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जरा सा निशाना चूक गई बाबूमोशाय की बंदूक

बाबूमोशाय बंदूकबाज फिल्म के शीर्षक से यह तो पता चल रहा है कि यह बंदूक की कहानी है। बंदूक होगी तो गोलियां भी होंगी, गोलियां होंगी तो गालियां खुद ब खुद चली आएंगी और खून...वह तो फैलेगा ही।
जरा सा निशाना चूक गई बाबूमोशाय की बंदूक

फिल्म में वह सब है जो एक हत्यारे (कॉन्ट्रेक्ट किलर कहने से यह शब्द उतना डराता नहीं है) की जिंदगी में होना चाहिए। पहले मजबूरी फिर उस मजबूरी का आदत हो जाना। बाबू (नवाजुद्दीन) पहली हत्या नौ साल की उम्र में करता है, भूख की वजह से। फिर बस हत्याएं करता चला जाता है, हिंसा की भूख का आदी होने पर। उसका एक फैन है! सच्ची बांके (जतिन)। वह बाबू की तरह होना चाहता है। अभी वह गुरु बाबू से गुर सीख ही रहा है कि गुरु की प्रेमिका (बिदिता) पर उसका दिल आ गया। प्रेमिका का दिल अपने प्रेमी को छोड़ उसके शिष्य पर क्यों आया, पता नहीं।

पूरी फिल्म में सब एक-दूसरे को क्रॉस कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं, पता नहीं। शक्ति संतुलन और राजनीति में इतना भी खून खराबा नहीं है भाई लोग। गालियों के बीच कुछ संवाद अच्छे हैं। इसे कंपनी या गैंग्स ऑफ वासेपुर की तरह बनाने की कोशिश की गई होगी। कोशिश कामयाब तो नहीं दिखती। इसकी पृष्ठभूमि भी गहरी है लेकिन नीम कालिख लिए गहरापन डालने में तो सिर्फ अनुराग कश्यप को महारत हासिल है। फिल्म का निर्देशन करते वक्त कुशान नंदी को इस बात का खयाल रखना चाहिए था।

यदि आप वह जमाना भूल गए हों जब लोगों को मेडिकल साइंस के बारे में कुछ पता नहीं था तो इस फिल्म का एक सीन देख कर आपको सुकून मिलेगा कि अब भी ऐसा होता है। ऐन सीने में लगी गोली बिदिता चाकू गर्म कर खट् से निकाल देती हैं। है न कमाल। एक और कमाल इस फिल्म में है, एक पुलिस वाला जो एक लड़की होने की आस में आठ लड़के पैदा कर चुका है, उसकी बीवी पीली पड़ती जा रही है पर बच्चे पर बच्चे हो रहे हैं, लड़की के इंतजार में। 

अगर दिव्या दत्ता को लगता है कि वह पान चबा कर डायलॉग कम गाली ज्यादा बकेंगी और आलोचक उनकी बोल्डनेस को सराहेंगे तो वह माफ ही कर दें। मर्दों को जैसे श्‍यूड पोलिटिशयन दिखाया जाता है, वैसी ही काम औरतों पर भी होना चाहिए। अगली बार कोई दिव्या दत्ता को कोई सुमित्रा टाइप रोल दे तो वह ध्यान रखें। जिन्हें नवाज, गालियां और बेमतलब का सेक्स छौंक चाहिए हो वे जरूर जाएं।

आउटलुक रेटिंग ढाई स्टार 

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