पचास बरस हो रहे हैं फिल्म जंजीर को, मगर यह आज भी प्रासंगिक है। यह हमारे सामाजिक और राजनैतिक हालात पर एक बड़ी टिप्पणी है। जब आप उसके मुख्य किरदार को समाज में खोजते हैं, तो आप पाते हैं कि जिन हालात में एंग्री यंग मैन के किरदार के बारे में सोचा जा सकता था वे हालात समाज में जस के तस हैं, बल्कि पचास साल पहले रचा गया किरदार फिर भी कुछ उसूलों पर चलता और सभ्यतापूर्ण व्यवहार करता नजर आता था। आज के समय में कोई ऐसा किरदार रचा गया या पैदा हुआ तो वह ज्यादा असहनशील, हिंसक और पूरी तरह बेमकसद होगा क्योंकि हम धीरे-धीरे एंग्री यंग मैन के बाद एंटी हीरो यानी खलनायक बन चुके नायक को अपना हीरो मान चुके हैं। मेरी समझ से ज्यादातर युवाओं का आदर्श वही है।
जंजीर को जिस मशहूर स्क्रिप्टराइटर जोड़ी सलीम-जावेद यानी सलीम खान और जावेद अख्तर ने लिखा, अब वे उन्हीं नामों से जाने-पहचाने जाते हैं। हमें उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि पर भी गौर करना चाहिए। सलीम खान खाते-पीते परिवार और पुलिस अफसर पिता की संतान हैं। जावेद अख्तर उस समय के समाज में बदलाव के पैरोकार दो कॉमरेड जानिसार अख्तर और सफिया अख्तर की संतान हैं। सलीम खान ने जहां समाज को अपने हालात की नजर से देखा, वहीं जावेद अख्तर ने अपने तजुर्बों से समाज के साथ चलना सीखा। इस तरह से कहा जाए तो पुलिस अफसर की नजर से सत्ता और समाज के वर्ग-संघर्ष की नजर से शोषण, दोनों सोच जब मिली तो एंग्री यंग मैन का उदय हुआ- जो अपने लिए न्याय चाहता है और न्याय को अपने तरीके से हासिल भी करना चाहता है मगर वह रीति-रिवाजों और नियमों से बेपरवाह है। यही उसे समाज के नियमों से मुक्त करता है। तब भी और आज भी, यह जो मिश्रण है, यह बहुत प्रासंगिक है।
पूर्वांचल के बाहुबली हों या मुंबई के डॉन, सब अपने आप को एंग्री यंग मैन की तरह ही प्रेजेंट करना चाहते हैं। इसकी वजह उनके प्रति समाज की सिंपैथी, उसका सॉफ्ट कॉर्नर है। समाज में एंग्री यंग मैन के लिए जो गुंजाइश बनी है, उसकी वजह सिर्फ यह है कि हम आजाद मुल्क हो जाने के बाद भी विरासत में मिले अन्याय, उत्पीड़न और गैर-बराबरी को कम नहीं कर पाए।
सलीम-जावेद की आगे की फिल्मों में भी एंग्री यंग मैन अपना सफर जारी रखता है, मगर उसके किरदार में अलग-अलग तरह के बदलाव दिखते हैं और वह गरीबी पर अमीरी की जीत का प्रतीक बन जाता है। मतलब, वे किरदार जो मूल रूप से उन लेखकों द्वारा निर्मित किए गए जो सत्ता और संघर्ष के प्रतीक थे, वे कानून को धता बताकर इकट्ठा किए गए धन के जरिये अपने शोषण का बदला लेते हैं और उस कामयाबी पर खुश भी होते हैं। धीरे-धीरे उन लेखकों का गढ़ा यह किरदार पूंजीवाद की तरफ अग्रसर होता है।
भारतीय सिनेमा को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है- जंजीर से पहले और उसके बाद। अपनी स्क्रिप्ट, स्क्रीनप्ले और डायलॉग के बल पर सलीम-जावेद ने स्टारों से भी बड़ा स्टारडम हासिल किया। जावेद अख्तर को करीब से जानने के बाद यह बात बहुत साफ दिखती है कि किरदारों की जो आवाज है, जो संवाद है, वह पूरी तरह से जावेद अख्तर का कमाल है। शायद उन किरदारों का इतनी मजबूती के साथ हम पर प्रभाव छोड़ने में उनका सबसे बड़ा योगदान है। और शायद हमारे समाज की सोच को आईना दिखते हुए जो एंग्री यंग मैन पैदा हुआ था, उसी का अगला संस्करण एंटी हीरो के रूप में आया और भारतीय सिनेमा के दर्शकों ने उसका वैसा ही स्वागत किया जैसा एंग्री यंग मैन का किया था। इसी से हम समाज के तापमान का अंदाजा लगा सकते हैं। यह उसका सबसे बड़ा थर्मामीटर है।
भारतीय दर्शकों की आंखें आज भी दोस्तों में शेर खान और पुलिस में विजय को तलाश करती हैं। अमिताभ बच्चन के करियर का ग्राफ देखें तो जंजीर उनकी सबसे पहली और बड़ी कामयाबी थी। उससे पहले की असफलताओं ने उनको इस किरदार में घुल जाने में मदद की और जंजीर के पात्र विजय के आक्रोश को उन्होंने सदा अपने अंदर जिंदा रखा। बाद की उनकी अभिनय यात्रा में उसकी झलक सिनेमाई दर्शकों को मिलती रही। शहरी अपराधीकरण के चित्र और शोषण की मिली-जुली कहानी वाली जो फिल्में हमारे सामने आईं और उन्होंने जो कामयाबी हासिल की, वह धीरे-धीरे पूरी तरह से अपराध के ग्लैमराइजेशन के लिए खाद और पानी बनी। शूटआउट एट लोखंडवाला, डी कंपनी, सत्या, या वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई, इन सभी फिल्मों में जंजीर का ही अक्स है।
दुर्भाग्य से, समाज के हालात जस के तस बने हुए हैं तो एंग्री यंग मैन की जरूरत भी बनी हुई है। जंजीर पैरों में नहीं, दिमाग में होती है। जंजीर बस हमें यही बताती है कि ज्यादा जरूरी है कि हम दिमाग की जंजीरों को तोड़ें और फिर से ऐसे समाज में लौटें, जहां हमारा हीरो अपनी नैतिकता, सच्चाई और ईमानदारी के उच्च मापदंडों पर खड़ा होकर न सिर्फ कामयाब हो, बल्कि वह समाज के लिए अपने बलिदान को सदा तैयार रहे। महानगरीय ढांचे में, जहां सुख-सुविधा अब जरूरत से ज्यादा प्रदर्शन की वस्तु हो गई है, ताजा वातावरण में ऐसे किरदार समाज को जिंदगी और ताजगी देंगे। यह उम्मीद और खयाल तो बहुत अच्छा है, इसके सच होने की यात्रा कठिन और मंजिल अभी दूर है। जावेद अख्तर, जो सलीम-जावेद की जोड़ी टूट जाने के बाद लोकप्रिय गीतकार और शायर भी हुए, उनकी शायरी की दोनों किताबों के नाम लावा और तरकश पर गौर करेंगे, तो नामों की यह गूंज भी हमें एंग्री यंग मैन की यादों की तरफ सोचने को मजबूर करती है। इससे यह साफ होता है कि इस लेखक जोड़ी ने एंग्री यंग मैन को सिर्फ लिखा ही नहीं, जिया भी। अपने अनुभव से उसे सजाया और संवारा भी है। वह आज तक उनके साथ सांस ले रहा है।
जंजीर तीन लोगों के जादुई करिश्मे का कमाल है- सलीम खान, जावेद अख्तर और अमिताभ बच्चन। इस करिश्मे के साथ शेर खान की भूमिका में प्राण और निर्देशक प्रकाश मेहरा के योगदान को भी याद रखा जाना चाहिए। इस मिश्रण ने समाज की नब्ज पर हाथ रखा, उसकी धड़कन को महसूस किया और परदे पर उतारा भी। आजादी के बाद तीन दशक में लगभग भारतीय समाज ने यह महसूस कर लिया था कि नागरिक अधिकारों और अन्याय के विरुद्ध न्याय के लिए दोबारा उठ खड़ा होना होगा। तब के युवाओं की सोच ने जंजीर में आए एंग्री यंग मैन का स्वागत करते हुए निश्चित ही यह सोचा होगा कि मंजिल पर पहुंचने का यह शॉर्टकट है। इसीलिए जंजीर हालात के न बदलने तक अमर है और हालात बदल जाने के बाद समाज के इतिहास में झांकने का दस्तावेज है।
(अरविंद मण्डलोई हाल में प्रकाशित जावेद अख्तर की बहुचर्चित जीवनी जादूनामा के लेखक हैं)