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देव आनंद जन्मशती: मायानगरी की देव-कथा

गोवा की जीवनरेखा कही जाने वाली मंडोवी-जुआरी नदियों की उच्छल लहरों और कमसिन पछुवा हवाओं को चीरकर कला...
देव आनंद जन्मशती: मायानगरी की देव-कथा

गोवा की जीवनरेखा कही जाने वाली मंडोवी-जुआरी नदियों की उच्छल लहरों और कमसिन पछुवा हवाओं को चीरकर कला अकादमी और आइनॉक्स के बाहर विशेष रूप से बनाए गए सजीले मंच तक उस साल यह खबर लहरा रही थी कि आकाश-कुसुम हो चला एक सितारा भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (इफ्फी) में फिर से नुमाया होने वाला है। सदी के एक अनमोल सदाबहार सितारे के रूप में उसकी जगमगाहट से फिर रूबरू होने की घड़ी का वहां सब इंतजार कर रहे थे।

वह 2 दिसंबर 2006 की मखमली सुबह थी। माहौल में बेताबियां और शोखियां उरुज पर थीं। कला अकादमी से पहले उन्हें समारोह के सजीले मंच पर अवतरित होना था। चाकचौबंद कला अकादमी में उस दोपहर सबके बीच अचानक देव साहब को पाकर हतप्रभ होना ही था। ये वही देव आनंद थे जिनकी फिल्मों के मदरसे में रूमानियत और यौवन की तरंगों के पाठ एक साथ पढ़ते हुए हम बड़े हुए थे। आज  उनकी संगत सुबह से ही मिली हुई थी। उधर गिरीश कासरवल्ली की फिल्म हसीना की हीरोइन तारा वेणुगोपाल के साथ जब उन्हें विशेष रूप से एक ही मंच पर आमंत्रित किया गया था, तब मैं वहां भी उनकी मौजूदगी का उनकी हर नई फिल्म की तरह ही, जैसे किसी रूहकशी से, सामना और इंतजार कर रहा था। तारा को 2004-05 में हसीना फिल्म में सर्वोत्‍तम अभिनेत्री के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजे जाने के मौके को पुनर्नवा करने के लिए देव साहब को बुलाया गया था। लोग कभी तारा को निहारते, तो कभी देव आनंद की रूहेरवां छवि को। खुले मंच पर उनके सामने खुद तारा का शरमाना देखते ही बनता था। देव आनंद की अनंत छवियों में यह क्षण भी मेरे लिए बेशकीमती था। आज सौ साल की देव-उत्सवधर्मिता की सुनहली बेला पर उनके युग में पीछे मुड़कर देखने और उस फ्लैशबैक को बार-बार जीने का मन और हौसला जैसे कायम है। उनका युग अलबत्ता अब नहीं है, बीत चुका है, पर जैसे बीता ही नहीं। वह तो हमारे युगीन-सिनेमा में आज भी समाए हुए जैसे, खुशनुमा दस्तक दे रहा है। इसका कारण है इस अप्रतिम-अलबेले महानायक की समयातीत जीवंत-शाश्वत उपस्थिति और पूरी जिंदगी को ही अपनी मस्ती, आवारगी और उदासियों-खुशियों की यायावरी के साथ फिल्मों में जिंदगी की फैंटेसी को जमीनी दुनिया की सच्चाइयों के लायक बनाए रखना। वह इसी गुणवत्ता के साथ जन्मे और कोई काल्पनिक ब्रह्मकमल उसी की खातिर गोया अपने अंत:स्थल में ताजिंदगी धारण किए रहे। जो आत्मीय और कच्चा-पक्का पर अद्वितीय स्वांग-संसार इस बीच उन्होंने खास अपनी तरह की किरदारी के साथ रचा, वह अनमोल है और रहेगा। पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी इस संजीवनी की सुगंध खामोशियों और दुख-सुख के मंजर को भी कितना-कितना महका गई है, बौरा गई है। आइए, उसे तस्लीम करें!

विस्मय के पहलू और छवियां

उस दौर के उजले, मझले, निचले और आधुनिक हो रहे समाजों को चरितार्थ करते किरदारों से पगे दिलीप कुमार के गंभीर-गमगीन चेहरे की बानगी और लहजे की बड़ी कद्र रही है। साथ ही मासूमियत और भोलेपन की गिरह लगाए राज कपूर की हिंदुस्तानी मन को पढ़ने की कला की भी अपनी खास पहचान रही है। पर देव आनंद का खिलंदड़ी हाव-भावों के साथ दमकता-चमकता हसीन चेहरा श्याम-श्वेत फिल्मों के युग से रंगीनियत में उतरे चित्रपट तक उस जगमग नगरी में जैसे दिक्काल के अंत तक हमारे मन-मस्तिष्क पर छाया रहता है, जिसका नायक हर फिक्र को धुएं में खूब उड़ाता हुआ नया ‘सरताज’ सिद्ध हुआ; जो अपनी फिल्मों के पहले दो दशकों तक जवां-जिंदगी के हर मुश्किल पहलू से पार जाकर जीत हासिल करता है; फिर बदलते समय के सिनेमा को भी उजला करता है।

गाइड फिल्म में देव आनंद

गाइड फिल्म में देव आनंद

इसकी सर्वोत्तम मिसाल हम दोनों के कैप्टन आनंद और मेजर वर्मा के दोहरे किरदारों के बाद गाइड का राजू गाइड ही है, जो स्वयं नायक के जीवन के भीतर हो रहे परिवर्तनों के साथ हिंदी सिनेमा को एक नए दर्शन और अध्यात्म का परिचय देता हुआ परदे पर पुन: जीवन से आत्म साक्षात्कार कराता है। वही आत्मदर्शन की उच्च-कला को उसी राजू गाइड के स्वामी के श्रेष्ठ-पात्र में रूपांतरण के समय छूकर दिखाता है। वही एकमात्र फिल्म गाइड जैसे देव की अब तक की तमाम भूमिकाओं के बाद का भी श्रेष्ठ प्रतिमान है, जो मनुष्य-जीवन के शिखर को किसी और धरातल पर आत्मा के केंद्र में परिभाषित करने वाला करिश्मा है; जो तेरे घर के सामने जैसी कई फिल्मों में खिलंदड़ी-प्रेमिल और चुलबुले रोल निभाते आ रहे दिल के भंवर की पुकार सुनते आ रहे नायक की भी कड़ी परीक्षा है; वही गाइड के मानस को छूकर अपने से परे के, मनुष्य-मन के ही रहस्य-लोक में बसे चेतन-उपचेतन बिंदुओं के मर्म को भी समझाने का माध्यम बन गया है। उसने इस नायक के आध्यात्मिक-सोच का स्तर हासिल कर मानो इस व्यवहार-जगत को बदला हो और पहले से चले आ रहे नायक के मानकों को भी ध्वस्त कर दिया हो।

स्वयंसिद्ध होने को हमेशा आतुर रहे देव आनंद के रूपहले हृदय में राज और दिलीप कुमार के नायकत्व-विस्तार और संघर्ष की छबीली-छाप के रहते अपने दम पर हिंदी सिनेमा को नया और पुनर्नवा करते रहने का कहीं बड़ा ग्राफ समाया है। इस त्रयी में देव आनंद के ग्राफ और उनकी मनपसंद और कुछ-कुछ रोबीली ‘स्टार इमेज’ को भी उनके समय के गायकों, बैकग्राउंड म्यूजिक, मौसिकारों, शायरों-गीतकारों और सर्वश्रेष्ठ निदेशकों के ‘टीम वर्क’ ने भी उपजाया और आगे बढ़ाया है। शुरू से ही इस हसीन, नाजुक-ख्याल हीरो और उनकी उतनी ही ताजगी-भरी फिल्मों की सफलता या नाकामी को कई दौर तक बिखरे उनके दर्शकों के लगाव-मिजाज के अलावा ज्यादातर समय उनके पक्ष में रहे बाजार ने भी तय किया है। जब तक उनकी साख और जलवा कायम रहे, बाजार उन्हें नसीब होता रहा।

हीरा-पन्ना में जीनत अमान के साथ

हीरा-पन्ना में जीनत अमान के साथ

इस नसीब को हासिल करने वाले देव को मायानगरी में दिलीप कुमार और राजकपूर की तरह ‘एंट्री’ मुश्किल से ही मिली थी। दिलीप तो अशोक कुमार के पास काम मांगने गए थे, जो नहीं मिला। फिर ज्वार भाटा उन्हें नसीब हुई! राजकपूर नील कमल (1947) तक बरास्ते केदार शर्मा पहुंचे थे, जो उन्हें इस कला में दीक्षित करने से पहले तक हड़काए रखते थे। ऐसे नाजुक दौर में प्यारे लाल संतोषी की फिल्म हम एक हैं से 1946 से अपनी सिने-पारी का शुभारंभ करने वाले देव आनंद किस्मत के धनी थे। उन्हें भी बाम्बे टाकीज के बैनर तले जिद्दी नसीब हुई थी। 1946 से 2011 तक के लंबे अरसे की सभी तरह की पारियों में वे सदाबहार रहे हों, पर लूटमार, चार्जशीट या 2016 की सौगात अंतिम फिल्म अमन के फरिश्ते जैसी और भी फिल्मी कवायदों से उन्हें कुछ हासिल कहां हुआ! जाहिर है, अंतरालों में भी अपनी ‘चिरयुवा और रौबीली हो चली छवि’ से वह क्यों कर मुक्ति चाहते? उसे बाद तक खुशनुमा बनाए रखने के जुगाड़ और औजार उनके पास थे।

इस बीच उनकी इस सिने-यात्रा में कई और आयाम जुड़ते चले गए। पिछली सदी की कमाई गई पारियों से बाहर आते-आते, प्रखर-प्रतिभाओं के रूप में चेतन आनंद और विजय आनंद (गोल्डी) का साथ मिलने के बाद खुद प्रोडयूसर, डायरेक्टर, राइटर की भूमिका में उतरने का भूत भी सवार था। उसे वह अपने मिजाज और प्रयोगशीलता से सिद्ध भी करते रहे। उन्होंने प्यार का तराना और देस-परदेस को लिखा, तो तीन फिल्मों के निर्माता भी रहे, पर नई बड़ी पारी में निर्देशित की 17 फिल्मों में प्रेम पुजारी, हरे राम हरे कृष्ण या हीरा-पन्ना के अलावा और किसका बोलबाला रहा?

गाइड का शिलालेख

हम एक हैं (1946) से चार्जशीट (2011) तक देव आनंद की सैकड़ा पार कर गर्इं फिल्मों का यह सफर एक नायक के महानायक का पिछली सदी से अगली सदी में छलांग लगाने का भी एक प्रामाणिक सफर जरूर रहा, जिसमें क्लासिकी की भूख उनमें गाइड के बाद जागी ही नहीं। वास्तविकता तो यही थी कि उन्हें अमरता प्रदान करने वाला कोई जमीनी कथानक गाइड जैसी कृति को जीने के बावजूद उनके पास नहीं बचा था।

फिल्मी नायकवाद को तोड़ने की पहल बेजुबां फिल्मों के जमाने से ही शुरू मानी गई। देव-युग से पहले खुद उनके प्रतिभाशाली बड़े भाई चेतन आनंद, बिमल रॉय और ख्वाजा अहमद अब्बास इसी दिशा में अग्रणी रहे। देव-युग में कालाबाजार, बंबई का बाबू, हम दोनों और अंतत: गाइड की मार्फत उस कोरे फिल्मी-नायक की महाछवि को तोड़ने या बदलने का रास्ता खुद देव आनंद अपने नए कबूल किए गए नायक के आत्मसंघर्ष की नई जटिलताओं/गांठों से उलझ कर तय करते रहे हैं। काला बाजार उस फिल्मी नायक की छवि टिकटों की कालाबाजारी करते बदल रहे प्रमुख चरित्र देव (रघुवीर) की अंतरात्मा के प्रायश्चित से दरकती है, जो दो रुपये की टिकट को सौ रुपये तक ब्लैक में बेचने की सफल-गिरोहबंदी में शामिल संगी-साथियों का खुद मुखिया हो चला है। इसके लिए फिल्म मदर इंडिया के प्रीमियर के मौके को कहानी से जोड़ कर नायक का हृदय-परिवर्तन कराने का करिश्मा गोल्डी का ही है, जो 1960 में बनी इस फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखते हैं और उसका निर्देशन भी करते हैं। वही पांच साल बाद गाइड में नायक के हृदय-परिवर्तन के बजाय उसका एक नया रूपांतरण ही ऐसा प्रस्तुत कर देते हैं कि फिर स्वामीजी में रूपांतरित राजू गाइड को अपने नूतन अवतार में तदंतर प्रायश्चित की भी उतनी दरकार नहीं रहती। अलबत्ता, नायक के ये दोनों प्रतिरूप इससे पहले देव की सर्वोत्तम रोमांटिक और साहसी-छवियों का निरूपण कर चुकी हम दोनों में भी आत्मनिरीक्षण और आत्मद्वंद्व की परतों में उद्घाटित हो चुके हैं। नायक के भीतर के वास्तविक द्वंद्व से लड़ती उनकी तमाम रोमानी-छवियां हम दोनों तक नहीं रुकीं- जैसे देव गाइड में नायक के उससे आगे के महारूपांतरण का ही इंतजार कर रहे थे।

जॉनी मेरा नाम ने अपनी अलग ही छवि बनाई

जॉनी मेरा नाम ने अपनी अलग ही छवि बनाई

दरअसल, गाइड में अकेला राजू गाइड ही नहीं, मिस्टर मार्को, मिस रोजी, राजू की मां के रूप में लीला चिटनिस, मामा (उल्हास), दोस्त (गफ्फूर हुसैन), भोला (गजानन जागीरदार), जोसेफ (राशिद खान) और भोला की पत्नी (परवीन पॉल) सभी तो वास्तविक जीवन के प्रतिरूप थे। राजू की सच्चाइयों और आत्मकथ्य से गुजर कर उन्हें भी इसे किसी सिरे तक पहुंचाना था जहां गाइड क्लासिकी में बदलने का इंतजार कर रही थी। आर.के. नारायण के उपन्यास को और तमाम पात्रों को किताब से बाहर आकर परदे पर एक नूतन अर्थवत्ता हासिल हुई थी।

देव की युवाकाल की प्रतिमा और प्रतिभा को निरंतर गढ़ती-निखारती आई करीबन साठ से ज्यादा (1946 से 1965 तक) फिल्मों के तेवर और उनकी आईनागीरी गाइड के कालखंड से जुदा है। गाइड का जीवन-दर्शन और अध्यात्म ही उसके नायक के मोहभंग/रूपांतरण के बाद उसे एक अलग गरिमा प्रदान करता है। किसी के जीवन का जटिल और इतना बहुरूपी कैनवास किसी एक फिक्शन से सधे हुए स्क्रीनप्ले में रचकर फिल्म में उतारना गोल्डी और देव जैसी लीजेंडरी हस्तियों के ही बस की बात थी। फिक्शन की अपनी सीमाओं को तोड़ते हुए गाइड उस रूपहले और भ्रमित किरदार को फ्लैशबैक के झंझावात से भी बाहर निकालती है। सींखचों के पीछे चले गए नायक राजू का रोजी के सामने किया गया ‘कनफेशन’ भी कितनी खूबसूरती से बयां हो रहा है, “दोष मेरा ही था रोजी! मुनासिब था कि मैं तुम्हें घर की लक्ष्मी बनाता! हां, अब मुझे तो नए सिरे से शुरू करना होगा... जीवन!”

जेल के सींखचों के पीछे जाने के फ्लैशबैक राज खोसला निर्देशित फिल्म काला पानी में कहीं भिन्न हैं। किंचित उनके प्रासंगिक संवादों की अदायगी में जो बात है, वही भिन्न पात्रता को भी जीने के, देव के अंदाज में मुकम्मिल आईनागीरी का अहसास वहां भी कराती है। उनकी यह मुकम्मिल तराशी गई पात्रता एक जिस्मफरोश (खल-पात्र किशोरी के रूप में नलिनी) औरत के जमीर पर चोट करती हुई, उसे बेपरदा करती हुई एक वेश्या का दूसरा चेहरा भी सामने लाती है, जब नायक रूबरू कहता है, “क्या तुम वही जमीरफरोश औरत नहीं जिसने चांदी के चंद सिक्कों की खातिर एक बेकसूर, एक बेगुनाह आदमी को मुजरिम कहकर जेल के अंधेरे में धकेल दिया?”

1950-60 के दौर के किसी मॉडर्न खल-पात्र का यह फिल्मी रूप 1965 की आत्मसंभवा अभिव्यक्ति गाइड में अपने-पराए की अनन्य मानवीय बुराइयों से ऊपर उठ कर  स्वामीजी के अवतरण में वेदना की काली छायाओं से मुक्त हो जाता है। ऐसी आत्मसंभवा कोशिश फिल्मों में पहले कभी सोची ही नहीं गई थी। उपवासी-स्वामी का आत्मदर्शन मानो जीवन-जगत के नए प्रश्नों और समकाल के अकाल के सम्मुख ही उसकी दिशा तय कर देता है। उस क्षण में ईश्वर को माध्यम मानकर रूपांतरित राजू का उपवासी वह स्वामी-रूप ही जैसे खुद से पूछ रहा था, “हे भगवान! ये कैसा इम्ति‍हान है? क्या भूख का बादलों से कोई रिश्ता है? हो सकता है! संभव है! तो ये रिश्ते टूटते कहां हैं?”

गाइड के राजू उर्फ स्वामीजी का एक गुलाबी अतीत रहा है, जो मानें तो मिट चुका है। अकालग्रस्त  क्षेत्र में अचानक छाए जलाम्बर की बदलियों से वही एक उम्मीद लगाए हुए है- उस गरीब-गुरबे वाले क्षेत्र के जन-भरोसे को बचाए रखने के लिए! वहां के लोग उसे उपवास की मुश्किल घड़ी में अपने भरोसे के काबिल और अपना ‘बाबा’ मान चुके हैं। वह भी किसी अज्ञात-शक्ति के सहारे उनके विश्वास की लौ लगाए है, लेकिन उसके नेपथ्य में कुछ और भी सामने था- जिसका एक ‘री-टेक’ बाकी रह गया है। स्वामी उर्फ राजू बरसों बाद पीछे छूट गई रोजी की धड़कनों में ऐसे वक्त में बवंडर उठा रहा है जब उसकी ख्याति (स्वामी रूप में) हर किसी को खींच रही है। आकुल-व्याकुल रोजी भी उसी डगर पर भटक रही है। अरसे बाद अपने ‘स्वामी’ से मिलने से पहले वहां कुछ ऐसा घट रहा है जो अप्रत्याशित है। स्वामी की प्रसिद्धि से विस्मित एक चैनल की अमेरिकी रिपोर्टर अचानक उनसे यह पूछ बैठी है,  “क्या आपने कभी किसी से प्यार किया?” उसी क्षण रोजी नंगे-पांव अर्धमूर्च्छा में स्वामी उर्फ राजू के पांवों में आन गिरी है।

यह बीते हुए समय के छूट गए आराध्य के संयोग-मिलन जैसा मूल्यवान क्षण राजू गाइड को पा लेने भर का नहीं है। कभी बने और कमजोर हुए या टूट गए रिश्ते की यह डोर अब तक बंधी है। यह उसी का आभास है। नायक-नायिका के बीच का मृदुल या जटिल-संबंधों का टूटता यह पुल हिंदी फिल्मों के कथा-संसार में बाकी सिनेरियो को भी विचलित करने वाला रहा है, जो तब तक की फिल्मी कथाओं में कभी-कभार किसी ‘दूसरे आदमी’ से यानी धनी-पुरुष से निकट होने के कारण बन गए विजातीय स्नेह-संबंध के नायिका के जीवन में प्रवेश की दरकार रखता था। यहां उसके पारस्परिक अलगाव का दायरा इस तरह का नहीं कि वह स्‍त्री-विमर्श में किसी की गाढ़ी हो चली कमनीय-सांसारिकता के भीतर या बाहर अचानक फिर से अनटूटा प्रतीत होने लगे। ऐसा संभव होने के कारण गाइड की इस नई क्लासिकी की व्याख्या के ओर-छोर कहीं खत्म होते नजर नहीं आते।

गौरव-गाथा के सहारे

देव आनंद की जवां-दिनों की फिल्मों की हसीन छाप बाजी, नौ दो ग्यारह, ट्रैक्सी ड्राइवर, फंटूश, काला पानी, जलजला, तेरे घर के सामने, जिद्दी, सनम, हमसफर, सीआइडी., पाकेटमार, पेइंग गेस्ट, राही, सोलहवां साल, अमरदीप, बम्बई का बाबू, असली नकली, हम दोनों के दायरे में चहेते दर्शकों की दुनिया को नए-नए विषयों से जोड़ती और रोमांचित किए रहती है। उत्तर-काल में उम्र की पहली ढलान पर आसानी से मिलती गर्इं फिल्मों आनंद और आनंद, हम नौजवान, लश्कर, सच्चे का बोलबाला, अव्वल नंबर, सौ करोड़ और गैंगस्टर में बदली इमेज वाली भूमिकाएं पोस्टर की रंगीनी में अव्वल या अलग होने का दावा कर सकती हैं पर पहले जैसी टिकाऊ नहीं! वे याद भी नहीं रहतीं। उनकी जरूरत के हिसाब से देव अपना गेटअप, चोला (पहनावा) और रंग-ढंग कतई नहीं बदलते। होम प्रोडक्शन की छूट से मिली और लगातार बनाई जाती रही इतने बड़े (कद्दावर) अदाकार की ऐसी फिल्में ‘नाम’ और ‘बैनर’ के भरोसे चल जाती हैं, पर देव का नाम अब उन्हें उतना आगे नहीं बढ़ाता। हर कोई सोहराब मोदी, किशोर साहू, राजेन्द्र सिंह बेदी और विजय आनंद नहीं हो सकता, जिन्होंने सिनेमा को बदलने के लिए सचमुच जोखिम उठा कर अपनी प्रतिभा के दम पर खुद बेहतर प्रतिमान गढ़े थे।

सिने-क्लासिकी के हर पहलू की गहरी समझ रखने वाले गोल्डी ने देव आनंद को गाइड के विश्वसनीय नायक के अवतार में ढाला था। वही विजय आनंद कहने को विवश थे कि देव आनंद एक के बाद एक मूवी क्यों बनाए जा रहे हैं। उनका आशय साफ था कि ऐसी फिल्मों की सार्थकता क्या है, पर देव तो देव ठहरे। उन्हें बीते युग के अपने ही मैनरिज्म और अपने गढ़े हुए फिल्मी-फॉर्मूले पर पूरा यकीन बना रहा। वे ज्यादातर समय अपनी ही कमाई छवि के गुलाम रहे। जलवा लौट आने की उम्मीदें उन्हें हमेशा बनी रहीं। दिल्ली दूरदर्शन से लेकर स्टारडस्ट तक कितने ही इंटरव्यू इस उम्मीद पर खर्च होते चले गए। कितनी ही बातचीत किताबों में बदल गई। धीरे-धीरे उनकी इमेज के बदलते चैप्टर मीडिया से खारिज होते चले गए। इस पर किसी ने गौर नहीं किया। देव साहब को तो बस अपनी ‘गौरव गाथा’ को संभाले रखना था। वही उन्होंने किया।

मधुबाला के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी

मधुबाला के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी

नए विषयों को छूने के बावजूद उन्हें उतने ही सलीके से आजमाने की कला उनके पास नहीं थी। वह अपनी छवि में कैद सिने-सिपहसालार हो चले थे जिसके पास अपनी अगली फिल्मों के रचाव के मनगढ़ंत रास्ते शेष रह गए थे या वे चंद प्रयोगशील रास्ते जिन्हें उन्होंने अपनी समझ से नई पीढ़ी के दायरे में आजमाया और एक सनसनी पैदा करने की नई-सी कोशिश की, लेकिन बिकाऊ फिल्मों की अरबी-दौड़ में भी शिरकत जारी रखी। बदलते दौर में उनके ताजातरीन सिने-प्रयोगों में कुछ गीतों, उनकी लौकिक या सतरंगी-धुनों पर थिरकती नई-नवेली नित आती-जाती या खोजी जा रही नायिकाओं की चर्चा जरूर होती रही। उनके पिछले बेहतरीन काम और उनकी अभिनय शैलियों की चमक के पीछे पी.एल. संतोषी, शाहिद लतीफ, चेतन आनंद, गजानन जागीरदार, गुरु दत्त, फणि मजूमदार, पॉल जिल्स, अमिय चक्रवर्ती, ख्वाजा अहमद अब्बास, राज खोसला, एस.एस. वासन, सुबोध मुखर्जी, एच.एस. रवैल, शंकर मुखर्जी, विजय आनंद, टी. प्रकाशराव, अमरजीत, शक्ति सामंत, नासिर हुसैन, ऋषिकेश मुखर्जी, आत्माराम, यश चोपड़ा, बी.आर. इशारा और बासु चटर्जी का तजुर्बा काम आया था, जिनकी सनद की अब उन्हें  दरकार नहीं रह गई थी।

अधेड़-छवि में भी मस्तमौला रहकर, दिखकर, जवान पहनावे के साथ जीने का मंत्र उनके पास था। श्याम-श्वेत युग से ही छबीली और सयानी नायिकाओं का साथ उन्हें मंत्रमुग्ध किए रहता था। खुर्शीद, सुरैया, कामिनी कौशल, नरगिस के बाद देव साहब नलिनी जयवंत, निगार सुल्ताना, मधुबाला, गीता बाली, मीना कुमारी, निम्मी, बीना राय, उषा किरण और श्यामा के भी परदे पर उजले-निथरे नायक और आशिक, खैरख्वाह या शिकार बने। फिल्मी हसीनाओं का अगला झाला भी देव साहब झेल गए। देव आनंद का अधेड़ होना उनकी शख्सियत के बरक्स आड़े जैसे कभी आया ही नहीं। हेमा मालिनी, जाहिदा, मुमताज, जीनत अमान, राखी, शर्मिला टैगोर, योगिता, परबीन बाबी, ज्योति बख्शी, प्रिया राजवंश, क्रिस्टिना और टीना मुनीम के साथ जोड़ीदार होना उन्हें रास आता रहा। अब अभिनय कौशल में कच्ची या नई तारिकाएं बेहतर होने का दावा करने लगी थीं। देव साहब को भी ऐसी ही ‘माई यंग लेडी’ पुकार रही थीं। उन्हें उन जैसा अजीम ‘गॉडफादर’ दूसरा मिलना मुश्किल था जो उन्हें अभिनय के लटके-झटके भी प्रेम से समझाता। कई क्लासिक फिल्में दे चुका उनका बदला मिजाज अब इस वक्तकटी में सब कुछ भुना रहा था।

शिखर का अकेलापन

भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के नाटकों और वहां की गतिविधियों से जुड़े प्रथम नागरिकों में रहे ख्वाजा अहमद अब्बास के बरास्ते फिल्मी दुनिया की सुरंग में प्रवेश करने वाले देव आनंद ‘जुबेदा’ नाटक में न हीरो बनते, न बाबूराव की नजर चढ़ते। सेल्युलॉइड की दुनिया में छा जाना जैसे वह अपनी शानदार किस्मत में लिखा कर लाए थे। इप्टा के ही एक स्तंभ बलराज साहनी ने उन पर फब्ती कसी थी कि वे ऐक्टर नहीं बन सकते। इसे उन्होंने गलत सिद्ध किया। उन्हीं बलराज साहनी ने 1951 की देव-कल्पना कार्तिक-गीता बाली की फिल्म बाजी की कहानी और स्क्रीनप्ले गुरु दत्त के साथ मिलकर लिखे थे। गुरु ने उसका सफल निर्देशन किया था। अलबत्ता, रंगीन सिनेमा की बुर्जियां छू लेने और गाइड की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर की ख्याति के बाद उन्होंने प्रेम पुजारी से यह भी साबित करने की कोशिश की कि वे एक सफल निर्देशक होने का माद्दा कुछ तो रखते ही हैं, पर वह चेतन आनंद और गोल्डी की तरह ‘स्टार-निर्देशक’ नहीं बन सके।

विजय आनंद ने देव की ‘एवरग्रीन’ छवि को गाइड के बाद और पहले चमकाया ही नहीं, उसमें माकूल रंग भी खूब भरे। ज्वैल थीफ, जॉनी मेरा नाम, छुपा रुस्तम, तेरे मेरे सपने के अलावा काला बाजार, तेरे घर के सामने, नौ दो ग्यारह उन्हीं गोल्डी की विरासत हैं। इन दोनों भाइयों के संग-संग ‘देवतुल्य’ मान लिए गए इस सदाबहार अभिनेता की फिल्मों की सफलता में सचिन देव बर्मन, किशोर कुमार, जयदेव और शैलेन्द्र-मजरूह की कमाल की सृजनात्मकता का भी उतना ही बड़ा योगदान है।

दर्दीली, नमकीन, मोहिनी आवाज की शहजादी रूपवती सुरैया का देव की फिल्मों और जिंदगी में होना और आना-जाना भी एक हसीन अध्याय की तरह ही पढ़ा जाता रहा। उस अनमोल अध्याय को दिल की किताब से निकालने का वाकया भी उनके साथ घटा, जिसे मीडिया ने खूब हवा दी पर देव-सुरैया के बिछोह की कथा को टैक्सी ड्राइवर बनते-बनाते सब भूल से गए। सिम्मी ग्रेवाल से एक बातचीत में उन्होंने बस इतना और कहना मुनासिब समझा, “एक महफिल में मुद्दतों बाद देखा था। दोनों ने वहां अबोला ही रखा। कुछ कहने को था भी क्या!”

अफसर और सात फिल्मों की नायिका रहीं सुरैया से बिछोह के बाद उम्र में दो साल बड़ी, खूब पढ़ी-लिखी लाहौरी क्रिश्चियन लड़की मोना सिंह 1954 में एक फिल्म की मार्फत देव की जिंदगी में समा गईं। टैक्सी ड्राइवर की इस हीरोइन का फिल्मी नाम तब से ही कल्पना कार्तिक हो गया। चेतन आनंद निर्देशित इस फिल्म को शीला रमानी के रहते एक नए नाम की दरकार थी। मोना सिंह वैसे भी कोई फिल्मी नाम नहीं था। इस फिल्म के दौरान ही यह नायिका देव आनंद की जीवनसंगिनी बन गई और देव की चाहत की पहली खुली फिल्मी-किताब सुरैया विद्या, जीत, नीली, अफसर, सनम और दो सितारे जैसी फिल्मों के लिहाफ में सिमट कर बंद हो गई।     

देव साहब की अदाओं की पहली खुमारी कल्पना कार्तिक ही नहीं, उस मायानगरी के हर गली-कूचे की रौनक बनी रही। दशकों तक उनकी फिल्में धूम मचाती रहीं। उनकी रोमांटिक छवि ही नए सितारों के लिए भी कुछ समय तक शाश्वत हो चली थी। उनकी बांकी अदा के दीवाने तो नए से नए हीरो भी रहे। ‘याहू’ या ‘यूडलिंग’ गायन-शैली विकसित होने से पहले तक सब मानो उनके मुरीद थे। नए नायकों के आगमन और तहलके के बावजूद सीनियर हो चले देव आनंद का जमाना जैसे लौट-लौट आता था। इसकी मिसाल उन्होंने ज्वेल थीफ और जॉनी मेरा नाम की दस्तक देकर पेश की थी। हीरोइन, सेट, लोकेशन की नई सज-धज और समझ से बाद तक की ड्रामाई फिल्मों को लगातार ऐसे ही जीवनदान मिलता रहा।

देव का साथ तो शत्रुघ्‍न सिन्हा, जैकी श्रॉफ, तब्बू और मिथुन तथा समानांतर सिनेमा की सशक्त पहचान बने नसीरुद्दीन शाह को भी नसीब हुआ। नसीर की खुशी तो सौ करोड़ जैसी फिल्म में फौरी-भूमिका में उतर कर भी बनी रही। उन्होंने देव आनंद के साथ पुलिसिया लुकाछुपी की एक और फिल्म करने के बाद तहेदिल से कहा था- ‘मैं अपनी अगली नस्लों को बेहद खुशी के साथ बता सकूंगा कि देव आनंद के साथ मैंने भी काम किया है!’ निशांत, मंथन, भूमिका, मंडी, मिर्च मसाला और जुनून जैसी फिल्मों  से पहचाने गए ये वही नसीर साहब हैं जो आज की तारीख में दिलीप कुमार तक की तीखी और कड़ी आलोचना करने का रसूख रखते हैं- भूलना नहीं चाहिए कि दिलीप साहब को देव आनंद के दौर का अभिनय-मुगल माना जाता है।

वही दिलीप कुमार, देव आनंद के साथ इन्सानियत (1955) में जयराज, विजयालक्ष्मी, जयंत, आगा, शोभना समर्थ, बीना राय की मौजूदगी में मंगल की भूमिका में छाए रहे थे। उसका एक और कारण दिलीप कुमार की अपनी और दूसरे बैनर की बड़ी फिल्मों पर जबरन एकाधिकार से वास्ता है। यहां तक कि वासन की फिल्म इन्सानियत में देव का रोल कटवाने या उसे कमतर करने का भी इस दिग्गज अभिनेता पर आरोप लगा था। बरसों बाद जब दादा साहब फाल्के अवॉर्ड देव साहब को मिलने की भनक उन्हें लगी थी, तब भी इसे किसी और को दिए जाने का दबाव बनाने का उन पर आरोप लगा था, जिसमें वे असफल रहे। यूं देव का जादुई करिश्मा उनके हमसफर- दिलीप साहब और राज कपूर भी- कबूल करते हैं। इन तीनों महानायकों का नेहरूजी से एक साथ मिलना हो या लताजी के साथ मुस्कान बांटते चित्रों में देखा जाना हो, वह सब तो होता ही रहा। अपने जमाने की इस त्रयी में उनकी ऊर्जा और जोशे-जवानी सभी पारियों में सर्वाधिक रौशन हुई।

देवदास से ख्यात हुए दिलीप कुमार आजीवन ट्रैजेडी किंग बने रहे। जागते रहो से मेरा नाम जोकर तक, अनाड़ी से तीसरी कसम तक राज कपूर के पास हारे हुए आशिक का भदेसपन और हीरामन का टूटा हुआ मन ही बचा रहा। नायक से ज्यादा बड़ी उनकी छवि सिनेमा के असली मालदार सौदागर की रही। इनसे उलट, रूमानियत को हर कोण से जीने और उसको सबके दिलों में उतारने में अव्वल रहे अकेले आकाश-कुसुम देव आनंद ही थे। विडम्बना है कि अंत में वे यह कहते पाए गए, ‘शिखर पर खड़ा आदमी अंतत: अकेला होता है!’

प्रताप सिंह

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और उनकी सिनेमा-विमर्श पर कई किताबें हैं )

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