हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने हिंदी सिनेमा और टेलीविजन की मशहूर शख्सियत एकता कपूर को आपत्तिजनक कंटेंट के कारण फटकार लगाई, तो नए सिरे से फिल्मों और दूसरे दृश्य माध्यमों पर अश्लीलता परोसने की बहस छिड़ गई। एकता कपूर के पक्ष की दलील थी कि वह युवाओं को विकल्प दे रही हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि जो विकल्प युवाओं को प्रदूषित करे और उनका चारित्रिक पतन करे उसे सराहा नहीं जा सकता। इसके बाद फिर यह सवाल उभर आया है कि ओटीटी माध्यम और अन्य विजुअल माध्यम पर सेंसर का अंकुश लगाना अनिवार्य है या नहीं? इसे लेकर विभिन्न तर्क दिए जा रहे हैं। खासकर सिनेमा जगत, जो हमेशा दो फांक में बंटा रहा है। कलात्मक और दूसरा मनोरंजन पक्ष। सिनेमा को कलात्मक अभिव्यक्ति मानने वाले कोशिश करते रहे हैं कि सिनेमा समाज में जागरूकता फैलाने, नई अभिव्यक्तियों को आवाज देने का माध्यम है। दूसरे पक्ष की दलील होती है कि दर्शक सिनेमाघर में खालिस मनोरंजन के लिए प्रवेश करता है, इसलिए किसी भी कीमत पर दर्शक का मनोरंजन किया जाना चाहिए। इस पक्ष के लिए दर्शकों का मनोरंजन कमाई का साधन होता है, इसलिए ये किसी नियम, कानून, बंदिश के पक्ष में नहीं है। यह पक्ष बाजार को ध्यान में रखकर और कामुक भावनाओं को भुनाकर दौलत कमाना चाहता है।
हिंदी फिल्मों के चरित्र अभिनेता गोपाल कुमार सिंह का कहते हैं, “देव आनंद और राज कपूर की फिल्मों में भी ऐसे दृश्य होते थे, जिसमें अंग प्रदर्शन होता था। मगर सभी दृश्य कहानी और किरदारों के अनुरूप होते थे। इसलिए उन्हें देखकर अटपटा महसूस नहीं होता था। आज ओटीटी माध्यम की फिल्मों और वेब सीरीज में जहां तहां सेक्स सीन डाल दिए जाते हैं। उनका कहानी और किरदारों से कोई लेना-देना नहीं होता। भारतीय समाज में देह की प्रवृत्ति पर लंबे समय तक चुप्पी साधी गई। सेक्स को बुरा, हीन बताया गया। इस कारण पूरा समाज ही कुंठित और मनोरोगी बन गया है। सभी लोगों की अतृप्त इच्छाएं हैं, जिन्हें अश्लील कंटेंट बनाने वाले भुना रहे हैं। यही कारण है कि इन अश्लील वेब सीरीज, फिल्मों को गजब की व्यूअरशिप मिल रही है।”
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पीएचडी रिसर्च स्कॉलर ऋषभ पाण्डेय कहते हैं कि पिछले दशक में बाजार व्यावसायिक सिनेमा पर हावी हो गया है। 2013 में ग्रैंड मस्ती और ओटीटी पर गंदी बात जैसी फिल्मों और वेब सीरीज के आने से हिंदी सिनेमा की आत्मा को बहुत क्षति पहुंची है। भूमंडलीकरण और अभिव्यक्ति की आजादी की अति ने कुछ निर्देशकों को सिनेमा के बाजार में इस तरह खड़ा कर दिया है कि वे अब दर्शकों की पसंद के हिसाब से अच्छी फिल्मों में बेवजह सेक्सुअल दृश्य भर रहे हैं। ऋषिकेश मुखर्जी से लेकर कुंदन शाह और प्रियदर्शन की फिल्मों में शानदार हास्य होता था। लेकिन आज फूहड़ता, अश्लीलता को ही कॉमेडी फिल्मों का अनिवार्य अंग मान लिया गया है।
सिनेमा के जानकार मानते हैं कि पहले के समय में केवल बी और सी ग्रेड फिल्में ही इस उद्देश्य से बनाई जाती थीं। खास तरह के दर्शक उनमें शामिल कामुक दृश्यों को देखने के लिए ही सिनेमाघरों में आते हैं। आज यह विभाजन मिट गया है। ऑल्ट बालाजी और उल्लू जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर मौजूद मुख्यधारा की फिल्में और वेब सीरीज केवल सेक्सुअल कंटेंट परोस रही हैं। इस तरह मुख्यधारा की फिल्मों और बी ग्रेड, सी ग्रेड फिल्मों का अंतर अब समाप्त हो गया है। इस अंतर के मिटने से सिनेमा को बहुत नुकसान पहुंचा है। सिनेमा के भीतर के लोगों ने इसका विरोध नहीं किया। दर्शकों ने भी अश्लील कंटेंट को दिलचस्पी के साथ देखा, उन्हें अच्छी व्यूअरशिप मिली। इस तरह से अश्लील कंटेंट बनाने वालों का हौसला बढ़ा और जिसका नतीजा यह कि आज बहुतायत में सेक्सुअल कंटेंट परोसा जा रहा है।
एंटरटेनमेंट ऐप शेयर चैट के कंटेंट क्रिएटर राघवेन्द्र प्रजापति का कहना है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर परोसे जा रहे कंटेंट के साथ एक बुनियादी समस्या है। जिन लोगों का उद्देश्य अश्लील कंटेंट देखना होता है, वह सीधा अश्लील कंटेंट बनाने वाली वेबसाइट पर पहुंच जाते हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत दस या बारह साल का लड़का ओटीटी प्लेटफॉर्म पर एक सामान्य फिल्म या वेब सीरीज देखने पहुंचता है और उसके सामने बहुत आसानी से अश्लील कंटेंट से लबरेज वेब सीरीज उपलब्ध हो जाती है। ओटीटी प्लेटफॉर्म भी होम पेज पर विशेष रूप से अश्लील फिल्म को ही प्रदर्शित कर रहा होता है। ऐसी वेब सीरीज का सोशल मीडिया से लेकर यूट्यूब पर प्रचार होता है। शहरों में इसके बैनर, पोस्टर, होर्डिंग्स लगे होते हैं। इतने प्रचार के बाद कम उम्र के युवा इस अश्लील कंटेंट की तरफ आकर्षित होते हैं।
वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज का कहना है कि “युवाओं, कम उम्र के बच्चों तक अश्लील कंटेंट नहीं पहुंचना चाहिए। यह देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ है। किसी भी राष्ट्र को बर्बाद करने के लिए उसके युवा का वैचारिक, नैतिक और चारित्रिक पतन करना काफी है। ओटीटी प्लेटफॉर्म आसानी से यह कर रहे हैं। उन्हें आसान तरीकों से पैसा कमाना है। इसके लिए न बड़ा बजट चाहिए, न विशेष तकनीक या दक्षता। सार्थक, संवेदनशील सिनेमा बनाने का रिस्क न ये लेना चाहते हैं न इनमें ऐसी प्रतिभा है।”
सरकार को इसे रोकने के लिए कड़े नियम और कानून बनाने होंगे। फिलहाल ओटीटी और सोशल मीडिया सेंसरशिप से मुक्त है। कंटेंट के लिए रेगुलर मॉनिटरिंग जरूरी है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर खुली छूट किसी को नहीं दी जा सकती। दर्शकों की भी जिम्मेदारी है कि वे अपनी अपनी शिकायत उचित जगह दर्ज कराएं। केवल सोशल मीडिया पर लिखने से कुछ नहीं होगा। सरकार और सिनेमा की इकाइयां हैं, वेबसाइट हैं, जहां दर्शक अपनी शिकायत, सुझाव दर्ज करा सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा दर्शक सिनेमा के चारित्रिक पतन की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित कराएंगे तो अवश्य सरकार द्वारा कड़े फैसले लिए जाएंगे और युवाओं के भविष्य के साथ होने वाले खिलवाड़ के खिलाफ कार्रवाई की जा सकेगी।