ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर फिल्में बनाना वैसे भी कठिन काम होता है। किसी शख्सियत पर पीरियोडिकल फिल्में बनाना भारत में बड़ी चुनौती इसलिए भी है क्योंकि विवाद होना तय रहता है। भंसाली ने फिल्म के लिए बाजीराव भल्लाळ की कहानी में थोड़ा सा फिल्मी मसाला मिलाया है। इस मसाले के बावजूद यह एक अच्छी फिल्म के रूप में याद रखी जा सकती है।
शाहू छत्रपति महाराज ने बाजीराव को पेशवा की दी क्योंकि वह महान योद्धा, युद्ध कौशल का जानकार, सैन्य अनुशासन में माहिर और कुशल रणनीतिकार था। इतिहास उसे इसी के लिए जानता है। भंसाली की फिल्म में बाजीराव इन सब से हट कर सिर्फ एक प्रेमी के रूप में ही ज्यादा दिखाया गया। भंसाली चाहते तो बाजीराव को जीत की यात्रा को और अच्छे ढंग से दिखा सकते थे।
इस फिल्म की खास बात संवाद और सही कास्टिंग है। संजय लीला के सीपिया टोन से प्रेम को भूला दिया जाए तो मस्तानी गाने के अलावा फिल्म का रंगों पर असर है। दीपिका और प्रियंका एक-दूसरे को टक्कर देती हैं। दोनों ने अपनी-अपनी भूमिकाएं बहुत सधी हुई की है। रणवीर सिंह चमत्कृत करते हैं। बाजीराव की बॉडी लैंग्वेज, दर्प, योद्धा का कौशल उन्होंने बखूबी अपने चरित्र में उतारा है।
यह हिंदी फिल्मों का दुर्भाग्य है कि जब फिल्म गति पकड़ लेती है तो बीच में एक गाना आ जाता है। पिंगा टाइप के गाने फिल्म की गति को तोड़ते ही हैं। भंसाली ने बहुत हद तक यह भ्रम तोड़ दिया है कि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों को दर्शक नहीं मिलते।