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प्रकृति करगेती की कहानी: ठहरे हुए से लोग

प्रकृति करगेती की यह पहली कहानी है। इसी कहानी पर उन्हें प्रतिष्ठित राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान मिला है। दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक प्रकृति मुंबई में नेटवर्क 18में प्रोमो प्रोड्यूसर के पद पर काम करती हैं। कहानी लिखने से पहले प्रकृति कविताएं लिखती रही हैं। पहाड़ों के नाम लिखी गई उनकी कविताएं कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं।
प्रकृति करगेती की कहानी: ठहरे हुए से लोग

पिछली रात भी गर्मियों की बाकी रातों जैसी ही थी। माहौल में घुटन फैली थी जिसे हवा के झोंके तोड़ने की नाकाम कोशिश कर रहे थे। मानो रात में भौंकते कुत्तों से हवा डर जाती हो और सहमी सी आसपास के कोनों और दीवारों की दरारों में जाकर छुप जाती हो।   

उसी रात, उस बाजार में एक जान रात की बेदर्दी सह रही थी। माहौल खुद के साथ उसे भी धीरे-धीरे घोंट रहा था। अधमरी लड़की घिसटती, लड़खड़ाती, कई दुकानों से टकराती, खून के दाग हर दीवार पर लगाती, आखिर में जाकर एक फैशनेबल कपड़ों की दुकान में सजे बुतों के ठीक सामने जा गिरी और रेंगते-रेंगते, सामने रखे गमलों की कतार के पीछे छुप गई। 

 

फिर सुबह हुई।

उस बाजार के शटर नौ बजे खुलते थे। शटर के खुलते ही दिखती थी कांच की दीवारें, जिनके अंदर बुतों का घर था। इस घर में सिर्फ एक दरवाजा था पर कोई खिड़की नहीं। इन बुतों को खिड़की की कोई खास जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि सब वैसे भी पारदर्शी था। और बुत सांसें लेते थे क्या? क्या मालूम ! हां, लेकिन इन सब के चेहरे थे। कुछ में नैन-नक्श की बारीकियां जरूर दिखती, कुछ बिना नैन-नक्श के ही शोरूम की रंगत बढ़ाते। जैसे, एक दुकान के कोने में रखा एक सुनहरे चेहरे वाला बुत! जिन बुतों को आंखें नसीब थी, उन्हें इस बुत से जलन होती हो शायद। उसके कपड़े भी तो बहुत लुभावने थे, जिनमें सलवटों का कोई निशान नहीं था और उसकी पतलून की क्रीज ब्लेड जैसी पैनी थी। इस बुत के पड़ोसी भी कोई कम नहीं थे। एक बड़े शोख अंदाज में, लंबी पोशाक में लिपटी हुई थी। वहीं दूसरी, बड़े अल्हड़ अंदाज में घुटने तक की पोशाक में खुद को बिखेरे थी। एक हाथ की कोहनी घुटने पर और ठुड्डी को उसी हाथ पर टिकाया हुआ था। दूसरा हाथ, बिलकुल बेपरवाह एक तरफ लटका हुआ था। पावों के जूते बस एक अंगूठे पर अटके हुए थे, अब गिरे कि तब गिरे। आने-जाने वाले भी उसे रुककर एक नजर देख लिया करते। सोचते होंगे कि बस एक बार छूने की देर है और ये बुत एकदम उठ खड़ी होगी। 

आसपास की दुकानों में और भी कई बुत थे। एक था, जो तीन मंजिला इमारत में ऐसे रखा था, मानो आसमान छूता हो। उसके कपड़े भी ऐसे, जैसे सितारों से जड़ी आसमानी चादर हो। चांद भी यहां आकर एक दफा टिक जाता। शहर के इस चांद को, जहां सितारे नसीब नहीं होते, यहां रुककर वह भी अपना आसमान पूरा करता होगा। 

ये सारे बुत, कांच की दीवारों से झांकते, इस बाजार की रंगत को बढ़ाते थे। इनके मौसम भी बदलते। सर्दी, गर्मी, बसंत सब आते इनके लिए। बस, दुकानों के कलेक्शन वक्त पर बदलने चाहिए। वरना, इन्हें कोई शिकायत नहीं। अब स्टोर-मैनेजर की मजीई है कि वह इन्हें समय रहते पोशाकों से सजा दे या फिर नंगा ही रखे। वह गर्मियों का समय था इसलिए सभी हलके-फुलके, ढीले-ढाले और रंग-बिरंगे कपड़ों में लिपटे हुए थे। सभी दुकानें खुल चुकी थीं। बुतों की दुकान भी। पर पिछली रात की हकीकत अलसायी सी अभी पसरी हुई थी। खून के थपके हर जगह थे पर बाजार की अंगड़ाइयां अभी भी बाकी थीं। काले ग्रेनाइट पर गाढ़ा खून नजर नहीं आ रहा था। हां, पर उस अल्हड़ बुत को पास के गमले और उन पर लगे पौधे कुछ दाग नजर आए। लेकिन वह दाग वह रंग और उनके पीछे छुपी दहशत से वह अनजान थी। 

बाजार धीरे-धीरे भीड़ का स्वागत करने लगा। बस, कार, मोटर साइकल, इनकी गिनती बढ़ने लगी। सूरज अपनी रफ्तार से आसमान नापने लगा। दोपहर होने को आई थी। बाजार अब पूरी तरह चेत गया। चीखने लगा, चिल्लाने लगा। पूरे बाजार में हंगामा मच गया। गमलों से खींचकर लाश को बाहर निकाला गया। अटकलें लगाई जा रही थी, तलाशी ली जा रही थी, वगैरह-वगैरह। वह अल्हड़ बुत सब देख रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह जीती-जागती लड़की बुत कैसे बन गई? उसके बुत बनने पर इतना हंगामा क्यों? वह बुत समझना चाहती थी कि आखिर हो क्या रहा था। जब उससे रहा नहीं गया, वह उठ खड़ी हुई और चुपके से बाहर निकल आई। 

उसने लोगों की खुसुर-पुसुर सुनी। पता चला वह लड़की ‘मर’ चुकी थी या ‘मारी’ गई थी। उसे दोनों ही बात समझ नहीं  आई। वैसे भी ‘मरने’ और ‘मारे’ जाने में क्या अंतर है उसे कहां से पता होता। उसने लाश को थोड़ा पास से देखना चाहा। खून से चेहरा लथपथ था, चोटें साफ दिखती थीं। खासकर माथे की, जिस पर मक्खियां भिनभिना रही थीं। बाल बेतरतीब बिखरे थे और कपड़े जगह-जगह से फटे हुए थे। उससे देखा नहीं गया। वह भाग गई। भागते-भागते मन में सोच रही थी कि यह ‘मरना’ या ‘मारे जाना’, जो भी होता हो, बहुत अजीब होता है। इस पर इतना हंगामा, इतना शोर-गुल, क्यों? 

भागते-भागते उसे ध्यान ही नहीं रहा कि वह कहां निकल आई। पिछली दहशत से वह बाहर भी नहीं निकली थी कि आसपास की भाग-दौड़ देखकर उसके जहन में एक के बाद एक ख्याल आते गए। उसने देखा उसकी टांगें, उसके हाथ, बाकियों के मुकाबले ज्यादा गोरे, साफ और नंगे थे। उसने सोचा, जब लोग ऐसे होते नहीं तो बुतों को ऐसे कपड़े़ क्यों पहनाते हैं, क्यों ऐसे सांचों में ढालते हैं? बाकी लड़कियों की आंखें, नाक और कान सब थे। पर उसके जैसे नहीं। यही सब सोचते हुए वह बुत एक लड़की से टकरा गई। वह गिरने ही वाली थी पर गिरी नहीं। जो गिरे, वह थे उसके बाल। उसे बहुत शर्मिंदगी हुई क्योंकि जिससे वह टकराई थी उसके बाल नीचे नहीं गिरे। वह लड़की, कुछ बड़बड़ाती, अपने बाल लहराती आगे निकल गई। उसे अपने दुकानदार पर बहुत गुस्सा आया। उसे वह दिन याद आया जब कलेक्शन बदलने के नाम पर उसे पूरे दिन नंगा रखा गया था। उसे अपने नंगे होने से दिक्कत न होती अगर आने-जाने वाले उसे घूरते नहीं।  सबकी निगाहें, बस उसकी छाती पर आकर अटक जाती थीं। 

खैर, उसने अपने आप को समेटा और सोचा कि अब इस जिल्लत से बचने का एक ही रास्ता है कि वह बिना टकराए चले। वह चलती चली गई। गाड़ियां, जिन्हें वह बस सामने से दौड़ती देखती थी, उन्हें उसने मुड़ते-रुकते, बात-बात पर शोर मचाते, लड़ते-भिड़ते देखा। इनमें से एक गाड़ी उसे कुचल ही डालती कि किसी हाथ ने उसे पीछे खींचकर बचा लिया। एक लड़के ने उसे संभाल लिया था। इस बार उसने अपने बालों को गिरने नहीं दिया। जब जरा होश संभला, बुत ने गौर किया लड़के की पीठ पर कुछ लदा हुआ था। जिस पर आड़े-टेढ़े अक्षरों में कुछ लिखा हुआ था। बुत ने उससे पूछा, तो पता चला उसे इसके पैसे मिलते थे। लड़के ने उसे कोने में, जहां थोड़ा अंधेरा था, उसे ले जाकर दिखाया कि वह बोर्ड जलता भी था। जैसे ही अंधेरा हो जाता है, वह उसे जला लेता था। भरी-दोपहरी में वह जलता है और रात के अंधेरे में उसका बोर्ड। 

दोनों ने खूब बातें कीं। लड़के ने अपने काम के बारे में बताया जो कुछ खास नहीं बस इतना था कि उसे उस इलाके में घूमते रह कर लोगों को रोक-रोककर पर्चियां बांटना है। दोनों को अहसास हुआ कि वे एक जैसा काम ही करते हैं। नुमाइश का। बुत कपड़े लपेटकर और लड़का पीठ पर बोझ लादकर। दोनों ही इश्तेहार हैं। एक चलता-फिरता, दूसरा बुत बना। 

बुत ने लड़के को दोपहर की बात बताई। लड़के के चेहरे पर कोई खास हैरानी न देखकर उसे मालूम हो गया कि लड़का इस बारे में पहले से जानता था। वह सही थी। लड़का चारों तरफ घूमता था इसलिए उसे इस घटना की पूरी जानकारी थी। लड़के ने उसे बताया कि उस लड़की के साथ ‘गलत काम’ भी हुआ था। बुत ‘मरना’, ‘मारे जाना’ इन शब्दों में पहले से उलझी हुई थी कि एक और शब्द ‘गलत काम’ जुड़ गया। 

लड़का इसका मतलब बताने में कतरा रहा था। ‘रेप’ उसने समझाने की लाचार कोशिश की। जब तक बुत शीशे की दीवार के पीछे है, उसके साथ यह सब नहीं हो सकता, उसने जोड़ा। यह भी कि बुत की चलती-फिरती नुमाइश उसे भी ‘रेप’ का मतलब कभी भी समझा सकती है। ‘प्रैक्टिकल-एक्सपीरियंस’ करा सकती है। बुत ने लड़के को थोड़ा और कुरेदा और जानना चाहा कि ‘रेप’ ऐसी क्या चीज है कि इंसान और बुत के बीच का फर्क ही खत्म हो जाए। लड़के को ऐसे सवाल के जवाब देना जब मुश्किल लगा तब उसने हारकर बुत की छातियों को जकड़ लिया और बुत की टांगों के बीच हाथ डालकर कहा, ‘क्योंकि तुम्हें बनाने वाला भी ये बनाना नहीं भूला।’ 

बुत ने लड़के को दूर झटक दिया। उसके लिए टांगों के बीच का यह दबाव नया नहीं था। कई बार दुकान का मैनेजर या कर्मचारी उसके उभारों को छू लेते थे, उसकी टांगों के बीच हाथ फंसा कर उसकी जगह बदला करते थे। फिर भी यह उसके घर की बात थी। लड़के की यह बेजा हरकत उसे बिल्कुल पसंद नहीं आई। उसने आगे और कोई सवाल नहीं किया।   

बहुत देर हो चुकी थी। लड़के को भी अब जाना था। काफी परचें बांटने के बचे थे। उसने बोर्ड की लाइट जलाई और जाने के लिए तैयार हुआ। जाते-जाते, उसने बुत को एक पर्चा थमाया और तेज कदमों से आगे निकल गया। बुत दूर से जलते-टिमटिमाते बोर्ड को तब तक देखती रही, जब तक रोशनी धुंधली होकर गुम नहीं हुई। उसने लड़के का दिया हुआ पर्चा देखा, लिखा था, ‘पांच हफ्तों में वजन घटाएं, आकर्षक शरीर पाएं।’ पर्चें की दूसरी तरफ बिलकुल उसी की तरह, एक दुबली, पतली लड़की का स्केच बना हुआ था। 

वह मुस्कराई। उसने पर्ची को मसलकर फेंक दिया और आगे निकल गई। दुकान अभी भी खुली थी। अंदर जाते लोगों के साथ चुपके से वह भी अंदर चली गई और वापस अपनी पुरानी जगह पर उसी अल्हड़ अंदाज में बैठ गई। पर इस बार उसके चेहरे पर एक हलकी सी मुस्कान भी ठहर गई। कपड़ों के बोझ के अलावा उस पर कोई और बोझ नहीं था। वह खुश थी कि वह बुत थी। लोग उसकी तरह ही कपड़े पहनना चाहते थे, उसकी तरह ही सुंदर-सुडौल ढांचे में ढलना चाहते थे और उसका ठिकाना बाहर से बेहतर था। शीशे की दीवारों के अंदर ‘गलत काम’ भी नहीं होते शायद !   

वह खुद से बेहतर और क्या हो सकती थी, ठहरी हुई जिसमें वह अपनी खूबसूरती भी समेटे थी। वह कांच के ढांचों में महफूज थी। वह महफूज थी क्योंकि कांच की दीवारों के अंदर कुछ ज्यादा महसूस भी तो नहीं होता। 

 

 

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