(स्पष्टीकरण : किस्से के दो हिस्से हैं दोनों सच में घटित)
दुलारा का एक गीत हर्षवर्द्धन और आनंद के मन में बैठ गया था - 'तुम्हीं से तुम्हीं को चुरा लेंगे हम, तुम्हें अपना साथी बना लेंगे हम'। कैसेट के दोनों साइड यह गीत भरवाया गया था। इसे आप लूप में सुनने की इच्छा समझे या कुछ और उनके यहाँ यह गौरव कुछ ही फिल्मों को प्राप्त हुआ था, जिसमें एक तब के तमाम जवान होते 'अरुणों' में तबाही मचाने वाली फिल्म 'दिलवाले' भी थी फिर उन्होंने किसी बेवजह वाले वजह से 'दुलारा' को रख लिया था।
अब दोनों दीवानों को यह फ़िल्म देखनी थी, समस्या वही पुरानी सनातन वाली थी, फ़िल्म बिहार पिक्चर पैलेस, थावे में लगी थी। फ़िल्म देखना तो नैतिक रूप से जरुरी था। पर थावे शहर से पाँच किलोमीटर दूर था। दोनों गुलेल चमेल एक दिन पहले से फ़िल्म कैसे देखें की खुरपेंच में लगे हुए थे और हर बार की तकरः सिनेमचियो के आगे एक ही संकट था - धन। हर्षवर्द्धन कोई महेश तो था नहीं कि सीट कवर या घंटियाँ चुराकर राजू साइकिल मिस्त्री को बेच देता। वह तो जिले के विष्णु सुगर मिल के सम्मानित लेबर अफसर साहब का मनबढू भतीजा था। सो वह मामूली चिंदी कामों में नहीं फंसता था। हमारी बनिस्पत उसको बाकायदा ठीक-ठाक जेबखर्च मिलती। जो सिनेड़ी और कैसेट भरवाने में, फ़िल्म स्पॉन्सर करने में आधे महीने में ही स्वाहा हो जाती, फिर चलता अपने किस्म का को-ऑपरेटिव बैंक, जिसमें आपसी चंदा, महेश की 'बाजीगरी' से अर्जित अर्थ, सिनेमा हॉल के गेटकीपर से लगाई गई उधारी शामिल होती। इस मामले में वह प्लानर बढिया था । कई बार वह और आनंद अपने प्लान हमसे डिस्कस भी नहीं करते। यहाँ आज वैसी ही स्थिति थी, हमें यह प्लान पता न था। सो हम इस प्लान से बाहर थे। पर आनंद और हर्ष के आपसी सिनेमाई तिकड़म में एक की न चलती तो दूसरे की बुद्धि का एंटीना जाग्रत हो जाता। अबकी बारी यह आंनद के हिस्से था पर किस्मत का खेल देखिए विधाता ने जहाँ चाह वहां राह बना रखी है।
आनंद की पहचान तुरकहाँ पार के गाँव के तरफ से आने वाली लंबी लड़की से थी जो हमारी क्लास में घुसने से पहले तिरंगा (गुटखा) फाड़कर मुँह में डाल लेती थी और क्या मजाल कि कोई मास्टर उसको पकड़ ले। क्लास में लड़कियां आगे बैठती थीं और वह जिस ओर बैठती थी, उधर की खिड़की में लोहे की रॉड पता नहीं किस जमाने मे निकाल ली गई थी। तो खिड़की की ओर बैठने से मैदान साफ रहता। एलिमेंट्री मैथ्स वाले पांड़े मास्टरजी उस लड़की से कभी-कभार गीत सुनने की फरमाइश करते खासकर भोजपुरी। पीटने में दुर्दांत मास्टरजी से वह कभी पीटी गयी हो सो याद नहीं। वह भी अपने किस्म की एक अलग तरह की ही फ़िल्मबाज़ वह थी, इसमें दो मत नहीं।
वैसे हम हर्षवर्द्धन और आनंद के दुलारा फ़िल्म के देखे जाने और उसकी कहानी हमें बताए जाने तक जान नहीं पाए थे कि मौनिया चौक पर जान तेरे नाम, सड़क, बाजीगर के गीत भरवाने वाली उस लड़की से आनंद का परिचय कैसे हुआ था। पर हमें ही नहीं पूरे स्कूल को यह मालूम था कि कैसेट भरवाने और ढीठता में वह हर्षवर्द्धन की भी काकी थी।
तो स्कूल गेट पर दोनों की 'दुलारा' वाली साजिश चल ही रही थी कि वह अपने एवन की लाल सायकिल से उतरी और इशारे से आनंद से पूछी - का पांड़े! क्या पंचायती हो रहा है गेट पर? क्लास नहीं लेना है क्या? - आनंद ने सकपका कर इधर-उधर देखा उसको कुछ जवाब देते नहीं सूझा। हर्षवर्द्धन ने धीरे से कान के पहुँचकर पूछा - क्या रे! तुम्हारा इससे कैसे परिचय है बे? अब बताओ इसको यहाँ काहें खड़े हो? - आनंद भी एकदम भितरिया था। उसने एक सांस में दोनों से फरिया लिया। एक तरफ सिर मोड़ कर बोला - 'अरे ये ब्रह्मजी मिश्रा सर के कोचिंग में साथ पढ़ती है' और उसने लड़की की तरफ मुखातिब होकर बताया - 'अरे, हम लोग थावे फिलिम देखने जाने का प्लान बना रहे हैं, लेकिन थोड़ा मामला अटक रहा है।'- वह लड़की को कैसे कहे कि प्लान में कैल्कुकेशन अटक रहा है, वह भी दस के नोट की कमी पर? पर फिर भी बेशर्मी से खींसे निपोर वह भी कह गया। वह लड़की लड़कों की बहुलता वाले स्कूल में अकेली वीरांगना थी, जो किसी को दाएं बांए होते देख रगड़ देती थी। वह दुनियादारी की बुनियादी समझदारी भी रखती थी, बोली - "अरे बिहार पिक्चर पैलेस थावे न? उसमें तो तीन रुपया का टिकट है और दस बजिया पैसिंजर से डब्लू टी चले जाओ और उधर से चरबजिया पसिंजर से लौट आना। कौन-सी फिल्म 'दुलारा'! वही न मेरी पैंट भी सेक्सी, मेरी चाल भी सेक्सी वाला, सुधरेगा नहीं तुम लोग? हम ब्रह्मजी मिसिर सर को बताएंगे"- और इतना कहकर हँस दी। बात वाजिब थी, डब्लू टी यानी विदाउट टिकट। हर्षवर्द्धन को बात जँच गयी, सता और व्यवस्था से जूझने में उसको महारत हासिल थी। लड़की ज्ञान देकर दन्न से स्कूल के भीतर चली गयी थी। पर अब गुलेल चमेल की जोड़ी हरखुआ चल पड़ी, ट्रेन जो पकड़नी थी। दोनों ट्रेन से डब्ल्यू टी पाँच किलोमीटर की दूरी तय कर थावे पहुँचे । बिहार पिक्चर पैलेस तब तक भर गया था तो बेंच मिली, उसी पर बैठकर आठ रुपये में से छह रुपये गोविंदा करिश्मा के नाम लुटाए गए। फिर दो बजे फ़िल्म का शो खत्म हुआ। हर्षवर्द्धन लाइफ स्टाइलऔर शौक से समझौता नहीं करता था। शौक बड़ी चीज है, सो इंटरवल में दो-दो समोसे खा लिए गए थे। अब जेब में हवा के अत्तिरिक्त कुछ न था। वापसी का एक ही सहारा थी, चरबजिया पसिंजर। पसिंजर के आने में देर थी। अब उसके इंतज़ार में थावे जंक्शन के किनारे लगे कठजामुन के पेड़ों से कठजामुन झारने की कोशिशें होने लगी। यह काम भी हर्ष ने आनंद को दिया हुआ था और वह खुद प्लेटफॉर्म के उखड़े कंकडों को उठाकर लाइनों के पार भेजने में मशगूल हो गया है लेकिन तभी हर्षवर्द्धन को याद आया आनंद की बुआ की शादी यही पास में ही हुई है, उसने कहा - "रे आनंद! तुम्हारी बुआ का घर यही है न? उनके यहाँ चलते हैं।" - आनंद अपने मेठ की बात सुन सकपकाया - "अबे क्या कहेंगे, यहाँ क्या कर रहे हैं ?" - हर्षवर्द्धन अगर इंजीनियरिंग छोड़कर सस्पेंस थ्रिलर लिखता तो अगाथा क्रिस्टी का जेरोक्स शिष्य जरूर बनता। उसने फुलप्रूफ जुगत बता दी। दोनों बीस मिनट बाद बुआ के दरवाजे पर दोपहर का भोजन जीम रहे थे। प्लान के सक्सेस की मुस्कान थी, जो कम ही न होती थी। तभी राजदूत पर उड़ते हुए फूफा जी आ गए। दोनों को देख वह ठिठके तभी बुआ ने पापड़ उनकी थाली में परोसते हुए फूफा को बताया - "दोनों थावे वाली माई के दर्शन के लिए आए हुए थे, तो यहाँ भी आ गए।"- फूफाजी ने अविश्वास से भरी उड़ती नजर डाली और उनका प्रणाम लेकर भीतर चले गए । फूफाजी की उस दृष्टि को देख हर्षवर्द्धन ने उस रोज कढ़ी चावल के बारे में एक बात समझी कि यह गले में अटकती बहुत है, इसलिए पानी लेकर बैठना चाहिए। हमारे यहाँ सुखद अंत की चाहना बहुत है। यहाँ भी सबसे बेहतर यह हुआ कि बुआ ने लौटते वक्त दोनों के हाथ पर पाँच-पाँच रुपये धर दिए थे। जिस अंग को श्रीलाल शुक्ल अपने उपन्यास में ढूंढ रहे थे, वह बाँछे शरीर में जहाँ कहीं थीं, दोनों की खिल गयी थी।
हर्षवर्द्धन ने स्टेशन के पास के एक अज्ञात कुलशील सिंदूर लगा दिए गए पीपल देवता को शुक्रिया कहा - ''ऐ भगवान जी,माथे पर तुम्हारा सिंदूर लगाया तो भोजन, कमाई दोनों मिला। पर नाम थावे माई का बेच दिया है सो माई हमें माफ करना। ब्रह्म बाबा आज से मेरे लिए तुम्हीं असल जाग्रत देवता।''- दोनों ने हाथ जोड़े पर सिनेड़ियों का धर्म क्या! मन में "तुम्हीं से तुम्ही को चुरा लेंगे हम, तुम्हें अपना साथी बना लेंगे हम"- लगातार बज रहा था। स्टेशन से पता चला चरबजिया अभी तीनफेड़िया आयी है, मतलब लेट है। पाँच किलोमीटर दूर नहीं था, वह भी खासकर तब जब फ़िल्म देखी जा चुकी हो, पेट भर गया हो और दस खर्च करके दस मिल भी गए हों। दोनों पटरी पकड़ हरखुआ स्टेशन चल दिए। रास्ते में हर्षवर्द्धन ने आनंद को कोंचा - रे आनंद! ब्रह्मजी मिसिर के कोचिंग में हमहुँ एडमिशन ले ले क्या? - आनंद बोला-'मानोगे नहीं तुम'।- हर्षवर्द्धन कोंच करबोला- "चिंता मत करो, हम तिरंगा नहीं खाएंगे"- फिर दोनों हँस दिए। दोनों का गोविंदा करिश्मा की जोडी की फिल्मों को देखने का प्रतिशत सौ था, भले थावे जाकर ही आँकड़े दुरुस्त रखना पड़े तो क्या।
हालांकि दूसरे किस्से का पहले हिस्से से जुड़ान है या नहीं यह तो आप तय करेंगे पर यह कहानी उस एवन साइकिल, तिरंगा गुटखा और "जान तेरे नाम" को पसंद करने वाली लंबी राजपूत लड़की से जुड़ता है। उसने एक जायसवाल लड़के से परिवार के खिलाफ अड़कर दसवीं तक पहुँचते ही आर्यसमाज रीति से विवाह किया, हिम्मती और जिद्दी तो वह थी ही। फिर उस समय हमारे कस्बे में तो यह खासा क्रांतिकारी कदम था। वह एक रोज किसी भावनात्मक बहाने से घर बुलाई गई और फिर उसके बाद उसको तुरकहाँ नहर लील गया कि उसके मायके के आंगन की कब्र, कोई नहीं जान सका। न उस लड़के ने कभी जानने की कोशिश की। सुना गया कि वह कहीं बाहर निकल गया था, या घर वालों ने डर से भेज दिया था। लड़की को यह मालूम था कि 'अंदर मम्मी की नजरें होंगी बाहर डैडी का पहरा होगा' पर मन कहाँ मानता है। वह भी फिल्मों से इश्क करने वाला मन। पर मन की साध भी हमेशा कहाँ पूरी होती है - न महुआ घटवारिन की हुई, न हीराबाई की फिर यहाँ तो इस बार हिरामन भी कमबख्त ...!
फिल्मों से इश्क करने वाली उस लड़की के एकाएक गायब होने की यह सारी कहानी कुछ महीने बाद उसके गाँव के एक लड़के से पता चली। एक लंबी आह के सिवा और क्या निकलना था...नौंवी दसवीं वाली उम्र जो ठहरी...। वह हमारी दोस्त नहीं थी पर उसका एक रुतबा था, हम सबके मन में। हमारे जेहन में स्कूल के गेट से दन्न से घुसती उसकी लाल एवन सायकिल बहुत दिनों तक दिखती रही, उधर एलिमेंट्री मैथ वाले मास्टरजी ने फिर किसी से कोई गीत क्लास में न सुना, हालांकि दसवीं तक उनकी छड़ी और अधिक चलती रही थी और हम पाँचों में से किसी ने फिर "जान तेरे नाम" बहुत दिनों तक न देखी! ना इस फ़िल्म की कहानी पर हमें यकीन है, सिनेमा हो कि ज़िन्दगी हमेशा सुखान्त ही तो नहीं होती। चरबजिया पसिंजर लेट आए या समय से क्या फर्क पड़ता है, हमारे कस्बे का जीवन चलता ही रहा था।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)