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फिल्मों में देशभक्ति का रंग

भारत के लिए देशभक्ति आजादी के आंदोलन से सीमा पार होती हुई यह खेल के मैदान तक पहुंचती है।
फिल्मों में देशभक्ति का रंग

साल में दो बार देशभक्ति का मौसम आता है। एक है आजादी का पर्व यानी 15 अगस्त। दूसरा है संविधान का उत्सव यानी 26 जनवरी। संविधान उत्सव से ज्यादा आजादी के पर्व की धूम रहती है। डेढ़ हजार साल की गुलामी की जंजीरें जिस दिन टूटी थीं, जाहिर सी बात है वह ज्यादा बड़ी खुशी का दिन है। बॉलीवुड समाज की हर खुशी में शामिल होता रहा है। यही वजह है कि सिनेमा के परदे पर आजादी के लिए संघर्ष को साफ-साफ देखा जा सकता है। अंग्रेजों से आजादी मिलना इतना आसान नहीं था। ऐसे ही बॉलीवुड के लिए इन कहानियों को समेटना आसान था।

 

गुलामी के बादलों को छांटने के लिए क्या संघर्ष हुए यह आनंदमठ फिल्म में पूरे जज्बे से दर्शकों के सामने आया। नवरंग पूरी तरह आजादी के रंग में डूबी फिल्म नहीं थी मगर अंग्रेजों के अत्याचार इस फिल्म में भी दिखाई दिए और उस दौर के दर्शकों ने जाना कि आजादी के मायने क्या हैं। बॉलीवुड समय-समय पर आजादी का जश्न अपने हिसाब से बनाता रहा। जैसे-जैसे साल-दर-साल बीतते गए आजादी और देशभक्ति की परिभाषा भी बॉलीवुड के परदे पर बदलती गई। पहले जो खलनायक अंग्रेज हुआ करते थे उसकी जगह पड़ोसी देशों के साथ युद्ध और फिर सीमा पार आतंकवाद ने ले ली।

 

देशभक्ति के माने पहले सिर्फ आजादी तक ही सीमित इसलिए रहे कि न आतंकवाद पनपा था न भारत ने युद्धों की विभीषिका झेली थी। चीन के साथ युद्ध में चेतन आनंद ने बहुत विश्वसनीयता के साथ सन 1964 में हकीकत फिल्म बनाई। यह फिल्म सन 1962 में भारत के चीन से हुए युद्ध पर आधारित थी। यह अलग बात है कि भारत को इस युद्ध में पराजय का सामना करना पड़ा था। लेकिन फिल्म में देशभक्ति का जज्बा कूटकूटकर भरा था। कर चले हम फिदा जानों तन साथियों गाना ऐसा कालजयी हुआ कि आज तक स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रमों में यह प्रमुखता से बजाया जाता है। तब संचार के इतने साधन भी नहीं थे कि आम जनता युद्ध के बारे में इतनी बारीकी से जान पाती। सो हकीकत फिल्म ने उन्हें भारत-चीन युद्ध की दुश्वारियों से रूबरू कराया। लेकिन इसके संगीत और इकलौते गाने के बाद भी दर्शकों का इससे जुड़ाव इसलिए नहीं हो सका क्योंकि भारतीय स्थायी रूप से सिर्फ पाकिस्तान के विरुद्ध ही कुछ कहने सुनने में आनंद उठाते हैं और यही इकलौता मसला है जिस पर हर भारतवासी का खून रगो में तेजी ले आता है। भारत-पाकिस्तान के तनाव को बॉलीवुड ने समय-समय पर खूब भुनाया और खलनायक अंग्रेजों का स्थान स्थायी रूप से पाकिस्तान ने ले लिया।

 

इससे पहले 1948 में आई शहीद को दर्शकों ने बहुत पसंद किया था और देशभक्ति की फिल्मों में यह इकलौती ऐसी फिल्म थी, जिसका संदर्भ देशभक्ति के लिए किया जाता था। क्रांतिकारी भगत सिंह के जीवन पर सालों बाद दो-तीन फिल्में और आईं लेकिन शहीद का जादू कोई फिल्म न तोड़ पाई न भगत सिंह का चरित्र उभार पाईं। कुछ मामलो में सन 2002 में अजय देवगन अभिनीत लीजेंड ऑफ भगत सिंह को कुछ मामलों में फिर भी ठीक कहा जा सकता है। खैर, समीक्षकों ने इन फिल्मों के न चलने का कारण नई पीढ़ी का भगत सिंह को ठीक से न जानना भी माना।

 

भारत में फिल्मी दुनिया की यह विडंबना ही रही कि इतने लंबे चली आजादी की लड़ाई में कई क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता सेनानियों का नाम हुआ। उनके खाते में उल्लेखनीय काम हुए मगर सुनहरे परदे पर उन्हें उतनी खूबसूरती और सशक्त तरीके से फिल्माया नहीं जा सका। गांधी इस पूरी लड़ाई में जिस तरह के नायक बन कर उभरे उन पर भी एक अंग्रेज रिचर्ड एटनबरो ने सबसे अच्छी फिल्म बनाई। सन 1982 में बनी इस फिल्म का अभी भी कोई तोड़ नहीं है। आजादी का आंदोलन, आंदोलन के दौरान घटी प्रमुख घटनाएं, आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाने वाले क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानियों पर जितनी मेहनत एटनबरो ने की उतनी किसी भारतीय फिल्मकार ने नहीं की। बेन किंग्सले ने गांधी की भूमिका में जान डाल दी थी।

 

गांधी व्यावसायिक फिल्म भी थी और नहीं भी। इसके बाद भी स्वतंत्रता आंदोलन पर कई फिल्में बनीं। मंगल पांडे, सरदार, चटगांव, खेले हम जी जान से जैसी कई फिल्में आईं पर छाप नहीं छोड़ सकीं। इनका एक कारण वास्तविक कहानी में कल्पना के मिश्रण में गड़बड़झाला था। फिर भारत की एक पूरी पीढ़ी बदली और कारगिल युद्ध की आंच ने भारतीयों को झुलसा दिया। इसके बाद इस युद्ध पर फरहान अख्तर ने लक्ष्य बनाई जो युद्ध की पृष्ठभूमि और एक दिशाहीन युवक की उम्दा कहानी थी। फिर धीरे-धीरे बॉलीवुड बदल गया और बॉलीवुड की देशभक्ति की परिभाषा भी बदलने लगी। सन 1997 में भारत-पाकिस्तान युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी बॉर्डर ने दर्शकों की जबर्दस्त वाहवाही बटोरी। भारत ने यह युद्ध पाकिस्तान से जीता था और जब परदे पर काल्पनिक रूप से ही सही वह दौर दोबारा जीवंत हुआ तो भारत माता के लाड़लों ने थिएटरों को देशभक्ति नारों से गुंजा दिया।

 

धीरे-धीरे देशभक्ति के मायने बदलने लगे और अंग्रेज, गुलामी, गांधी, नेहरू, सरदार पटेल से निकल कर बॉलीवुड में कश्मीर का उग्रवाद, पंजाब का आतंकवाद, हिंदू-मुस्लिम दंगे शामिल होने लगे। देशभक्ति और देशद्रोही होने के बीच एक खास रंग आ गया और इसी रंग में फिल्मी दुनिया रंग गई। सामुदायिक तनाव ने जब वास्तविक जीवन में बड़ा मोड़ लिया तब बॉम्बे और रोजा ने अपनी अलग उपस्थिति दर्ज कराई। फिराक और ब्लैक फ्राइडे जैसी फिल्मों ने दर्शकों को खींचा। परजानिया ने प्रतिबंध झेला और ए वेडनसडे ने तय किया कि एक सामान्य नागरकि के लिए देशभक्ति के क्या मायने हैं। सरफरोश जैसी विशुद्ध व्यावसायिक फिल्म में भी कहानी अंत में वहीं जाकर जुड़ी जहां का नाम लेकर राजनेताओं की दुकानें हमेशा गुलजार रहती हैं।

 

इन फिल्मों के साथ ही देशभक्ति के अलग मायने भी खोजे जा रहे थे। यदि कोई भारतीय सारे संसाधनों का इस्तेमाल कर विदेश में बस जाए तो क्या यह भी देशद्रोह है। सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन सिर्फ ऊंची आवाज में नारे लगाना या आंखे तरेर कर नाराजगी जाहिर करने से ज्यादा देश के लिए कुछ करने का जज्बा होना चाहिए। आशुतोष गोवारीकर ने स्वदेश बना कर यही संदेश देना चाहा। हालांकि अच्छी पटकथा और लचीले निर्देशन से यह बात निकल कर सामने नहीं आ पाई लेकिन उन्होंने अपने तरीके से देशभक्ति की परिभाषा गढ़ने की कोशिश जरूर की। सालों बाद एक वास्तविक घटना को कल्पना की चाशनी में डुबो कर जयदीप साहनी ने चक दे इंडिया की पटकथा लिखी और विदेश के एक फुटबॉल के मैदान में तिरंगा फहराने के लिए उस फिल्म की लड़कियां जितनी उत्सुक थीं, उससे ज्यादा तनाव उन दर्शकों में था जो कहानी को अपने अंदर महसूस कर रहे थे। बॉलीवुड की देशभक्ति का अंदाज बिलकुल जुदा है। हो सकता है आने वाले दिनों में इसका कोई और रंग दिखाई पड़े। 

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