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बॉलीवुड: रूपहले परदे के पराजित चेहरे

टीवी अभिनेत्री तुनिशा शर्मा की आत्महत्या के बाद समाज का ध्यान उन प्रश्नों, कारणों और परिस्थितियों की...
बॉलीवुड: रूपहले परदे के पराजित चेहरे

टीवी अभिनेत्री तुनिशा शर्मा की आत्महत्या के बाद समाज का ध्यान उन प्रश्नों, कारणों और परिस्थितियों की तरफ आकर्षित हुआ है, जो अन्यथा ग्लैमर जगत की चकाचौंध में छिपे रह जाती हैं। पिछ्ले दिनों जब तुनिशा शर्मा ने आत्महत्या की तो सभी विचारवान नागरिकों को आत्ममंथन की जरूरत महसूस हुई। सभी को एहसास हुआ कि हमें अपने जीवन का आंकलन करना चाहिए। हमें सोचना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि समाज के रोल मॉडल, चहेते ऐसे जीवन में आस्था खो रहे हैं और मृत्यु का चुनाव कर रहे हैं। भारतीय ग्लैमर जगत में ऐसे कई प्रतिभावान कलाकार रहे हैं, जिन्होंने आत्महत्या की राह चुनी। इनमें निर्देशक गुरू दत्त से लेकर अभिनेत्री सिल्क स्मिता और अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत का नाम शामिल है। यह प्रश्न विचारणीय है कि जिनकी जिंदगी जीना, आम इंसान का सपना होता है, आखिर वही जिन्दगी की जंग क्यों हार जाते हैं। 

 

 

 

कवि और रंगकर्मी मानस भारद्वाज के अनुसार कलाकारों की निराशा और आत्महत्या के दो प्रमुख कारण हैं। उनका कहना है कि कोई भी कलाकार अपनी अभिव्यक्ति के लिए कला पर निर्भर होता है। कला ही उसकी मुक्ति होती है। जब तक कलाकार को काम मिलता है, जब तक कलाकार रचना प्रक्रिया में संलग्न रहता है, तब तक सब कुछ व्यवस्थित रूप से चलता है। जैसे ही कलाकार को काम मिलना बंद हो जाता है, जब कलाकार की रचना प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है तो उसकी अभिव्यक्ति बाधित हो जाती है। सब कुछ निरर्थक लगने लगता है। भीतर बेचैनी और घुटन महसूस होती है। अभिव्यक्ति बाधित होने से अवसाद की स्थिति पैदा हो जाती है। यही अवसाद कलाकार को आत्महत्या की तरफ लेकर जाता है। इसके साथ ही जीवन में तुलनात्मक दृष्टिकोण भी कलाकार को आत्महत्या की राह पर लेकर जाता है। अन्य क्षेत्रों की तरह कला के क्षेत्र में कोई गारंटी नहीं है। यहां नसीब का बड़ा महत्व है। अक्सर प्रतिभावान अभिनेता, गायक, गीतकार, संगीतकार चूक जाते हैं और उनके साथी आगे निकल जाते हैं। इस स्थिति में जब कलाकार अपने जीवन की तुलना अपने साथी के जीवन से करता है तो खुद को हीन मानने लगता है। इसी हीनता के कारण वह आत्महत्या की राह पर बढ़ जाता है। 

फिल्म अभिनेत्री सुनीता रजवार के अनुसार कलाकारों की आत्महत्या के पीछे एक बुनियादी कारण है। फिल्म जगत को शो बिजनेस कहा जाता है। यहां लोग चमक धमक देखकर आते हैं। मगर वह भूल जाते हैं कि यह चमक हमेशा नहीं रहनी। यहां उगते सूरज को सलाम किया जाता है। यहां हर सूरज एक समय बाद अस्त हो जाता है। नौजवान कलाकार जब फिल्म जगत में आते हैं तो उनकी आंखों में सपने होते हैं। वह सपनों को पूरा करने की दौड़ में भागते जाते हैं। उनका ध्यान काम से अधिक इस बात पर होता है कि उन्हें लोकप्रियता, पैसा, प्रसिद्धि मिले। जब तक उन्हें मीडिया की तरफ से महत्व मिलता है, प्रशंसक उन्हें देखकर सीटी बजाते हैं,सब ठीक रहता है। जैसे ही उन्हें महत्व मिलना बंद होता है, वह खुद पर शक करने लगते हैं। उन्हें लगता है कि अब उनका समय खत्म हो गया है और वह किसी लायक नहीं बचे। यहीं से डिप्रेशन की शुरुआत होती है। जिसकी आसक्ति काम की जगह प्रसिद्धि में होगी, वह एक दिन आत्महत्या की राह की चुनता है। 

 

 

 

 

 

मनोचिकित्सक डॉ संगीता जोशी इस विषय में महत्वपूर्ण बात कहती हैं। उनका कहना है कि अधिकांश कलाकार जब कला के क्षेत्र में आगे बढ़ते हैं तो वह अकेले होते जाते हैं। चूंकि उनका जीवन,उनकी सोच परिपाटी जैसी नहीं होती इसलिए वह अपने परिवार, दोस्तों, सगे संबंधियों से दूर होते जाते हैं। काम की व्यस्तता भी उन्हें अकेला कर देती है।इस कारण संघर्ष के समय उनके पास कोई भी बात करने वाला नहीं होता। कोई ऐसा नहीं होता जो समझा सके या ढांढस बंधा सके। इस स्थिति में जीवन व्यर्थ लगने लगता है। सब माया खोखली लगने लगती है। कलाकार महसूस करता है कि सब प्रसिद्धि, दौलत महत्वहीन है। इस स्थिति में कलाकार डिप्रेशन से होते हुए आत्महत्या तक का सफर तय करता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात जो ग्लैमर जगत के लोगों के लिए खतरनाक साबित होती है, वह है दिखावे की संस्कृति। शो बिजनेस में यह कथन है कि जो दिखता है, वही बिकता है। इस कारण सभी कलाकार हर क्षण अनावश्यक दबाव झेल रहे होते हैं। उन्हें रहन सहन, शरीर, व्यवहार में बेहद सतर्क रहना पड़ता है। उन्हें काम मिलेगा या नहीं, यह प्रतिभा से अधिक दिखावे और मार्केटिंग स्किल्स पर निर्भर करता है। जो खुद को बेच पाएगा, उसे काम मिलेगा।इस सब में कलाकार अपनी कला की पवित्रता खो देता है और एक बाजारू उत्पाद बनकर रह जाता है। यह बाजारूपन कलाकार की आत्मा को दीमक की तरह चाटता रहता है और एक दिन कलाकार आत्महत्या की राह चुन लेता है। 

 

 

 

 

 

 

 

फिल्म प्रोडक्शन क्षेत्र में सक्रिय देवांश भारद्वाज इस गंभीर मुद्दे पर प्रकाश डालते हुए एक अहम बात कहते हैं। देवांश कहते हैं कि बेहद भावुक और संवेदनशील व्यक्ति ही कला की तरफ आकर्षित होता है। व्यक्ति की भावुकता और संवेदनशीलता उसे कला के क्षेत्र में मदद तो करती है मगर कई बार यह नुकसान भी पहुंचाती है। व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से कला को समर्पित हो जाता है। वह सोते जागते केवल अपने काम के विषय में सोचता है। चूंकि उसे दुनिया को साबित करना होता है इसलिए वह किसी भी किस्म के समझौते से पीछे नहीं हटता। वह सब कुछ दांव पर लगा देता है।इस कारण वह अपने पारिवारिक और निजी प्रेम संबंधों को समय नहीं दे पाता। वह अपनी कलात्मक प्रतिबद्धता के कारण सांसारिक जिम्मेदारियों की अनदेखी करता है। नतीजा यह होता है कि उसका वैवाहिक और पारिवारिक जीवन असंतुलित रहता है। यह असंतुलन ही डिप्रेशन का कारण बनता है। इसके बाद जब कलाकार देखता है कि प्रतिभा और सम्पूर्ण समर्पण के बावजूद उसकी जगह वंशवाद, सिफारिश के आधार पर लोगों को काम मिल रहा है, महत्व मिल रहा है तो उसकी हिम्मत टूटती है। हिम्मत टूटने के बाद वह जीने की उम्मीद छोड़ देता है। देवांश कहते हैं कि सफलता को हासिल करने से अधिक महत्वपूर्ण सफल होने पर मानसिक रूप से संतुलित रहना है। कई बार कलाकार रातों रात स्टार बन जाते हैं और उनकी शोहरत कुछ समय बाद फीकी पड़ जाती है। इस स्थिति में कलाकार खुद से नजरें नहीं मिला पाते। वह खुद को हीन और कमतर समझने लगते हैं। वह भूल जाते हैं कि उतार चढ़ाव तो जीवन का हिस्सा है। वह खुद को अकेला कर लेते हैं और धीरे धीरे अंधकार में डूब जाते हैं। 

 

फिल्म और टेलीविजन जगत के लोगों का आत्महत्या करना यह बताता है कि यह कलाकार भी अजातशत्रु नहीं हैं। यह भी साधारण इंसान हैं। इन्हें भी वही सुख और दुख हैं, जिनसे आम आदमी महसूस करता है। इसलिए समाज को कलाकारों के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। कलाकारों पर अनावश्यक दबाव नहीं बनाया जाना चाहिए। न ही उन पर अपेक्षाओं का बोझ डालना चाहिए। जिस रोज कलाकार बिना झिझक और दबाव के अभिव्यक्ति कर सकेंगे, उन्हें मानसिक शान्ति मिलेगी और मनोरंजन जगत में आत्महत्या के मामले घटने लगेंगे।

 

 

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