। मृत्यु के समय का मेरा 'असह्य दुख’ जरूर कम हो जाता अगर अपनों के बीच, अपनी हवेली के उसी पलंग पर जिस पर शादी के बाद पहली...’ बड़ी मां बोलते-बोलते भावुक हो गईं। आंखों से टप-टप आंसू। मेरे लिए असहनीय थे बूढ़ी आंखों के आंसू। बड़ी मां के पैर छू कर अपनी आंखें हथेलियों से पोंछता मैं बाहर आ गया।

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