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बिहार: चुनाव और पलायन

हाल के विधानसभा चुनाव में आखिरकार कई दशकों बाद पलायन मुद्दा बना और उनकी दुर्दशा चर्चा में आई लेकिन...
बिहार: चुनाव और पलायन

हाल के विधानसभा चुनाव में आखिरकार कई दशकों बाद पलायन मुद्दा बना और उनकी दुर्दशा चर्चा में आई लेकिन दुखद यह है कि उसे सिर्फ वोट बटोरने का एक और साधन बना दिया गया

इस बात पर खुश और दुखी, दोनों हुआ जा सकता है कि इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में पलायन एक मुद्दा बना। जाति और संप्रदाय वाला कार्ड न चला तो रोजगार और पलायन का कार्ड चलाने की कोशिश हुई। कुछ चुनावी वादे भी हुए और सुशासन की तारीफ के बावजूद एनडीए और महागठबंधन दोनों ने इसे मुद्दा माना। सरकार से इसका हिसाब मांगने या इस ‘बीमारी’ के लिए उसे जिम्मेदार मानकर सजा देने या सुधार की मांग करने की जगह विपक्ष ने उसे वोट बटोरू मुद्दा मानने की गलती की, तो शासक जमात बोलता चाहे कुछ भी रहा हो, उसने रेल और बसों ही नहीं, विमानों (बड़ी कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को पेड लीव और हवाई टिकट देकर भेजा) से प्रवासी बिहारियों को वापस भेजकर वोट डलवाने का अभियान चलाया। यह अलग बात है कि उसमें कई लोग दो-दो जगह वोट देकर सोशल मीडिया पर अवतरित होने की गलती कर बैठे। हरियाणा भाजपा के लोग गरीब बिहारी मजदूरों को छठ पर घर भेजने और मताधिकार का प्रयोग करने में मदद के नाम पर ट्रेन बुक करके उनको बिहार भेजने की बात कबूल करते नजर आए। कई हजार बसों में भी लोग लाए गए।

छठ का मौका भी बिहारियों के घर वापस आने का होता है और इस बार चुनाव भी था तो वे और उत्साह से आए और रहे। नीतीश राज शुरू होने पर पहले यह दावा किया गया कि सुशासन के चलते मजदूरों का पलायन रुका है और उनकी घर वापसी का दौर शुरू हो गया है। अब ऐसा दावा नहीं किया जाता लेकिन पलायन बढ़ने की बात भी स्वीकार नहीं की जाती है। वैसे, राज्य में प्रवासी मजदूर कानून है और उसमें राज्य से बाहर जाने वाले मजदूरों के लिए पंजीकरण की शर्त है। इसके बावजूद बिहार ही नहीं, केंद्र सरकार के पास भी कोई आंकड़ा नहीं है कि राज्य से कितने मजदूर बाहर जा रहे हैं। कानून लागू कराने की बात तो अधिकारी और सरकार भूल ही गई है। किसी अकादमिक संस्था या इकलौते अध्येता के लिए यह संख्या जुटाना तो असंभव ही है। इस बार की चर्चा का सार यह निकला कि मीडिया के लोग कुछ सचेत हुए और यह आंकड़ा सामने आया कि मतदान के बाद एक पखवाडे में करीब 75 लाख बिहारी बाहर निकले। जाहिर है, यह आंकड़ा सामान्य रेल, स्पेशल ट्रेनों, बसों वगैरह की बुकिंग के आधार पर सामने आया है। इसी आधार से यह दावा सही लगता है कि बिहार से पलायन का आंकड़ा ढाई से तीन करोड़ के बीच होगा।

और यह बताने में हर्ज नहीं है कि ज्यादातर पलायन ‘पुश’ फैक्टर के तहत हो रहा है। ‘पुल’ फैक्टर है लेकिन चिंताजनक ‘पुश’ फैक्टर है। इस श्रेणी में वह मजदूर गिना जाता है, जो कमाई के अभाव में परिवार पालने और जीवन न चला पाने की स्थिति में बाहर जाकर कमाई करता है। इससे उसकी मजबूरी तो जाहिर होती ही है, उसके ‘देस’ या राज्य की बदहाली ज्यादा पता चलती है, जो उससे काम कराने और उसका ‘शोषण’ कर पाने की स्थिति में भी नहीं है। पलायन पिछड़ेपन की अंतिम अवस्था है। प्राकृतिक संसाधन के चूकने, औद्योगिक ढांचे के न विकसित होने, पूंजी के बाहर भाग जाने और सेवा क्षेत्र में काम करा पाने का दम भी न होने के बाद यह स्थिति आती है। इसे रोकने के उपाय इतने ही लंबे और कष्टसाध्य हैं। पलायन वाला मजदूर तो सर्वहारा भी नहीं माना जाता, क्योंकि वह वर्ग चेतना से रहित होता है। उसको किसी तरह खुद की और परिवार की जान बचाने की चिंता रहती है। वह लाल झंडा देखकर डरता है।

बिहार के पलायन पर पिछले तीन दशकों से ज्यादा से गंभीर नजर रखने वाले अध्येता अलख नारायण शर्मा और उनकी संस्था इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डवलपमेंट का मानना है कि बिहार में 2009-10 में किसी सदस्य के पलायन वाले परिवारों का अनुपात 36 फीसदी था, तो 2017 में यह बढ़कर 65 फीसदी हो गया। इस अवधि में पलायन के चरित्र में भी बदलाव आया है। पहले कम अवधि के लिए पलायन होता था। अब आठ महीने या उससे ज्यादा अवधि के लिए पलायन हो रहा है। छोटी अवधि वाले पलायन का अनुपात 1998-99 के 72 फीसदी की जगह 2017 में 20 फीसदी ही रह गया है। इसी अध्ययन का निष्कर्ष है कि अधिकांश मजदूर साल में औसतन करीब 48 हजार रुपये घर भेजते हैं, जो उनके परिवार के साथ ही अब बिहार की अर्थव्यवस्था का बड़ा सहारा बन चुका है। अगर हजारों करोड़ रुपये की पूंजी लेकर कोई औद्योगिक घराना आ जाता तो पूरी राज्य सरकार उसके आगे बिछ जाती (इस सरकार ने ही अदाणी समूह को एक रुपये में हजारों एकड़ जमीन दे दी है) लेकिन मजदूरों को पैसे भेजने, घर लौटने और निवेश करने (अगर कुछ बच जाता है तो वे प्राय: कट्ठा दो कट्ठा जमीन खरीदते हैं) में क्या-क्या परेशानी होती है, इस पर उपन्यास लिखा जा सकता है। अध्ययन यह भी बताता है कि पलायन करने वालों में महिलाओं का अनुपात सिर्फ पांच फीसदी है। घर के पुरुषों के पलायन से बूढ़ों, बच्चों, खेती और जानवरों की देखरेख का जिम्मा उन पर आ जाता है।

इस लेखक ने अपने पत्रकार कर्म के अधिक गंभीर काम के तहत तीस साल से भी पहले पंजाब गए बिहारी मजदूरों का अध्ययन किया था। हिंदी ही नहीं, अंग्रेजी में भी तब कोई किताब न थी। अनुपम मिश्र जी ने जब पलायन पर काम करने वाले किसी एनजीओ को इसका हवाला दिया तो मुझे इस किताब को नया करने का प्रस्ताव मिला। बीस साल बाद मैंने उन्हीं जगहों पर जाकर स्थिति फिर से देखी और किताब को नए सिरे से बदला। पहली किताब ‘प्रवासी मजदूरों की पीड़ा’ नाम से राधाकृष्‍ण प्रकाशन ने छापी थी। मेरे वरिष्‍ठ अशोक सेकसारिया जी का कहना था कि यह शीर्षक कुछ अबूझ हो जाता है, इसके चलते किताब ज्यादा चर्चित नहीं हुई। उनके न रहने के बाद जब किताब का नया स्वरूप बना तो मैंने शीर्षक बदलकर ‘बिहारी मजदूरों की पीड़ा’ कर दिया। 1994-95 में जब पहला काम हुआ था तब बिहार में लालू सरकार थी और 2019-20 में नीतीश सरकार। किताब का जिक्र होने के साथ एक निजी अनुभव का जिक्र भी उपयोगी लगेगा। एक टीवी चर्चा में लालू जी भी थे और प्रभाष जोशी जी भी। मैंने जो कुछ कहा, उसका लालू जी ने खंडन किया। वहां ज्यादा लंबी चर्चा संभव न थी तो प्रभाष जी ने पटना में बहस का प्रस्ताव दिया।

एक दिन के सेमीनार के लिए हम सब लोग पटना पहुंचे। नीतीश जी को छोड़कर सारे बड़े बिहारी नेता जुटे- लालू जी, सुशील मोदी, जगदानंद जी वगैरह। योगेंद्र यादव और मैंने पर्चा लिखा, जिसे प्रभात खबर ने पूरे पन्ने में छापा। सबसे अंत में लालू जी बोले तो दिन भर जितनी बातें हुई थीं, उन सबको नकार दिया और कहा कि धर्म प्रचार के लिए आनंद वगैरह के श्रीलंका जाने और बिहारियों के फिजी, मॉरीशस जाने से लेकर आवाजाही जारी है और इसी से बिहार का विकास होगा। फिर उन्होंने यह उद्घोष भी किया की ‘पाटलीपुत्र इज आन मार्च।’ सारे अखबारों में वह सुर्खी बनी। जब किताब का दूसरा संस्करण आया, तो उसका विमोचन पटना में ही नीतीश जी के हाथों हुआ। सैबाल गुप्त, मनोज झा, संजय पासवान भी थे। मैंने कहा की नीतीश शासन के शुरू में पलायन कुछ मद्धिम पड़ा था लेकिन अब फिर बढ़ने लगा है। नीतीश जी को यह बात नागवार गुजरी और उन्होंने मेरी जगह दर्शकों में बैठे भाई श्रीकांत का नाम लेकर काफी कुछ कहा। अंत में उन्होंने भी उद्घोष किया कि अब तो बिहारी दिल्ली की गद्दी पर बैठेगा और आप लोग क्या रोना रो रहे हैं। कहना न होगा कि यह पंक्ति अखबारों की लीड बनी।

यह प्रसंग बताने का उद्देश्य यही है कि पलायन के सवाल पर बीते 35 साल से बिहार में राज करने वालों के नजरिए में कोई बदलाव नहीं आया है। जिस कांग्रेसी शासन को सभी कोसते हैं, उसमें फर्क यह था कि राज्य प्रवासी मजदूर कानून बना, एक आयोग गठित किया गया, चाहे कर्मकांड के लिए ही सही। लालू राज तक में प्रवासी मजदूर कानून के तहत एक लाख मजदूरों का पंजीकरण हुआ था। लेकिन आज यह सब भुला दिया गया है। आज जो तत्परता बाहर गए बिहारी मजदूरों को पटाकर चुनाव जीतने की हो गई है, यह तब कई गुना बढ़ जाएगी, अगर मजदूरों की सही संख्या और उनके द्वारा भेजी जाने वाली रकम का सही आकलन हो जाए। तब शायद बाहर गए मजदूरों के लिए कोई सहायता केंद्र भी चले जो घायल/बीमार या नियोक्ता के चंगुल में फंसे बिहारी मजदूरों की मदद करे, उनकी आवाजाही में मददगार हो और गांव में परिवार की मदद का निर्देश थाना/ब्‍लॉक को दिया जाए तो बहुत फर्क होगा।

चुनाव में पलायन का सवाल उठा, तो अपने रिसर्च के तीस साल बाद भी मुद्दा बनने पर मैं खुश हूं। लेकिन दुख यह है कि उनकी सही संख्या, आमदनी, कमाई, परिवार की स्थिति संबंधी कोई आंकड़ा नहीं है। कानून है, लेकिन अमल नहीं होता। दिल्ली बिहार/बिहारियों का दूसरा सबसे बड़ा शहर है (अाज इतने बिहारी पटना के अलावा किसी और शहर में नहीं रहते) तो यहां के चुनाव में मनोज तिवारी को टपका देने से भाजपा का कर्मकांड पूरा होता है और बिहार चुनाव में रेल और बस उपलब्ध कराने से। बिहारी महिलाओं के सारे दुख-दर्द को दस हजार रुपये में भुलवाना मास्टर-स्ट्रोक बन जाता है, लेकिन राजद और महागठबंधन को इसका भी होश नहीं रहता।

(वरिष्ठ पत्रकार, चर्चित पुस्तक बिहारी मजदूरों की पीड़ा, विचार निजी हैं)

 

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