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बहुत बुरे दौर में अर्थव्यवस्था, चार अर्थशास्त्रियों की जुबानी जानें कितना गंभीर है संकट

घरेलू अर्थव्यवस्था से जुड़े तमाम आंकड़े बड़े संकट की आहट हैं। सरकार हर नकारात्मक आंकड़े के बाद उसे...
बहुत बुरे दौर में अर्थव्यवस्था, चार अर्थशास्त्रियों की जुबानी जानें कितना गंभीर है संकट

घरेलू अर्थव्यवस्था से जुड़े तमाम आंकड़े बड़े संकट की आहट हैं। सरकार हर नकारात्मक आंकड़े के बाद उसे खारिज करती है और ‘सब कुछ अच्छा’ का जुमला उछालती है। लेकिन एनएसएसओ का ताजा उपभोक्ता खर्च सर्वे गवाही दे रहा है कि 2012 से 2018 के बीच लोगों की क्रय-शक्ति घटी है। इसकी सबसे ज्यादा मार ग्रामीण भारत पर पड़ी है। गांवों में लोगों की आमदनी घटी है और बेरोजगारी बढ़ी है, जो देश में गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वालों की तादाद बढ़ा सकता है। चालू साल के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि के अनुमान हर संस्थान और रेटिंग एजेंसी घटा रही है। साल के शुरू में सात फीसदी के अनुमान अब पांच फीसदी तक आ गए हैं। दरअसल मैन्युफैक्चरिंग, कृषि, एक्सपोर्ट, क्रेडिट, निवेश, बचत, उत्पादन सब में भारी गिरावट है। ऑटो उद्योग से लेकर एफएमसीजी, कंज्यूमर ड्यूरेबल, रियल एस्टेट वगैरह के ताजा आंकड़े चिंताजनक हैं। इन हालात के मद्देनजर देश के जाने-माने अर्थशास्त्रियों से आउटलुक ने एक पैनल चर्चा के जरिए राय जानने की कोशिश की। इस पैनल में जेएनयू में रहे आदिल शेषैया चेयर के प्रोफेसर अरुण कुमार, एचडीएफसी बैंक के चीफ इकोनॉमिस्ट अभीक बरुआ, वित्त मंत्रालय के पूर्व सलाहकार और सेंटर फॉर पॉलिसी अल्टरनेटिव के प्रमुख मोहन गुरुस्वामी और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस ऐंड पॉलिसी के प्रोफेसर एन.आर. भानुमूर्ति शामिल हैं

सवाल-चालू साल के ताजा आंकड़ों के मुताबिक जीडीपी ग्रोथ रेट 15 साल के निचले स्तर पर चली गई है, बेरोजगारी की दर 45 साल के उच्चतम स्तर पर है। अर्थव्यवस्था के अधिकांश सूंचकांक चिंताजनक स्थिति में हैं। ऐसे में इकोनॉमी की कैसी तसवीर देखते हैं?

अरूण कुमारः अगर वास्तविक जीडीपी ग्रोथ रेट 5 फीसदी या उससे ज्यादा होती है तो लोगों की खर्च करने की क्षमता और निवेश में गिरावट नहीं आती। लेकिन सरकार ने केवल संगठित क्षेत्र की ग्रोथ रेट के आंकड़े जारी किए हैं। अगर इसमें असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों को शामिल कर लिया जाए तो हम मंदी की ओर जाते दिखेंगे। नोटबंदी के बाद जिस तरह से मांग गिरी है उससे अर्थव्यवस्था नेगेटिव ग्रोथ रेट में आ गई है।

अभीक बरूआः अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति को लेकर दो सवाल उठते हैं। पहला सवाल यह है कि स्लोडाउन पर कारोबार के चक्रीय कारकों का कितना असर है। दूसरा, स्ट्रक्चरल कारक कितने जिम्मेदार हैं। मुझे लग रहा है कि चक्रीय कारकों के अलावा स्ट्रक्चरल कारक भी जिम्मेदार हैं क्योंकि उपभोक्ताओं के व्यवहार में बदलाव हो रहा है, प्रोडक्ट साइकिल बदल रहा है। इसके अलावा नोटबंदी और जीएसटी का भी झटका अर्थव्यवस्था को लगा है। साथ ही गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) का जो संकट खड़ा हुआ, उसने बहुत नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में अगर हम छह फीसदी की ग्रोथ रेट हासिल कर लें तो भाग्यशाली होंगे। मौजूदा स्थिति को देखते हुए 2022 तक पांच लाख करोड़ डॉलर की इकोनॉमी का लक्ष्य हासिल करना मुश्किल लग रहा है।

मोहन गुरूस्वामीः अर्थव्यवस्‍था 15 साल के निचले स्तर पर तो सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार है। अगर हम हकीकत देखेंगे तो ग्रोथ रेट 30 साल के निचले स्तर पर पहुंच गई है क्योंकि सरकार ने जीडीपी कैलकुलेशन के तरीके को बदल दिया है। इससे ग्रोथ रेट 2.2 फीसदी ज्यादा दिख रही है। मेरे हिसाब से ग्रोथ रेट 1.5-2.0 फीसदी पर आ गई है। यह बहुत ही गंभीर स्थिति है। इसके बुरे नतीजे निकलेंगे। उद्योग-धंधे नहीं बढ़ेंगे, बेरोजगारी बढ़ेगी। हालात नहीं सुधरे तो जनता सड़क पर आ जाएगी।

एन.आर. भानुमूर्तिः जब 2018 के मध्य में वैश्विक स्तर पर स्थितियां बिगड़ने लगी थीं, उसी समय अर्थव्यवस्था में स्लोडाउन शुरू हो गया था। फिर घरेलू कारणों से स्लोडाउन लंबा खिच गया है। जैसा अनुमान है, इस बार जीडीपी ग्रोथ रेट पांच फीसदी के करीब रहेगी, जो उम्मीद से बहुत कम है। खास तौर से ऐसा तब है जब पांच लाख करोड़ डॉलर की इकोनॉमी का लक्ष्य रखा गया है। मेरा मानना है कि ग्रोथ रेट निचले स्तर पर पहुंच गई है और अब यह तीसरी तिमाही से सुधरने लगेगी।

सवाल-क्या भारतीय अर्थव्यवस्था स्टैगफ्लेशन की तरफ जा रही है क्योंकि कमजोर विकास दर के साथ खुदरा महंगाई दर भी कम है, लेकिन मैन्युफैक्चरिंग महंगाई दर घट गई है। क्या यह मंदी से पहले की स्थिति है?

अरूण कुमारः पिछले तीन साल से महंगाई दर कम रही है। इसके अलावा मांग भी गिरती जा रही है। केवल कुछ समय के लिए जब वैश्विक स्तर पर तेल की कीमतें बढ़ी थीं तो इसमें उतार-चढ़ाव देखा गया था, इसलिए यह स्थिति स्टैगफ्लेशन की नहीं बल्कि मंदी की है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मांग कम है, कंपनियां अपनी क्षमता से बहुत कम उत्पादन कर रही हैं। बिजनेसमैन और ग्राहकों का भरोसा कम हुआ है। निवेश भी लगातार गिर रहा है। निश्चित तौर पर ये संकेत मंदी की ओर इशारा करते हैं।

अभीक बरूआः स्टैगफ्लेशन तो नहीं, हम स्टैगनेशन की स्थिति में हैं। कोर इन्फ्लेशन 3.5 फीसदी के करीब है। महंगाई दर में कमी के साथ-साथ अर्थव्यवस्था में भी स्लोडाउन है। मुझे तो यह मंदी की स्थिति लग रही है। हालांकि, तकनीकी रूप से देखें तो उभरती हुई अर्थव्यवस्था में ऐसा होना संभव नहीं है। लेकिन एक बात साफ है कि अर्थव्यवस्था अपनी क्षमता के अनुसार विकास नहीं कर रही है। हमारी क्षमता सात से 7.5 फीसदी ग्रोथ रेट की है, लेकिन हम पांच से 5.5 फीसदी के स्तर पर हैं। कुल मिलाकर स्थिति बहुत खराब है।

मोहन गुरूस्वामीः स्टैगफ्लेशन नहीं, हम तो विस्फोट (एक्सप्लोजन) की तरफ जा रहे हैं। अभी महंगाई दर बहुत कम है। यह स्थिति बहुत खतरनाक है। लोगों की आय गिर रही है। किसानों की आय में वृद्धि गिरकर 0.3 फीसदी पर आ गई है। इसका सीधा-सा मतलब है कि आपूर्ति मांग से ज्यादा है। इस समय एक नौकरी के लिए बुलाओ तो हजार लोग पहुंच जा रहे हैं। कुल मिलाकर मंदी की स्थिति में हम पिछले दो साल से हैं। लेकिन सरकार इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है।

एन.आर. भानुमूर्तिः मुझे नहीं लगता कि अर्थव्यवस्था फिलहाल स्टैगफ्लेशन के स्तर पर पहुंची है। खास तौर पर जब महंगाई दर काफी निचले स्तर पर है। इसके अलावा घरेलू और विदेशी स्तर पर मांग भी काफी गिर गई है। ऐसे में स्टैगफ्लेशन की आशंका नहीं है। सबसे अहम चिंता की बात यह है कि चक्रीय और ढांचागत, दोनों स्तर पर स्लोडाउन है। ऐसे में डर यह है कि कहीं भारतीय अर्थव्यवस्था कम विकास दर के भंवर में न फंस जाए। इससे बचने के लिए हमें तात्कालिक और दीर्घकालिक दोनों स्तर पर बड़े कदम उठाने होंगे।

सवाल-आर्थिक विकास के लिए निवेश को सबसे अहम माना जाता है। लेकिन कर्ज की मांग कई जरूरी क्षेत्रों में नकारात्मक हो गई है। नई उत्पादन क्षमता भी नहीं आ रही है। यह किस बात का संकेत है?

अरूण कुमारः जब निवेश गिरता है और उत्पादन में कमी आती है, तो निश्चित तौर पर बैंकों से कर्ज की मांग भी गिरती है। इस समय कॉरपोरेट सेक्टर के पास नकदी की कमी नहीं है, लेकिन वह गिरती मांग को देखते हुए निवेश से बच रहा है। साथ ही बैंक गैर निष्पादित संपत्तियों (एनपीए) के संकट को देखते हुए नए कर्ज देने से परहेज कर रहे हैं। देखिए, मंदी की स्थिति में रोजगार संकट बढ़ता है। नोटबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र में नौकरियां कम हुईं, और अब संगठित क्षेत्र में भी नौकरियों का संकट गहरा रहा है। कई कंपनियां अपने कर्मचारियों के कॉन्ट्रैक्ट में भी बदलाव कर रही हैं और स्थायी कर्मचारियों को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (वीआरएस) का भी ऑफर दे रही हैं।

अभीक बरूआः यह बहुत बड़ी चुनौती है। मुझे नहीं लगता कि इसमें बहुत जल्द कोई सुधार होने वाला है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि कंपनियां अपनी क्षमता की तुलना में बहुत कम उत्पादन कर रही हैं। गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को आरबीआइ द्वारा ब्याज दरों में की गई कटौती का फायदा नहीं मिल रहा है। अभी अच्छी कंपनियों को बहुत कम ब्याज दर पर कर्ज मिल रहा है। लेकिन जहां से मांग आएगी, वहां सस्ता कर्ज नहीं पहुंच रहा है। ऐसे में हम एक भंवर में फंसते जा रहे हैं। जल्द ही इसे तोड़ना होगा। सरकार को राजकोषीय घाटे के स्तर पर कुछ कठिन फैसले लेने होंगे, तभी जाकर हम इस भंवर से निकल सकेंगे। ऐसा करना आसान नहीं है, लेकिन जब तक लोगों के हाथ में पैसा नहीं आएगा, तब तक मांग नहीं बढ़ेगी।

मोहन गुरूस्वामीः कर्ज की मांग गिरने का सीधा मतलब है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं है। सरकार बैंकों से कह रही है कर्ज दो, बैंकों के पास नकदी की समस्या भी नहीं है। लेकिन जब कोई कर्ज की मांग करेगा, तभी तो बैंक कर्ज देंगे। लोगों को उम्मीद नहीं दिख रही है, इसलिए स्थिति गंभीर है। पहले तो सरकार को मानना पड़ेगा कि स्थिति खराब है, तभी तो उसे दुरुस्त कर पाएंगे। लेकिन सरकार मानने को तैयार नहीं है।

एन.आर. भानुमूर्तिः संकेतों से साफ है कि स्लोडाउन बहुत गहरे स्तर तक पहुंच गया है। एनपीए संकट की वजह से बैंकों की कर्ज देने की रफ्तार गिर गई है। चिंता की बात यह है कि बिजली उत्पादन में भी गिरावट आ रही है, जबकि उत्पादन क्षमता की कोई समस्या नहीं है। यानी मांग ही नहीं है। यह अच्छा संकेत नहीं है।

सवाल-उपभोक्ता खर्च सर्वेक्षण के आंकड़े इसमें गिरावट बता रहे हैं। ग्रामीण भारत में स्थिति ज्यादा खराब हो रही है। हालांकि सरकार इस सर्वेक्षण को नकार रही है जो इस साल के शुरू में बेरोजगारी के आंकड़ों पर सरकार के रुख की तरह ही है। क्या यह सच्‍चाई को छिपाने की कोशिश है?

अरूण कुमारः बेरोजगारी हो, जीडीपी का आंकड़ा हो, किसानों की आत्महत्या का मामला हो या फिर उपभोक्ता खर्च के आंकड़े हो, जो भी नंबर सरकार के प्रतिकूल आ रहे हैं, उसे मानने से वह इनकार कर रही है। मैंने पहले भी कहा कि नोटबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र के तहत काम करने वालों की आय में भारी कमी आई है, जिसका असर ग्रामीण क्षेत्र में सीधे तौर पर हुआ है। इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जब लोगों की आय गिरेगी तो उनकी खरीद क्षमता भी घटेगी।

अभीक बरूआः सरकार की एजेंसियों के जरिए जो भी आंकड़े आते हैं, उसे स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि निजी स्तर पर उतने साधन नहीं हैं कि कोई और वैसे आंकड़े जुटा पाए। जहां तक सरकार द्वारा आंकड़ों को स्वीकार नहीं करने की बात है, तो मेरा मानना है कि अगर आंकड़ों में गड़बड़ी है तो उसे बताना चाहिए। लेकिन सरकार को आंकड़े जरूर जारी करने चाहिए।

मोहन गुरूस्वामीः सरकार शुतुरमुर्ग की तरह व्यवहार कर रही है। उसके पास हिम्मत नहीं है कि कठिन परिस्थितियों का सामना करे। इस सरकार ने अपनी दुनिया बना ली है, जहां ऐसे लोगों का जमावड़ा है, जिन्हें परिस्थितियों की बेहतर समझ नहीं है।

एन.आर. भानुमूर्तिः ऐसा नहीं है ‌कि पहली बार सरकार ने आंकड़ों को खारिज किया है। पहले भी सरकार ने आधार वर्ष में बदलाव किया है। सरकार ने नया आधार वर्ष 2011-12 तय किया है।

सवाल-आईटी,मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में बड़े पैमाने पर नौकरियां जाने का खतरा मंडरा रहा है। दूसरे सेक्टरों में भी बुरा हाल है। आप इन परिस्थितियों को कैसे देखते हैं?

अरूण कुमारः संगठित क्षेत्र में युवा नौकरियों की कमी का सामना कर रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक हर साल 15 साल से ज्यादा उम्र के करीब 15 लाख युवा संगठित क्षेत्र में नौकरियों की तलाश करते हैं, लेकिन पिछले एक दशक में बहुत कम नौकरियां पैदा हुई हैं। उल्टे उनमें गिरावट आ रही है। ऐसे में बहुत से युवा अच्छी योग्यता होने के बावजूद कम कौशल वाली नौकरियां सरकारी क्षेत्र में ढूंढ़ रहे हैं। युवाओं में हताशा बढ़ रही है। शायद यही कारण है कि महाराष्ट्र में मराठा और गुजरात में पटेल जैसी संपन्न जातियां आरक्षण की मांग कर रही हैं।

अभीक बरूआः नौकरी के बढ़ते संकट की कई वजहें हैं। एक तो तकनीकी स्तर पर समस्या है, क्योंकि कई सेक्टर में ऑटोमेशन हो रहा है। खास तौर से ऑटो सेक्टर ढांचागत बदलाव से गुजर रहा है। वहां कई सारी अनिश्चितताएं हैं। ऐसे में वह पहले जैसा रोजगार देने वाला क्षेत्र अब नहीं रह गया है। हम मैन्युफैक्चरिंग में खास नहीं कर पाए। बांग्लादेश, वियतनाम हमसे आगे निकल गए। फार्मा सेक्टर में भी हम पीछे हो गए। हमें चार-पांच ऐसे सेक्टर की पहचान करनी होगी, जहां कम कौशल वाली नौकरियों की जरूरत है, क्योंकि केवल सूचना-प्रौद्योगिकी और टेलीकॉम सेक्टर के भरोसे नहीं रहा जा सकता। नई मैन्युफैक्चरिंग पॉलिसी में हमें इन बातों पर जोर देना होगा, जिससे अमेरिका और चीन के ट्रेड वॉर से बने मौके का फायदा मिले।

मोहन गुरूस्वामीः भारतीय अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र रोजगार का सबसे बड़ा साधन है, लेकिन नोटबंदी के बाद इस क्षेत्र पर सबसे ज्यादा चोट पड़ी है। इसमें स्थिति और बिगड़ती जा रही है। मेरा अनुमान है कि बेरोजगारी दर पुराने 6.1 फीसदी के उच्चतम स्तर से भी ज्यादा हो चुकी है। हम गंभीर हालात में पहुंचते जा रहे हैं। जैसा कि मैंने पहले कहा है, लोग सड़कों पर उतर जाएंगे।

एन.आर. भानुमूर्तिः बेरोजगारी का संकट और लोगों की खर्च करने की क्षमता में आई कमी, साफ तौर पर दिखाती है कि स्थिति काफी गंभीर है। लेकिन इन परिस्थितियों पर हमें कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि 2016-18 में अर्थव्यवस्था को पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी का झटका लगा था। मेरा मानना है कि हमें सही तसवीर के लिए आधार वर्ष को फिर से देखना होगा। फिलहाल सरकार ने वित्त वर्ष 2011-12 को आधार वर्ष तय कर रखा है।

सवाल-अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सरकार ने कई बड़े फैसले करने और पैकेज देने का दावा किया है। क्या यह मौजूदा हालात को सुधारने के लिए काफी है?

अरूण कुमारः सरकार ने अभी तक जो भी पैकेज दिए हैं उनमें उसका जोर संगठित क्षेत्र को राहत देने पर है, जबकि समस्या असंगठित क्षेत्र से शुरू हुई थी। राहत पैकेज से केवल सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ेगा। मांग तभी बढ़ेगी जब निवेश बढ़ेगा। अगर राहत पैकेज का पैसा असंगठित क्षेत्र को दिया गया होता- मसलन, मनरेगा में किसानों की आय बढ़ाने, शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण क्षेत्र में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर खर्च किया जाता, तो निश्चित तौर पर मांग बढ़ जाती। इसी तरह रियल एस्टेट सेक्टर को जो राहत पैकेज दिया गया है उससे भी कुछ खास असर नहीं होने वाला है। इकोनॉमी को पटरी पर लाने के लिए जो सबसे आसान तरीका है, सरकार उसे नहीं अपना रही है, बल्कि राजकोषीय घाटा बढ़ाने पर जोर दे रही है। हालांकि विनिवेश से राजकोषीय घाटा थोड़ा कम हो सकता है, लेकिन इससे न तो निवेश में तेजी आएगी और न ही डिमांड बढ़ेगी। ऐसे में सरकार को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए।

अभीक बरूआः कॉरपोरेट टैक्स में कटौती करना बड़ा कदम है लेकिन इसका असर अभी नहीं दिखेगा। अभी घरेलू डिमांड बहुत कम है। कंपनियां निवेश करने से बच रही हैं। इन परिस्थितियों में ज्यादा असर नहीं होगा। कॉरपोरेट अगर निवेश करते हैं तो  कीमतों में कमी भी कर सकते हैं। लेकिन यह सब अभी नहीं होने वाला है। इस कदम का लंबी अवधि में फायदा होगा।

मोहन गुरूस्वामीः जब मांग नहीं है, निवेश के लिए माहौल नहीं है, तो टैक्स राहत देखकर कोई निवेश नहीं करेगा। जब लोगों को उम्मीद दिखेगी, तभी वे निवेश करेंगे। देश के बड़े पूंजीपतियों को देखिए, वे नए निवेश से बच रहे हैं। जब तक कोई उथल-पुथल नहीं होगी, यानी काम करने का मौजूदा तरीका नहीं बदलेगा, तब तक सुधार नहीं होगा। यह दौर 1990 के दशक से भी ज्यादा बुरा है। जब घर जल रहा हो तो पानी डालना चाहिए, लेकिन सरकार ने नोटबंदी जैसे कदम उठा लिए। यह कोई तरीका है?

एन.आर. भानुमूर्तिः 2019-20 में बजट पेश करने के बाद सरकार ने रिवाइवल के लिए कई बड़े कदम उठाए हैं। इनका असर तीसरी तिमाही में दिखेगा। लेकिन एक गंभीर बात समझनी जरूरी है कि सरकार विकास दर को बढ़ाने के लिए मौद्रिक नीति पर ज्यादा भरोसा कर रही है। आरबीआइ का जोर ब्याज दरों में कटौती पर है, जबकि इस समय सरकार को घाटे की परवाह किए बिना राहत पैकेजों का ऐलान करना चाहिए।

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