Advertisement

क्या वाकई सरकारी बैंकों ने माफ किया 55 हजार करोड़ का कर्ज? क्या है "राइट ऑफ"

किसानों की कर्ज माफी की मांग के साथ एक मुद्दा बार-बार उठता है कि बैंक उद्योगपतियों का हजारों करोड़...
क्या वाकई सरकारी बैंकों ने माफ किया 55 हजार करोड़ का कर्ज? क्या है

किसानों की कर्ज माफी की मांग के साथ एक मुद्दा बार-बार उठता है कि बैंक उद्योगपतियों का हजारों करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर देते हैं, लेकिन किसानों का जिक्र आते ही कर्ज माफी से अर्थव्यवस्था ही हालत बिगड़ने लगती है। अब खबर आई है कि पिछले छह महीने में सरकारी बैंकों ने 55,356 करोड़ रुपये का कर्ज राइट ऑफकिया है, जो गत वर्ष की समान अवधि की तुलना में 54 फीसदी अधिक है। यहां सारा खेल इस राइट ऑफशब्द में छिपा है।

इस खबर के आते ही केंद्र सरकार पर उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने और उनके कर्ज माफ करने के आरोप तेज हो गए हैं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के नेता सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि सरकारी पैसे की लूट जारी है। किसानों के मामूली कर्ज माफ नहीं किए जाते, लेकिन 2018 में एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज राइट ऑफकिया जा रहा है। मोदी और उनकी सरकार गरीबों की बात करती है लेकिन मदद सिर्फ अमीर डिफाल्टरों की करती है। स्वराज इंडिया पार्टी के नेता योगेंद्र यादव ने भी ट्वीट किया कि पिछले डेढ़ साल में 1 लाख 32 हजार करोड़ रुपये का लोन राइट ऑफकिया गया है। किसानों की कर्ज माफी पर हाय-तौबा मचाते वक्त इस आंकड़े को याद रखना चाहिए।


 

जाहिर है राइट ऑफशब्द इस पूरी बहस के केंद्र में है। जिसे सत्तापक्ष और विपक्ष के लोग अपनी-अपनी सुविधा के हिसाब से पढ़ रहे हैं। कुछ लोग राइट ऑफको सीधे कर्ज माफी मान रहे हैं जबकि कई लोग इस मसले को सरकारी शब्दावली के भ्रम में उलझाए रखना चाहते हैं। जबकि सच्चाई इन दोनों अर्थों के कहीं बीच में है।

आरबीआई का स्पष्टीकरण 

राइट ऑफको हम अपनी भाषा में समझें-समझाएं इससे पहले भारतीय रिजर्व बैंक के उस स्पष्टकीरण पर गौर करना जरूरी है जो उसने पिछले साल दिया था। 

आरबीआई की ओर से 9 फरवरी, 2016 को जारी स्पष्टीकरण के मुताबिक, अपनी बैलेंस शीट साफ करने के लिए  नॉन परफोर्मिंग असेट (ऐसा कर्ज जो लौट रहा है) को राइट ऑफकरना बैंकों की एक नियमित प्रक्रिया है। ऐसा बेलेंस शीट को दुरुस्त रखने और कर दक्षता बनाए रखने के मकसद से किया जाता है। राइट ऑफ”  करने में कर्ज को बैंक के हेड ऑफिस की बैलेंस शीट हटाकर बट्टे खाते में डाल दिया जाता है। लेकिन इस कर्ज को माफ नहीं किया जाता। इसकी वसूली की प्रक्रिया जारी रहती है। वसूली होने के बाद यह कर्ज बैंक के नफे-नुकसान के खाते में लौट आता है।

आरबीआई के स्पष्टीकरण आमतौर पर ऐसे ही क्लिष्ट होते हैं। लेकिन मोटी बात यह है कि राइट ऑफको हम सीधे तौर पर कर्ज माफ करना नहीं कह सकते। यह बैंकों की एक प्रक्रिया है जबकि कर्ज डूबने लगता है तो इसे अपनी बैलेंस शीट से हटाकर बट्टे खाते में डाल दिया जाता है। दरअसल, कर्ज पर मिलने वाला ब्याज बैंकों की कमाई है और इसे वे असेट की तरह देखते हैं। जिस कर्ज पर  कमाई होनी बंद हो जाती हैं वे इसे नॉन परफोर्मिंग असेट (एनपीए) की तरह देखने लगती हैं। एनपीए को राइट ऑफकरने को लेकर अलग-अलग बैंकों की अपनी व्यवस्थाएं हैं जो उनकी माली हालत और आरबीआई के दिशानिर्देशों से संचालित होती हैं।

"राइट ऑफ" मतलब कर्ज माफी नहीं, मगर... 

इस तरह राइट ऑफका मतलब ऐसे कर्ज से है जो बैंकों के पास वापस नहीं लौटा और जिसे बैंक अपनी बैलेंस शीट से हटाना चाहते हैं। लेकिन इसकी वसूली, कब्जे की प्रक्रिया जारी रहती है। कुल मिलाकर यह एक तकनीकी कवायद है। लेकिन इसमें पारदर्शिता को लेकर सवाल उठते रहे हैं।

बहरहाल, बैंकों द्वारा कर्ज को राइट ऑफ”  किए जाने को सीधे तौर पर कर्ज माफी न भी समझे तब भी इतना तो जाहिर होता ही है कि बैंकों का यह कर्ज डूबने के कगार पर है। जिससे निपटने की तैयारी शुरू कर दी गई है। राइट ऑफ”  का कर्ज वापस आ भी सकता है और नहीं भी। नहीं आया तो ऐसे कर्ज की वसूली की लंबी प्रक्रिया है जो मुकदमेबाजी और कुर्की तक खिंचती है।

डूबते कर्ज का अंबार 

इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक, पिछले 10 वर्षों में 3 लाख 60 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज राइट ऑफ किया गया है। इसमें से 1 लाख 32 हजार करोड़ रुपये पिछले डेढ़ साल में राइट ऑफ हुआ। इसे कर्ज माफी न भी मानें तब भी इतना तो जाहिर है कि 9 साल में जितना कर्ज बट्टे खाते में गया था, उसका करीब 58 फीसदी पिछले डेढ़ साल में राइट ऑफ हुआ है। इतने बड़े कर्ज का बैंकों को वापस न लौटना अर्थव्यवस्था के लिए भी चिंताजनक है।

- यहांं सवाल यह भी उठता है कि कुछ लोगों के लिए बैंकों का कर्ज न चुकाना इतना आसान हो रहा है कि डूबते कर्ज का आंकड़ा इतनी तेजी से बढ़ रहा है? आखिर ये कौन लोग हैं जिनके लिए बैंक का करोड़ों रुपये का कर्ज न लौटाना इतना आसान है?    

- आरबीआई इसे भले ही बैंकों की नियमित प्रक्रिया माने लेकिन "राइट ऑफ" होने वाले कर्ज के बढ़ते आंकड़े से यह भी स्पष्ट है कि बैंकों से कर्ज लेकर न लौटाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।

- कोई बैंक किसी कर्ज को तभी "राइट ऑफ" करता है, जब उसकी वसूली बहुत मुश्किल हो जाए। यानी "राइट ऑफ" से सीधा अर्थ ऐसे कर्ज से है जो रिकवर नहीं हो पा रहा है।

 

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad