सूफी परंपरा में निराकार खुदा की इबादत या उसके इश्क में बहुतेरे संत फक़ीर कवियों ने रचनाएं की है। मस्जिद या दरगाह की मजारों पर सूफी गायन और कव्वाली का दौर 12वीं, 13वीं शताब्दी में शुरू हुआ। वह अभी भी प्रचूर मात्रा में जारी है। सूफीमत में फकीर बाबा बुल्लेशाह, बाबा फरीद, अमीर खुसरो जैसे अनेक रचनाकारों ने कालजयी रचनाएं कीं। आज के नए दौर में उन्हीं दिव्य पुरुषों की सूफी कृतियों को भक्ति की टेक पर संगीतबद्ध करने में कईं संगीतकारों और गायकों ने उल्लेखनीय कार्य किया है।
इस समय सूफी गायन में उभरती नई आवाज रागिनी रैनू की है। सूफीवाद के मर्मज्ञ सुविख्यात संतूरवादक पंडित भजन सोपरी की छत्रछाया में सूफी संगीत की तालीम हासिल करने में रागिनी ने सूफी मर्म को समझा और सूफी गायकी को गहराई से आत्मसात किया। हाल में इंडिया हैबिटेट सेंटर के सभागार में रागिनी के सूफी गायन की प्रस्तुति हुई। उन्होंने स्वयं रचित कबीर के निर्गुण भजन ‘युगन युगन हम योगी’ को सूफीवादी रंजकता से पेश किया। गुरु भजन सोपोरी द्वारा संगीतबद्ध शाह अब्दुल लतीफ मिट्टई की रचना ‘अजब नैन तेरे’ को निराकार शृंगार रस में उदात्त और रसीले अंदाज में प्रस्तुत करने का सराहनीय प्रयास किया। रागिनी खुली और बुलंद आवाज से गाने में सूफी परंपरा का निर्वाह बड़ी सजगता से कर रही थीं। बाबा बुल्लेशाह की पंजाबी में सूफी रचना ‘उठ चले गवादो यार’ गाने में साकार से निराकार के भाव संजीवता से मुखरित हुए। इस रचना में इबादत की जो गहरी पैठ है, वह गायन में सहजता से अभिव्यक्त हुई।
रागिनी के गायन में लोक और शास्त्र का सुंदर मिश्रण है। उनके स्वर संचार में भी काफी विविधता है। सूफी गायिकी में कव्वाली और कलाम को संगीत में ढालने में हजरत अमीर खुसरो का बहुमूल्य योगदान है। उन्होंने अनेकानेक राग-रागनियों को स्वरों में निर्मित किया। खुसरों की मशहूर कृति ‘जिहाल-ए-मिसकिन’ को भी स्वरों में बांधकर रागिनी ने सरसता से प्रस्तुत किया। गायन में सुर-ताल और लय का सुंदर तानाबाना था। बाबा बुल्लेशाह का कलाम “रांझा जोगी बन आया नी” और हजरत अमीर खुसरो की पारंपरिक और मशहूर क्लासिक बंदिश-“छाप तिलक सब छीनी मोसे नयना लगाए के” को रागिनी ने अपने अनोखे अंदाज में सरसता से पेश किया। आखिर में बहुचर्चित पारंपरिक रचना ‘दमादम मस्त कलंदर’ को भी खुली और खनकती आवाज में प्रस्तुत किया।