अगर निर्देशक श्रीराम राघवन अपने असमंजस पर थोड़ा सा काबू पा लेते तो यह अच्छी फिल्म हो सकती थी। यह फिल्म अच्छी और खराब की दुविधा से बार-बार टकराती है और आखिर में निराशा ही हाथ आती है। अच्छे कलाकारों से कैसे खराब काम कराया जा सकता है इसके लिए यह फिल्म याद रखी जाएगी। विनय पाठक, दिव्या दत्ता इसके उदाहरण हैं। नवाजुद्दीन सिद्दकी का भी पूरा उपयोग नहीं हुआ फिर भी वह अकेले ही हैं जो फिल्म की नैया पार लगाने में जुटे रहे।
एक बात और इस फिल्म से समझ आई, यदि किसी पुरुष को किसी से बदला लेना हो तो उसकी गर्लफ्रेंड के साथ सेक्स कर लो। इससे नायाब तरीका शायद ही दूसरा हो। हो सकता है यह फिल्म बेचने का एक तरीका हो। खैर। अगर नायक रघु (वरुण धवन) अपनी पत्नी (यामी गौतम) और बच्चे की हत्या के बाद बदलापुर नाम की जगह अच्छापुर, सहिष्णपुर, सौहार्दपुर नाम की जगह भी रहने चला जाता तो भी कहानी पर कोई फर्क नहीं पड़ना था। क्योंकि बदलापुर में रहने से वह लायक (नवाजुद्दीन सिद्दकी) या हरमन (विनय पाठक) से बदले की भावना को जगाए रखता है या खत्म कर देता है यह पता नहीं चलता। वह अपनी जिंदगी बदलापुर में जी रहा है और लायक अपनी जेल में। अब भाई लोग बीच में ट्विस्ट देना बहुत जरूरी है सो एक एनजीओ में काम करने वाली शोभा (दिव्या दत्ता) नमूदार होती हैं और कहती हैं, ‘लायक को कैंसर है सो माफी दे दे।’ अब हीरो को फिर याद आ जाता है कि उसे तो बदला लेना है। वह यहां बदलापुर में क्या कर रहा है। इतने दिनों से लायक की मां उसके जिस बेटे के साथी का नाम छुपाए रखती है वह भी अचानक आती है और उस साथी का नाम बता देती है, दरअसल जो रघु की बीवी और बच्चे का कातिल है।
लचर ढंग से कहानी जैसे-तैसे खींच कर मध्यांतर तक पहुंचती है और दर्शकों की आस टूटने लगती है कि अब तो आधी फिल्म हो गई कब कुछ होगा। सत्तर का दशक याद कीजिए जिसमें आंखों में लाल डोरे लिए हुए जब अमिताभ अपने माता-पिता की हत्या का बदला खलनायक से लेते थे तो कितनी तालियां पड़ती थीं। पर अब सन 2015 आ गया है सो माहौल तो बदल गया है। मानवअधिकारों का माहौल कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। हर व्यक्ति रघु को आकर ऐसे पाठ पढ़ाता है जैसे उसने अपनी बीवी की हत्या की और बाद में उसका दोष लायक के सिर मढ़ रहा है। हर व्यक्ति रघु के बजाय लायक के साथ सहानुभूति रखता है और तब तो हद ही हो जाती है जब लायक के मर जाने के बाद उसकी प्रेमिका झिमली (हुमा कुरैशी) रघु को हिकारत से बताती है कि वह कैंसर से मर गया और उसने तुम्हें दोबारा मौका दिया। अब यह दूसरा मौका कौन सा था यह तो देख कर ही जाने तो बेहतर होगा।
तो कुल मिला कर लब्बोलुआब यह है कि समय और पैसा जास्ती हो तो चले जाइए किसी भी आसपास के मल्टीप्लैक्स में। कभी-कभी पकना भी बुरा नहीं होता।