कला दो रूपों में सबसे ज्यादा चोट करती है। या तो वह मन प्रसन्न कर दे या खिन्न। प्रतुल दास की कला में दोनों ही तरह के आयाम दिखाई पड़ते हैं।
प्रतुल अपने चित्रों में भविष्य की कल्पना और वर्तमान का भय साथ-साथ चलते हैं। उनकी रेखाएं और रंग पारिस्थितिकी के उस बिंदू को साधते हैं जहां पर्यावरण से लेकर शहरीकरण तक की हर चिंता शामिल है।
अपनी पेंटिंग में प्रतुल ‘मनुष्य बनाम प्रकृति’ के बिंब को इतनी खूबसूरती से उभारते हैं कि उनकी रेखाओं की उलझनें दर्शकों को असहज करने लगती हैं। सालों बाद अपनी एकल प्रदर्शनी के साथ दिल्ली आए प्रतुल दास के चित्रों ने बता दिया कि आखिर दिल्ली उनका इंतजार क्यों करती है।
देश की सभी प्रमुख आर्ट गैलरियों में उपस्थिति दर्ज करा चुके प्रतुल के चित्रों में प्रवासी होने और अपनी जड़ से कट जाने का दर्द भी समान रूप से दिखाई देता है। प्रतुल के लिए कैनवस सिर्फ रंगों का माध्यम भर नहीं है। वह इस सतह को अपनी भावनाएं कहने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। वह कहते हैं, ‘रंग और रेखाएं मिल जाएं तो ऐसी कोई बात नहीं जो कही न जा सकती हो। मेरी कोशिश बस यही रहती है।’